नई दिल्ली. उ.प्र. में गाजियाबाद के पास पिलखुआ नगर वस्त्र-निर्माण के लिए प्रसिद्ध है. यहीं के एक प्रतिष्ठित व्यापारी व निष्ठावान स्वयंसेवक श्री रामगोपाल तथा कौशल्या देवी के घर में 1943 में जन्मे रामानुज दयाल ने अपना जीवन संघ को अर्पित किया; पर काल ने अल्पायु में ही उन्हें उठा लिया.
सन् 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगा, तो पिलखुआ के पहले सत्याग्रही दल का नेतृत्व रामगोपाल जी ने किया. रामानुज पर इसका इतना प्रभाव पड़ा कि उनके लौट आने तक वह हर शाम मुहल्ले के बच्चों को लेकर खेलता और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगवाता.
पिलखुआ में हुए गोरक्षा सम्मेलन में संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी व लाला हरदेव सहाय के सामने उसने मैथिलीशरण गुप्त की कविता ‘दांतों तले तृण दाबकर…’ पढ़कर प्रशंसा पायी. सन् 1953 में भारतीय जनसंघ ने जम्मू-कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के लिये आंदोलन किया, तो कौशल्या देवी महिला दल के साथ सत्याग्रह कर जेल गयीं. रामानुज जनसंघ का झंडा लेकर नगर में निकले जुलूस के आगे-आगे चला.
शाखा में सक्रिय होने के कारण वे अपने साथ स्वयंसेवकों की पढ़ाई की भी चिन्ता करते थे. ग्रीष्मावकाश में प्रायः हर साल वे विस्तारक बनकर जाते थे. सरधना, बड़ौत, दोघट आदि में उन्होंने शाखा कार्य किया. संस्कृत में रुचि के कारण बी.ए. में उन्होंने पिलखुआ से 10 कि.मी. दूर धौलाना के डिग्री कॉलेज में प्रवेश लिया. वहां छात्रों से खूब संपर्क होता था. इससे ग्रामीण क्षेत्र में शाखाओं का विस्तार हुआ. मेरठ के तत्कालीन विभाग प्रचारक कौशल किशोर जी तथा उ.प्र. के तत्कालीन प्रांत प्रचारक रज्जू भैया का उन पर विशेष प्रभाव था.
शाखा के साथ ही अन्य सामाजिक कार्यों में भी वे आगे रहते थे. एक बार एक कसाई गोमांस ले जा रहा था. पता लगते ही उन्होंने गोमांस छुड़ाकर कसाई को मजा चखाया कि उसने फिर कभी गोहत्या न करने की शपथ ली. एक बार उन्हें पता लगा कि ग्रामीण क्षेत्र में एक पादरी धर्मान्तरण का प्रयास कर रहा है. वे अपने मित्रों तथा छोटी बहिन सरस्वती के साथ वहां गये और इस षड्यंत्र को विफल कर दिया.
पिलखुआ में हो रहे भारत-सोवियत सांस्कृतिक मैत्री संघ के समारोह में तिरंगा झंडा उल्टा टंगा देख वे आयोजक से ही भिड़ गये. हिन्दी को सम्मान दिलाने के लिये हुए हस्ताक्षर अभियान में भी वे सक्रिय रहे. दुर्गाष्टमी की शोभायात्रा में अश्लील नाच का उन्होंने विरोध किया. सत्साहित्य में रुचि के कारण लखनऊ से प्रकाशित हो रहे राष्ट्रधर्म मासिक तथा पाञ्चजन्य साप्ताहिक के लिये उन्होंने कई ग्राहक बनाये. कुछ धन भी संग्रह कर वहां भेजा.
सन् 1965 में तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण कर प्रचारक बनने पर उन्हें मुजफ्फरनगर की कैराना तहसील में भेजा गया. उनके परिश्रम से सब ओर शाखाएं लगने लगीं. उन्होंने कैराना में विवेकानंद पुस्तकालय की स्थापना कर उसके उद्घाटन पर वीर रस कवि सम्मेलन करवाया. पिलखुआ में जब उनके बड़े भाई परमानंद जी ने स्कूटर खरीदा, तो उन्होंने पिताजी से कहकर अपने लिये भी एक छोटा वाहन (विक्की) खरीद लिया. वे खूब प्रवास कर कैराना तहसील के हर गांव में शाखा खोलना चाहते थे; पर विधि का विधान किसे पता था?
30 अगस्त 1966 को रक्षाबंधन पर्व था. रामानुज जी अपनी विक्की पर बनत से शामली आ रहे थे कि सामने से आते हुए तांगे से टकरा गये. उनके सीने पर गहरी चोट आयी. लोगों ने एक बस में लिटाकर उन्हें शामली पहुंचाया; पर तब तक उनके प्राण पखेरू उड़ चुके थे. इस प्रकार एक तरुण तपस्वी असमय काल कवलित हो गया. पिलखुआ में उनके परिजनों ने उनकी स्मृति में रामानुज दयाल सरस्वती शिशु मंदिर का निर्माण किया है.