गोरक्षा आन्दोलन के सेनापति लाला हरदेवसहाय जी का जन्म 26 नवम्बर, 1892 को ग्राम सातरोड़ (जिला हिसार, हरियाणा) में एक बड़े साहूकार लाला मुसद्दीलाल के घर हुआ था. संस्कृत प्रेमी होने के कारण उन्होंने बचपन में ही वेद, उपनिषद, पुराण आदि ग्रन्थ पढ़ डाले थे. उन्होंने स्वदेशी व्रत धारण किया था. अतः आजीवन हाथ से बुने सूती वस्त्र ही पहने.
लाला जी पर श्री मदनमोहन मालवीय, लोकमान्य तिलक तथा स्वामी श्रद्धानंद का विशेष प्रभाव पड़ा. वे अपनी मातृभाषा में शिक्षा के पक्षधर थे. अतः उन्होंने ‘विद्या प्रचारिणी सभा’ की स्थापना कर 64 गांवों में विद्याय खुलवाये तथा हिन्दी व संस्कृत का प्रचार-प्रसार किया.1921 में तथा फिर 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में वे सत्याग्रह कर जेल गये.
लाला जी के मन में निर्धनों के प्रति बहुत करुणा थी. उनके पूर्वजों ने स्थानीय किसानों को लाखों रुपया कर्ज दिया था. हजारों एकड़ भूमि उनके पास बंधक थी. लाला जी वह सारा कर्ज माफ कर उन बहियों को ही नष्ट कर दिया, जिससे भविष्य में उनका कोई वंशज भी इसकी दावेदारी न कर सके. भाखड़ा नहर निर्माण के लिये हुए आंदोलन में भी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही.
1939 में हिसार के भीषण अकाल के समय मनुष्यों को ही खाने के लाले पड़े थे, तो ऐसे में गोवंश की सुध कौन लेता ? लोग अपने पशुओं को खुला छोड़कर अपनी प्राणरक्षा के लिये पलायन कर गये. ऐसे में लाला जी ने दूरस्थ क्षेत्रों में जाकर चारा एकत्र किया और लाखों गोवंश की प्राणरक्षा की. उन्हें अकाल से पीड़ित ग्रामवासियों की भी चिन्ता थी. उन्होंने महिलाओं के लिये सूत कताई केन्द्र स्थापित कर उनकी आय का स्थायी प्रबंध किया.
सभी गोभक्तों का विश्वास था कि देश स्वाधीन होते ही संपूर्ण गोवंश की हत्या पर प्रतिबंध लग जायेगा; पर गांधी जी और नेहरू इसके विरुद्ध थे. नेहरु ने तो नये बूचड़खाने खुलवाकर गोमांस का निर्यात प्रारम्भ कर दिया. लाला जी ने नेहरू को बहुत समझाया; पर वे अपने हठ पर अड़े रहे. लाला जी का विश्वास था कि वनस्पति घी के प्रचलन से शुद्ध घी, दूध और अंततः गोवंश की हानि होगी. अतः उन्होंने इसका भी प्रबल विरोध किया.
लाला जी ने ‘भारत सेवक समाज’ तथा सरकारी संस्थानों के माध्यम से भी गोसेवा का प्रयास किया.1954 में उनका सम्पर्क सन्त प्रभुदत्त ब्रह्मचारी तथा करपात्री जी महाराज से हुआ. ब्रह्मचारी जी के साथ मिलकर उन्होंने कत्ल के लिये कोलकाता भेजी जा रही गायों को बचाया. इन दोनों के साथ मिलकर लालाजी ने गोरक्षा के लिये नये सिरे से प्रयास प्रारम्भ किये. अब उन्होंने जनजागरण तथा आन्दोलन का मार्ग अपनाया. इस हेतु फरवरी 1955 में प्रयाग कुम्भ में ‘गोहत्या निरोध समिति’ बनाई गयी.
लाला जी ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक देश में पूरी तरह गोहत्या बन्द नहीं हो जायेगी, तब तक मैं चारपाई पर नहीं सोऊंगा तथा पगड़ी नहीं पहनूंगा. उन्होंने आजीवन इस प्रतिज्ञा को निभाया. उन्होंने गाय की उपयोगिता बताने वाली दर्जनों पुस्तकें लिखीं. उनकी ‘गाय ही क्यों’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक की भूमिका तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने लिखी थी. लाला जी के अथक प्रयासों से अनेक राज्यों में गोहत्या-बन्दी कानून बने.
30 सितम्बर, 1962 को गोसेवा हेतु संघर्ष करने वाले इस महान गोभक्त सेनानी का निधन हो गया. उनका प्रिय वाक्य ‘गाय मरी तो बचता कौन, गाय बची तो मरता कौन’ आज भी पूरी तरह प्रासंगिक है.
(संदर्भ: लाला हरदेव सहाय, जीवनी/लेखक एम.एम.जुनेजा)