
नई दिल्ली. भारत के इतिहास में राव हमीर को वीरता के साथ ही उनके हठ के लिए भी याद किया जाता है. उनके हठ के बारे में कहावत प्रसिद्ध है –
सिंह सुवन, सत्पुरुष वचन, कदली फलै इक बार, तिरिया तेल हमीर हठ, चढ़ै न दूजी बार..
अर्थात सिंह एक ही बार संतान को जन्म देता है. सज्जन लोग बात को एक ही बार कहते हैं. केला एक ही बार फलता है. स्त्री को एक ही बार तेल एवं उबटन लगाया जाता है अर्थात उसका विवाह एक ही बार होता है. ऐसे ही राव हमीर का हठ है. वह जो ठानते हैं, उस पर दोबारा विचार नहीं करते.
राव हमीर का जन्म सात जुलाई, 1272 को चौहानवंशी राव जैत्रसिंह के तीसरे पुत्र के रूप में अरावली पर्वतमालाओं के मध्य बने रणथम्भौर दुर्ग में हुआ था. बालक हमीर इतना वीर था कि तलवार के एक ही वार से मदमस्त हाथी का सिर काट देता था. उसके मुक्के के प्रहार से बिलबिला कर ऊंट धरती पर लेट जाता था. इस वीरता से प्रभावित होकर राजा जैत्रसिंह ने अपने जीवनकाल में ही 16 दिसम्बर, 1282 को उनका राज्याभिषेक कर दिया. राव हमीर ने अपने शौर्य एवं पराक्रम से चौहान वंश की रणथम्भौर तक सिमटी सीमाओं को कोटा, बूंदी, मालवा तथा ढूंढाढ तक विस्तृत किया. हमीर ने अपने जीवन में 17 युद्ध लड़े, जिसमें से 16 में उन्हें सफलता मिली. 17वां युद्ध उनके विजय अभियान का अंग नहीं था.
उन्होंने अपनी हठ के कारण दिल्ली के तत्कालीन शासक अलाउद्दीन खिलजी के एक भगोड़े सैनिक मुहम्मदशाह को शरण दे दी. हमीर के शुभचिंतकों ने बहुत समझाया, पर उन्होंने किसी की नहीं सुनी. उन्हें रणथम्भौर दुर्ग की अभेद्यता पर भी विश्वास था, जिससे टकराकर जलालुद्दीन खिलजी जैसे कई लुटेरे वापस लौट चुके थे.
कुछ वर्ष बाद जलालुद्दीन की हत्याकर दिल्ली की गद्दी पर उसका भतीजा अलाउद्दीन खिलजी बैठ गया. वह अति समृद्ध गुजरात पर हमला करना चाहता था, पर रणथम्भौर उसके मार्ग की बाधा बना था. अतः उसने पहले इसे ही जीतने की ठानी, पर हमीर की सुदृढ़ एवं अनुशासित वीर सेना ने उसे कड़ी टक्कर दी.
11 मास तक रणथम्भौर से सिर टकराने के बाद सेनापतियों ने उसे लौट चलने की सलाह दी, पर अलाउद्दीन ने कपट नीति अपनाकर किले के रसद वाले मार्ग को रोक लिया तथा कुछ रक्षकों को भी खरीद लिया, लेकिन हर बार की तरह इस बार भी उसे पराजित होना पड़ा.
कहते हैं कि जब हमीर की सेनाओं ने अलाउद्दीन को हरा दिया, तो हिन्दू सैनिक उत्साह में आकर शत्रुओं से छीने गये झंडों को ही ऊंचाकर किले की ओर बढ़ने लगे. इससे दुर्ग की महिलाओं ने समझा कि शत्रु जीत गया है. अतः उन्होंने जौहर कर लिया. राव हमीर जब दुर्ग में पहुंचे, तो यह दृश्य देखकर उन्हें राज्य और जीवन से वितृष्णा हो गयी. उन्होंने अपनी ही तलवार से सिर काटकर अपने आराध्य भगवान शिव को अर्पित कर दिया. इस प्रकार केवल 29 वर्ष की अल्पायु में 11 जुलाई, 1301 को हमीर का शरीरांत हुआ. राव हमीर पराक्रमी होने के साथ ही विद्वान, कलाप्रेमी, वास्तुविद एवं प्रजारक्षक राजा थे. प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य महर्षि शारंगधर की ‘शारंगधर संहिता’ में हमीर द्वारा रचित श्लोक मिलते हैं. रणथम्भौर के खंडहरों में विद्यमान बाजार, व्यवस्थित नगर, महल, छतरियां आदि इस बात के प्रमाण हैं कि उनके राज्य में प्रजा सुख से रहती थी. यदि एक मुसलमान विद्रोही को शरण देने की हठ वे न ठानते, तो शायद भारत का इतिहास कुछ और होता. वीर सावरकर ने हिन्दू राजाओं के इन गुणों को ही ‘सद्गुण विकृति’ कहा है.