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07 जून / बलिदान दिवस – गौतम डोरे एवं साथियों का बलिदान

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imagesनई दिल्ली. आंध्र प्रदेश में स्वाधीनता के लिए अल्लूरी सीताराम राजू ने युवकों का एक दल बनाया था. वे सब गांधी जी के असहयोग आंदोलन में सक्रिय थे, पर जब गांधी जी ने आंदोलन को अचानक स्थगित कर दिया, तो इन युवकों के दिल को बहुत ठेस लगी और वे सशस्त्र क्रान्ति के मार्ग पर चल दिये. वनवासी जहां एक ओर वनों की रक्षा करते हैं, वहां वे वन से अपनी आवश्यकता की लकड़ी और खाद्य सामग्री भी प्राप्त करते हैं, पर अंग्रेजों ने ‘जंगल आरक्षण नीति’ बनाकर इसे प्रतिबंधित कर दिया. इससे भी राजू और उनके साथी बहुत नाराज थे. गोदावरी के तटवर्ती क्षेत्र में रहने वाले दो सगे भाई मल्लू और गौतम डोरे इस नीति से क्रुद्ध होकर राजू के साथ आ गये.

इन सबने मिलकर ‘रम्पा क्रान्ति दल’ की स्थापना की. हथियार जुटाने के लिए उन्होंने चिंतापल्ली और कृष्णादेवी पुलिस स्टेशनों को लूटा. वहां से भारी मात्रा में हथियार हाथ लगे. शासन ने इन्हें नियन्त्रित करने के लिए पूरे रम्पा क्षेत्र को असम राइफल्स के हवाले कर दिया. शासन और क्रांतिकारियों की टक्कर में कभी इनका पलड़ा भारी रहता, तो कभी उनका. राजू की तलाश में पुलिस उसके गांव वालों को पकड़कर प्रताड़ित करने लगी. अतः राजू ने आत्मसमर्पण कर दिया और उसे सात मई, 1924 को फांसी दे दी गयी.

राजू की फांसी से उसके साथियों के मन में आग लग गयी. मल्लू और गौतम डोरे ने राजू के बचे हुए काम को पूरा करने का संकल्प कर लिया. दूसरी ओर पुलिस भी उन दोनों की तलाश में जुट गयी. वह बार-बार उनके गांव में छापा मारती, पर उन दोनों ने गांव आना ही छोड़ दिया था. अब वे अन्य गांवों में छिपकर अपनी गतिविधियां चलाने लगे. एक बार जब वे एक गांव में पहुंचे, तो वहां के लोगों ने बताया कि पुलिस दल कुछ देर पहले ही उनकी तलाश में वहां आया था. पुलिस ने बहुत कठोरता से गांव के मुखिया से पूछताछ की थी, पर उन्होंने कोई भेद नहीं दिया. मुखिया तथा अन्य लोगों ने उन्हें सलाह दी कि वे कुछ समय तक अपनी गतिविधियां बंद रखें. उनकी बात मान कर दोनों एक महीने तक शांत रहे.

पर, पुलिस को संदेह था कि वे लोग इसी क्षेत्र में छिपे हैं. अतः पुलिस ने भी वहीं डेरा डाल दिया. काफी दिन बाद पुलिस वालों ने क्षेत्र छोड़ने से पूर्व एक बार फिर सघन तलाशी अभियान चलाने का निश्चय किया. सात जून, 1924 को पूरा पुलिस दल तीन भागों में बंटकर इस काम में लग गया. पुलिस के एक समूह को बीहड़ों में युवकों का एक दल छिपने का प्रयत्न करता हुआ दिखाई दिया. पुलिस वाले समझ गये कि यही वे लोग हैं, जिनकी उन्हें तलाश है. अतः दोनों ओर से गोली चलने लगी. गोली की आवाज सुनकर बाकी पुलिस वाले भी वहां पहुंच गये और इस प्रकार क्रांतिवीर तीन ओर से घिर गये. इसके बाद भी उनका साहस कम नहीं हुआ. एक बार तो उन्होंने शत्रुओं को पीछे धकेल दिया, पर पुलिस की संख्या तो अधिक थी ही, उनके पास हथियार भी अच्छे थे. अतः गौतम डोरे और कई अन्य क्रांतिकारी युवक लड़ते हुए बलिदान हो गये.

मल्लू डोरे भी इस संघर्ष में बुरी तरह घायल हुआ. वह किसी तरह वहां से निकलने में सफल तो हो गया, पर अत्यधिक घायल होने के कारण बहुत दूर नहीं जा सका और पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया. उस पर मुकदमा चलाया गया और 19 जून, 1924 को उसे फांसी दे दी गयी.

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