भारत में सैकड़ों भाषाएं तथा उनके अन्तर्गत हजारों बोलियां व उपबोलियां प्रचलित हैं. हिन्दी की ऐसी ही एक बोली भोजपुरी है, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के बड़े भाग में बोली जाती है. अपने व्यापक प्रभाव के कारण अनेक साहित्यकार तथा राजनेता इसे अलग भाषा मानने का आग्रह करते हैं.
भोजपुरी के श्रेष्ठ साहित्यकार श्री चंद्रशेखर मिश्र का जन्म 30 जुलाई, 1930 को ग्राम मिश्रधाम (जिला मिर्जापुर, उ.प्र.) में हुआ था. गांव में अपने माता-पिता तथा अन्य लोगों से भोजपुरी लोकगीत व लोककथाएं सुनकर उनके मन में भी साहित्य के बीज अंकुरित हो गये. कुछ समय बाद उन्होंने कविता लेखन को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया.
भोजपुरी काव्य मुख्यतः श्रृंगार प्रधान है. इस चक्कर में कभी-कभी तो यह अश्लीलता की सीमाओं को भी पार कर जाता है. होली के अवसर पर बजने वाले गीत इसके प्रमाण हैं. इसके कारण भोजपुरी लोककाव्य को कई बार हीन दृष्टि से देखा जाता है. चंद्रशेखर मिश्र इससे व्यथित थे. उन्होंने दूसरों से कहने की बजाय स्वयं ही इस धारा को बदलने का निश्चय किया.
चंद्रशेखर मिश्र ने स्वाधीनता के समर में भाग लेकर कारावास का गौरव पाया था. अतः सर्वप्रथम उन्होंने वीर रस की कविताएं लिखीं. गांव की चौपाल से आगे बढ़ते हुए जब ये वाराणसी और फिर राष्ट्रीय कवि सम्मेलनों में पहुंचीं, तो इनका व्यापक स्वागत हुआ. राष्ट्रीयता के उभार के साथ ही भाई और बहिन के प्रेम को भी उन्होंने अपने काव्य में प्रमुखता से स्थान दिया.
उनके लेखन का उद्देश्य था कि हर व्यक्ति अपनी तथा अपने राष्ट्र की शक्ति को पहचाकर उसे जगाने के लिए परिश्रम करे. राष्ट्र और व्यक्ति का उत्थान एक-दूसरे पर आश्रित है. उन्होंने 1857 के प्रसिद्ध क्रांतिवीर कुंवर सिंह पर एक खंड काव्य लिखा. इससे उनकी लोकप्रियता में चार चांद लग गये. कवि सम्मेलनों में लोग आग्रहपूर्वक इसके अंश सुनते थे. इसे सुनकर लोगों का देशप्रेम हिलोरें लेने लगता था. युवक तो इसके दीवाने ही हो गये.
कुंवर सिंह की सफलता के बाद उन्होंने द्रौपदी, भीष्म, सीता, लोरिक चंद्र, गाते रूपक, देश के सच्चे सपूत, पहला सिपाही, आल्हा ऊदल, जाग्रत भारत, धीर, पुंडरीक, रोशनआरा जैसे काव्यों का सृजन किया. साहित्य की इस सेवा के लिए उन्हें राज्य सरकार तथा साहित्यिक संस्थाओं ने अनेक सम्मान एवं पुरस्कार दिये. मारीशस में भी भोजपुरी बोलने वालों की संख्या बहुत है. वहां के साहित्यकारों ने भी उन्हें ‘विश्व सेतु सम्मान’ से अलंकृत किया.
उनके काव्य की विशेषता यह थी कि उसे आम लोगों के साथ ही प्रबुद्ध लोगों से भी भरपूर प्रशंसा मिली. इस कारण उनकी अनेक रचनाएं विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ाई जाती हैं. कवि सम्मेलन के मंचों से एक समय भोजपुरी लगभग समाप्त हो चली थी. ऐसे में चंद्रशेखर मिश्र ने उसकी रचनात्मक शक्ति को जीवित कर उसे फिर से जनमानस तक पहुंचाया.
17 अप्रैल, 2008 को 78 वर्ष की आयु में भोजपुरी साहित्याकाश के इस तेजस्वी नक्षत्र का अवसान हुआ. उनकी इच्छा थी कि उनके दाहसंस्कार के समय भी लोग भोजपुरी कविताएं बोलें. लोगों ने इसका सम्मान करते हुए वाराणसी के शमशान घाट पर उन्हें सदा के लिए विदा किया.
(संदर्भ : भारतीय वांगमय, वर्ष 9 अंक 5)