उर्दू मिश्रित हिन्दी में रामायण और उसके नाट्य रूपान्तर को घर-घर लोकप्रिय करने वाले पंडित राधेश्याम कथावाचक का जन्म बरेली (उ.प्र.) के बिहारीपुर मोहल्ले में 25 नवम्बर, 1890 को हुआ था.
उनके पिता पं.बांकेलाल तथा माता श्रीमती रामप्यारी देवी थीं. पं. बांकेलाल गाने के शौकीन तथा कई रागिनियों के जानकार थे. आसपास होने वाली रामलीलाओं में वे जब अपनी खनकदार आवाज में चौपाई गाते, तो धूम मच जाती थी. चंग बजाकर ‘लावनी’ गाने का भी उन्हें शौक था. कई बार बालक राधेश्याम भी उनका साथ देता था. हारमोनियम की प्रारम्भिक शिक्षा तो उन्हें पिता से ही मिली; पर आगे चलकर उन्होंने पंडित बहादुरलाल से विधिवत हारमोनियम सीखा. इस प्रकार उन्हें यह विरासत अपने पिता से प्राप्त हुई.
पिताजी की इच्छानुसार राधेश्याम जी इसी दिशा में आगे बढ़े. वे बहुत अच्छे ढंग से ‘रुक्मिणी मंगल’ की कथा का पाठ करते थे. उन्होंने अपने पिता के साथ प्रयाग में मोतीलाल नेहरू की पत्नी स्वरूप रानी के बहुत बीमार होने पर उनके घर पर एक महीने तक लगातार रामचरित मानस का पाठ किया था.
इसके बाद वे स्वतंत्र रूप से कथा बांचने लगे और उन्होंने अपने नाम के आगे कथावाचक भी लिखना प्रारम्भ कर दिया. खद्दर की साफ धुली कुछ चौड़ी किनारी वाली धोती, प्रायः भगवा कुर्ता, माथे पर चंदन का तिलक और छोटे बाल, यही अब उनकी वेशभूषा बन गयी.
वे मुख्यतः रामायण और महाभारत को ही आधार बनाकर कथा कहते थे. अहिन्दीभाषी प्रान्तों में वे अधिक जाते थे. इस प्रकार उन्होंने इन क्षेत्रों में हिन्दी का भी प्रचार-प्रसार किया. वे पारसी थियेटर की तर्ज पर धार्मिक नाटक भी लिखते और मंचित कराते थे. उन्होंने नाटक में सुधार और परिष्कार कर नारद की भूमिका को विशेष रूप से सब नाटकों में जोड़ा.
उन्होंने मुसलमान पात्रों को भी हिन्दू देवताओं के अभिनय हेतु प्रेरित किया. 1911-12 में पं0 मदनमोहन मालवीय जी को बरेली में उन्होंने अपने नाटक के अंश सुनाकर उनका आशीर्वाद पाया. वे मालवीय जी को अपना गुरु मानते थे. आगे चलकर जीवन के 50वें वर्ष में उन्होंने पत्नी सहित उनसे विधिवत दीक्षा भी ली.
उनके नाटकों की भाषा के बारे में प्रारम्भ में लोगों को संदेह था, क्योंकि उसके संवाद शुद्ध हिन्दी में होते थे; पर उन्हें भरपूर सफलता मिली. यद्यपि आगे चलकर राधेश्याम जी ने अपनी लेखन शैली में परिवर्तन कर उर्दू मिश्रित हिन्दी का प्रयोग किया, इससे उन्हें और अधिक सफलता मिली.
वे हिन्दी के प्रखर समर्थक होते हुए भी उर्दू के प्रचलित शब्दों के प्रयोग करने के विरोधी नहीं थे. वे एक स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में हिन्दी को स्थापित करना चाहते थे. इस बारे में वे देवकीनंदन खत्री के समर्थक थे, जिनके अनुसार समय आने पर हिन्दी स्वयं ही यात्री गाड़ी से एक्सप्रेस गाड़ी बन जायेगी.
पंडित राधेश्याम कथावाचक को असली प्रसिद्धि ‘राधेश्याम रामायण’ से मिली. जब वह प्रकाशित हुई, तो उसकी धूम मच गयी. हिन्दीभाषी क्षेत्र में दशहरे से पूर्व होने वाल रामलीलायें उसी आधार पर होने लगीं. इसके बाद भी वे कथा वाचन से जुड़े रहे, क्योंकि उन्होंने प्रारम्भ इसी से किया था. वे कथावाचकों के जीवन में भी सादगी और पवित्रता के पक्षधर थे. उन्होंने स्वयं ऐसा ही जीवन जिया, इसीलिये उनके उपदेशों का श्रोताओं पर अच्छा असर पड़ता था.
इसी प्रकार देश, धर्म और हिन्दी की सेवा करते हुए 26 अगस्त, 1963 को बरेली में ही उनका देहांत हुआ.