अपना काम करते हुए समाज सेवा बहुत लोग करते हैं, पर 31 जनवरी, 1923 को झरिया (जिला धनबाद, झारखंड) में जन्मे मदनलाल अग्रवाल सामाजिक कार्य को व्यापार एवं परिवार से भी अधिक महत्व देते थे. उन्होंने अनेक संस्थाएं बनाकर अपने रिश्तेदारों व परिचितों को भी इस हेतु प्रेरित किया.
यह परिवार जिला झुंझुनु (राजस्थान) के लोयल ग्राम का मूल निवासी था. इनके दादा हरदेव दास 1876 में झरिया आए थे. प्रथम विश्व युद्ध के बाद 1913-14 में कोयला खानों के ठेकों से इन्हें बहुत लाभ हुआ. समाज सेवा और स्वाधीनता आंदोलन में सक्रियता के कारण इन्हें खूब प्रसिद्धि मिली. दादा जी द्वारा स्थापित डीएवी विद्यालय में ही मदनबाबू की शिक्षा हुई.
उन दिनों शासन षड्यन्त्रपूर्वक मुस्लिम अलगाववादियों को शह दे रहा था. मदनबाबू के ताऊ अर्जुन अग्रवाल ने हिन्दू युवकों को लाठी, भाला आदि सिखाने के लिये एक शिक्षक रखा. मदनबाबू भी वहां जाते थे. 1940 में मैट्रिक उत्तीर्ण कर डेढ़ माह के प्रशिक्षण हेतु डॉ. मुंजे द्वारा स्थापित भोंसले मिलट्री स्कूल, नासिक में गए और वहां से आकर 1941 में नवयुवक संघ की स्थापना की. 1944 में संघ के एक कार्यकर्ता झरिया आए और इस प्रकार नवयुवक संघ का कार्य शाखा में बदल गया. 1945 में वे जिला कार्यवाह बने.
मदनबाबू मारवाड़ी समाज की गतिविधियों में भी सक्रिय थे. इनका मानना था कि सम्पन्न वर्ग को उस क्षेत्र की सेवा अवश्य करनी चाहिये, जहां से उन्होंने धन कमाया है. शिक्षा को वे सेवा का सर्वोत्तम साधन मानते थे. अतः मारवाड़ी व्यापारियों को प्रेरित कर इन्होंने अनेक शिक्षण संस्थाएं प्रारम्भ कीं. वे सामाजिक रूढ़ियों के घोर विरोधी थे. 1947 में उन्होंने एक मारवाड़ी सम्मेलन में पर्दा व दहेज प्रथा का विरोध किया. उनकी मां और पत्नी के नेतृत्व में अनेक महिलाओं ने पर्दा त्याग दिया. मदनबाबू ने समाज में आदर्श स्थापित करते हुए अपने भाइयों और पुत्रों के विवाह बिना दहेज लिये सादगी से किये.
1948-49 में उनके पिताजी बहुत बीमार हुए. मदनबाबू सामाजिक कामों में अधिक समय लगाते थे. इससे व्यापार प्रभावित हो रहा था. यह देखकर मृत्यु शैया पर पड़े पिताजी ने इनसे कहा कि केवल पांच साल तक पूरा समय व्यापार को दो. यदि व्यापार ठीक चला, तो सामाजिक कार्य भी कर सकोगे, अन्यथा हाथ से सब कुछ चला जाएगा.
मदनबाबू ने तुरंत 26 सामाजिक संस्थाओं की जिम्मेदारियों से त्यागपत्र दे दिया. धीरे-धीरे व्यापार पटरी पर आ गया और 1970 में सब कारोबार भाइयों को सौंपकर वे फिर से संघ और अन्य सामाजिक कार्यों में लग गए. संघ कार्य में मदनबाबू दक्षिण बिहार प्रांत संघचालक और फिर केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य रहे. 1948 और 1975 के प्रतिबंध काल में वे जेल भी गए.
उनके मन में वनवासियों के प्रति अत्यधिक करुणा थी. उनके बच्चों के लिये उन्होंने कई विद्यालय व छात्रावास बनवाए. उनका सबसे विशिष्ट कार्य ‘वनबंधु परिषद’ और ‘एकल विद्यालय योजना’ है. इसमें एक युवा अध्यापक अपने ही गांव के बच्चों को पढ़ाता है. उसके मानदेय का प्रबन्ध सम्पन्न लोगों के सहयोग से किया जाता है. आज ऐसे विद्यालयों की संख्या देश में 35,000 तक पहुंच गयी है. मदनबाबू की देश भ्रमण में बहुत रुचि थी. वे प्रतिवर्ष रज्जू भैया आदि के साथ 8-10 दिन के लिये घूमने जाते थे. निष्ठावान स्वयंसेवक, सक्रिय समाजसेवी तथा वनबन्धुओं के सच्चे मित्र मदनबाबू अग्रवाल का निधन 28 मार्च, 2000 को कोलकाता में हुआ.