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22 सितम्बर / जन्मदिवस – मधुर वाणी के धनी देबव्रत सिंह जी

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नई दिल्ली. ‘देबू दा’ के नाम से प्रसिद्ध देबव्रत सिंह जी का जन्म 22 सितम्बर, 1929 को बंगाल के दीनाजपुर में हुआ था. आजकल यह क्षेत्र बांग्लादेश में है. मुर्शिदाबाद जिले के बहरामपुर में उनका पैतृक निवास था. भवानी चरण सिंह जी उनके पिता तथा वीणापाणि देवी जी उनकी माता थीं. चार भाई और तीन बहनों वाले परिवार में देबू दा सबसे बड़े थे. उनकी शिक्षा अपने पैतृक गांव बहरामपुर में ही हुई. पढ़ने में वे बहुत अच्छे थे. मैट्रिक की परीक्षा में अच्छे अंक लाने के कारण उन्हें छात्रवृत्ति भी मिली थी. बंगाल में श्री शारदा मठ का व्यापक प्रभाव है. यह परिवार भी परम्परागत रूप से उससे जुड़ा था. अतः घर में सदा अध्यात्म का वातावरण बना रहता था. उनकी तीनों बहनें मठ की शरणागत होकर संन्यासी बनीं. देबू दा भी वहां से दीक्षित थे. यद्यपि वे और उनके छोटे भाई सत्यव्रत सिंह प्रचारक बने.

देबू दा छात्र जीवन में ही स्वयंसेवक बन गये थे. बाल और शिशुओं को खेल खिलाने में उन्हें बहुत आनंद आता था. उनका यह स्वभाव जीवन भर बना रहा. अतः लोग उन्हें ‘छेले धोरा’ (बच्चों को घेरने वाला) कहते थे. संघ पर प्रतिबंध के विरोध में सन् 1949 में सत्याग्रह कर वे जेल गये. इसके बाद उन्होंने कुछ समय सरकारी नौकरी की. शिक्षानुरागी होने के कारण इसी दौरान उन्होंने होम्योपैथी की पढ़ाई करते हुए डीएमएस की उपाधि भी प्राप्त कर ली. उन दिनों शाखा में एक गीत गाया जाता था, जो देबू दा को बहुत प्रिय था. इसमें देशसेवा के पथिकों को सावधान किया जाता था कि इस मार्ग पर स्वप्न में भी सुख नहीं है. यहां तो केवल दुख ही दुख है. अपने पास यदि कुछ धन-दौलत है, तो उसे भी देश के लिए ही अर्पण करना है. इस गीत से प्रभावित होकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी और प्रचारक बन गये.

सर्वप्रथम उन्हें आसनसोल जिले में भेजा गया. क्रमशः उनका कार्यक्षेत्र बढ़ता गया और वे उत्तर बंगाल के संभाग प्रचारक बने. देबू दा से भेंट और उनकी प्यार भरी मधुर वाणी से प्रचारक और विस्तारकों की आधी समस्याएं स्वतः हल हो जाती थीं. आपातकाल में वे पुलिस की निगाह में आ गये और जेल भेज दिये गये. वे बहुत कम खाते और कम ही बोलते थे. बंगाल में ‘विद्या भारती’ का काम प्रारम्भ करने तथा कई नये विद्यालय खोलने का श्रेय उन्हें ही है. सन् 1992 में भारत सरकार ने ‘तीन बीघा क्षेत्र’ बंगलादेश को देने का निर्णय किया. बंगाल की जनता इसके घोर विरुद्ध थी. अतः भारतीय जनता पार्टी, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसी कई देशभक्त संस्थाओं ने ‘सीमांत शांति सुरक्षा समिति’ बनाकर देबू दा के नेतृत्व में इसके विरुद्ध जनांदोलन किया. 25 जून, 1992 को आडवानी जी भी इस आंदोलन में शामिल हुए. इस आंदोलन में देबू दा की समन्वयकारी प्रतिभा तथा नेतृत्व की क्षमता प्रगट हुई. वे इसमें गिरफ्तार भी हुए थे. सन् 1993 में उन्हें बंगाल में भारतीय जनता पार्टी का संगठन मंत्री बनाया गया. इस दायित्व पर वे 2003 तक रहे.

गुणग्राही देबू दा कला, साहित्य और संस्कृति के प्रेमी थे. वे ‘अवसर’ नामक पत्रिका के संचालक सदस्य थे. व्यस्तता के बीच भी वे प्रतिदिन ध्यान एवं पूजा अवश्य करते थे. वृद्धावस्था में वे सिलीगुड़ी के संघ कार्यालय (माधव भवन) में रहते थे. 13 अप्रैल को मस्तिष्काघात के बाद उन्हें चिकित्सालय ले जाया गया, जहां 26 अप्रैल, 2013 को उनका देहांत हुआ. देबू दा ने काफी समय तक बंगाल के प्रांत प्रचारक वसंतराव भट्ट जी के निर्देशन में काम किया था. यह भी एक संयोग है कि उसी दिन प्रातः कोलकाता के संघ कार्यालय पर वसंतराव जी ने भी अंतिम सांस ली थी.

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