नई दिल्ली. देश को स्वतंत्र करवाने में अने क्रांतिकारियों ने योगदान दिया था. उन्हीं में से एक योगेश चंद्र चटर्जी भी थे. क्रान्तिवीर योगेश चन्द्र चटर्जी (योगेश दा) का जीवन देश को विदेशी दासता से मुक्त कराने की गौरवमय गाथा है. उनका जन्म अखंड भारत के ढाका जिले के ग्राम गोकाडिया, थाना लोहागंज में तथा लालन-पालन और शिक्षा कोमिल्ला में हुई. 1905 में बंग-भंग से जो आन्दोलन शुरू हुआ, योगेश दा उसमें जुड़ गये. पुलिन दा ने जब ‘अनुशीलन पार्टी’ बनायी, तो ये उसमें भी शामिल हो गये. उस समय उनकी आयु केवल दस वर्ष की थी.
अनुशीलन पार्टी की सदस्यता बहुत ठोक बजाकर दी जाती थी, और योगेश दा हर कसौटी पर खरे उतरे. 1916 में उन्हें पार्टी कार्यालय से गिरफ्तार कर कोलकाता के कुख्यात ‘नालन्दा हाउस’ में रखा गया. वहां बन्दियों पर अमानुषिक अत्याचार होते थे. योगेश दा ने भी यह सब सहन किया. 1919 में आम रिहाई के समय वे छूटे और बाहर आकर फिर पार्टी के काम में लग गये. अतः बंगाल शासन ने 1923 में इन्हें राज्य से निष्कासित कर दिया.
1925 में जब क्रान्तिकारी शचीन्द्र नाथ सान्याल ने अलग-अलग राज्यों में काम कर रहे क्रान्तिकारियों को एक साथ और एक संस्था के नीचे लाने का प्रयास किया, तो योगेश दा को संयुक्त प्रान्त का संगठक बनाया गया. काकोरी रेल डकैती कांड में कुछ को फांसी हुई, तो कुछ को आजीवन कारावास. यद्यपि योगेश दा इस कांड के समय हजारीबाग जेल में बन्द थे, पर उन्हें योजनाकार मानकर दस वर्ष के कारावास की सजा दी गयी.
जेल में रहते हुए उन्होंने राजनीतिक बन्दियों के अधिकारों के लिए कई बार भूख हड़ताल की. फतेहगढ़ जेल में तो उनका अनशन 111 दिन चला, तब प्रशासन को झुकना ही पड़ा. जेल से छूटने के बाद भी उन्हें छह माह के लिए दिल्ली से निर्वासित कर दिया गया. 1940 में संयुक्त प्रान्त की सरकार ने उन्हें फिर पकड़ कर आगरा जेल में बन्द कर दिया.
वहां से उन्हें देवली शिविर जेल में भेजा गया. संघर्ष प्रेमी योगेश दा ने देवली में भी भूख हड़ताल की. इससे उनकी हालत खराब हो गयी. उन्हें जबरन कोई तरल पदार्थ देना भी सम्भव नहीं था, क्योंकि उनकी नाक के अन्दर का माँस इतना बढ़ गया था कि पतली से पतली नली भी उसमें नहीं घुसती थी. अन्ततः शासन को उन्हें छोड़ना पड़ा.
पर शांत बैठना उनके स्वभाव में नहीं था. अतः 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में भी फरार अवस्था में व्यापक प्रवास कर वे नवयुवकों को संगठित करते रहे. इस बीच उन्हें कासगंज षड्यन्त्र में फिर जेल भेज दिया गया. 1946 में छूटते ही वे फिर काम में लग गये.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद वे राजनीति में अधिक सक्रिय हो गये. उन पर मार्क्सवाद और लेनिनवाद का काफी प्रभाव था, पर भारत के कम्युनिस्ट दलों की अवसरवादिता और सिद्धान्तहीनता देखकर उन्हें बहुत निराशा हुई. उन्होंने कई खेमों में बंटे साथियों को एक रखने का बहुत प्रयास किया, पर जब उन्हें सफलता नहीं मिली, तो उनका उत्साह ठंडा हो गया. 1955 में वे चुपचाप कम्युनिस्ट पार्टी और राजनीति से अलग हो गये.
योगेश दा सादगी की प्रतिमूर्ति थे. वे सदा खद्दर ही पहनते थे. 1967 के लोकसभा चुनाव के बाद उनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ गया. 22 अप्रैल, 1969 को 74 वर्ष की अवस्था में दिल्ली में उनका देहान्त हुआ. उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘इन सर्च ऑफ फ्रीडम’ नामक पुस्तक में लिखी है.