नई दिल्ली. भारत की स्वाधीनता में सुभाष चंद्र बोस की ‘आजाद हिन्द फौज’ की बड़ी निर्णायक भूमिका रही है. पर, इसकी स्थापना से पहले भारत के ही एक अंग रहे अफगानिस्तान में भी ‘आजाद हिन्द सरकार’ की स्थापना हुई थी. जहां अनेक क्रांतिकारी देश के अंदर संघर्ष कर रहे थे, वहां विदेश में रहकर उन्हें शस्त्र, धन एवं उन देशों का समर्थन दिलाने में भी अनेक लोग लगे थे. कुछ देशों से ब्रिटेन की सन्धि थी कि वे अपनी भूमि का उपयोग इसके लिए नहीं होने देंगे, पर जहां ऐसी सन्धि नहीं थी, वहां क्रांतिकारी सक्रिय थे.
उन दिनों राजा महेन्द्र प्रताप जर्मनी में रहकर जर्मन सरकार का समर्थन पाने का प्रयास कर रहे थे. वे एक दल अफगानिस्तान भी ले जाना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने मोहम्मद बरकतुल्ला को भी बर्लिन बुला लिया. मो. बरकतुल्ला इससे पूर्व जापान में सक्रिय थे, पर जापान से अंग्रेजों की सन्धि होने के कारण वे अपने एक साथी भगवान सिंह के साथ सेनफ्रांसिस्को आ गये थे. बर्लिन उन दिनों भारतीय क्रांतिवीरों का एक प्रमुख केन्द्र बना हुआ था. राजा महेन्द्र प्रताप के नेतृत्व में ‘बर्लिन दल’ का गठन किया गया. इसमें मो. बरकतुल्ला के साथ वीरेन्द्र चट्टोपाध्याय के नेतृत्व में काम कर रही ‘राष्ट्रीय पार्टी’ के कुछ सदस्य भी थे. इस दल ने जर्मनी के सम्राट कैसर विल्हेल्म द्वितीय से भेंटकर उन्हें भारतीय क्रांतिकारियों की सहायता के लिए तैयार कर लिया. इस दल ने जर्मनी के शासन के साथ कुछ अनुबन्ध भी किये.
अब राजा महेन्द्र प्रताप के नेतृत्व में एक दल कुस्तुन्तुनिया गया. इसमें जर्मनी एवं आस्ट्रेलिया के कुछ सदस्य भी थे. उन्होंने तुर्की के प्रधानमंत्री सुल्तान हिलमी पाशा तथा युद्धमंत्री गाजी अनवर पाशा से भेंट की. तुर्की में सक्रिय भारतीय क्रांतिकारी मौलाना ओबेदुल्ला सिन्धी भी इस दल में शामिल हो गये और ये सब अक्तूबर, 1915 में काबुल जा पहुंचे. अफगानिस्तान में उन दिनों अमीर हबीबुल्ला खां का शासन था. दल के सदस्यों ने उससे भेंट की. यह भेंट बहुत सार्थक सिद्ध हुई और भारत से दूर अफगानिस्तान की धरती पर 29 अक्तूबर, 1915 को एक अस्थायी ‘आजाद हिन्द सरकार’ की स्थापना हो गयी. इसके राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप, प्रधानमंत्री मौलाना मोहम्मद बरकतुल्ला, गृहमंत्री मौलाना ओबेदुल्ला सिन्धी तथा विदेश मंत्री डॉ. चम्पक रमण पिल्लई बनाये गये.
इस सरकार ने एक फौज का भी गठन किया, जिसे ‘आजाद हिन्द फौज’ नाम दिया गया. इसमें सीमांत पठानों को सम्मिलित किया गया. धीरे-धीरे इसके सैनिकों की संख्या 6,000 तक पहुंच गयी. इस फौज ने सीमावर्ती क्षेत्रों में अंग्रेज सेना पर हमले किये, पर वे सफल नहीं हो सके. अनेक सैनिक मारे गये तथा जो गिरफ्तार हुए, उन्हें अंग्रेजों ने फांसी दे दी. इस प्रकार आजाद हिन्द सरकार तथा फौज का यह प्राथमिक प्रयोग किसी ठोस परिणाम तक नहीं पहुंच सका, पर इससे हताश न होते हुए राजा महेन्द्र प्रताप ने सोने की ठोस चादर पर पत्र लिखकर खुशी मोहम्मद तथा डॉ. मथुरा सिंह को रूस के जार के पास भेजा. जार ने उन्हें गिरफ्तार कर डॉ. मथुरासिंह को अंग्रेजों को सौंप दिया. अंग्रेजों ने उन्हें लाहौर में फांसी दे दी. ऐसे अनेक बलिदानों के बाद भी विदेशी धरती से देश की स्वतंत्रता के कष्ट साध्य प्रयास लगातार चलते रहे.