28 अगस्त, 1903 को यवतमाल, महाराष्ट्र के एक निर्धन परिवार में जन्मे उमाकान्त केशव आप्टे का प्रारम्भिक जीवन बड़ी कठिनाइयों में बीता. 16 वर्ष की छोटी अवस्था में पिता का देहान्त होने से परिवार की सारी जिम्मेदारी इन पर ही आ गयी.
इन्हें पुस्तक पढ़ने का बहुत शौक था. आठ वर्ष की अवस्था में इनके मामा ‘ईसप की कथायें’ नामक पुस्तक लेकर आये. उमाकान्त देर रात तक उसे पढ़ता रहा. केवल चार घण्टे सोकर उसने फिर पढ़ना शुरू कर दिया. मामा जी अगले दिन वापस जाने वाले थे. अतः उमाकान्त खाना-पीना भूलकर पढ़ने में लगे रहे. खाने के लिये माँ के बुलाने पर भी वह नहीं आया, तो पिताजी छड़ी लेकर आ गये. इस पर उमाकान्त अपनी पीठ उघाड़कर बैठ गया. बोला – आप चाहे जितना मार लें; पर इसे पढ़े बिना मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगा. उसके हठ के सामने सबको झुकना पड़ा.
छात्र जीवन में वे लोकमान्य तिलक से बहुत प्रभावित थे. एक बार तिलक जी रेल से उधर से गुजरने वाले थे. प्रधानाचार्य नहीं चाहते थे कि विद्यार्थी उनके दर्शन करने जायें. अतः उन्होंने फाटक बन्द करा दिया. विद्यालय का समय समाप्त होने पर उमाकान्त ने जाना चाहा; पर अध्यापक ने जाने नहीं दिया. जिद करने पर अध्यापक ने छड़ी से उनकी पिटाई कर दी.
इसी बीच रेल चली गयी. अब अध्यापक ने सबको छोड़ दिया. उमाकान्त ने गुस्से में कहा कि आपने भले ही मुझे नहीं जाने दिया; पर मैंने मन ही मन तिलक जी के दर्शन कर लिये हैं और उनके आदेशानुसार अपना पूरा जीवन देश को अर्पित करने का निश्चय भी कर लिया है. अध्यापक अपना सिर पीटकर रह गये.
मैट्रिक करने के बाद घर की स्थिति को देखकर उन्होंने कुछ समय धामण गाँव में अध्यापन कार्य किया; पर पढ़ाते समय वे हर घटना को राष्ट्रवादी पुट देते रहते थे. एक बार उन्होंने विद्यालय में तिलक जयन्ती मनाई. इससे प्रधानाचार्य बहुत नाराज हुये. इस पर आप्टे जी ने त्यागपत्र दे दिया तथा नागपुर आकर एक प्रेस में काम करने लगे. इसी समय उनका परिचय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार से हुआ. बस फिर क्या था, आप्टे जी क्रमशः संघ के लिये समर्पित होते चले गये.
पुस्तकों के प्रति उनकी लगन के कारण डा. हेडगेवार उन्हें ‘अक्षर शत्रु’ कहते थे. आप्टे जी ने हाथ से लिखकर दासबोध तथा टाइप कर वीर सावरकर की प्रतिबन्धित पुस्तक ‘सन 1857 का स्वाधीनता संग्राम’ अनेक नवयुवकों को पढ़ने को उपलब्ध करायीं. उन्होंने अनेक स्थानों पर नौकरी की; पर नौकरी के अतिरिक्त शेष समय वे संघ कार्य में लगाते थे.
संघ कार्य के लिये अब उन्हें नागपुर से बाहर भी प्रवास करना पड़ता था. अतः उन्होंने नौकरी छोड़ दी और पूरा समय संघ के लिये लगाने लगे. इस प्रकार वे संघ के प्रथम प्रचारक बने. आगे चलकर डा0 जी उन्हें देश के अन्य भागों में भी भेजने लगे. इस प्रकार वे संघ के अघोषित प्रचार प्रमुख हो गये.
उनकी अध्ययनशीलता, परिश्रम, स्वाभाविक प्रौढ़ता तथा बातचीत की निराली शैली के कारण डा. जी ने उन्हें ‘बाबासाहब’ नाम दिया था. दशावतार जैसी प्राचीन कथाओं को आधुनिक सन्दर्भों में सुनाने की उनकी शैली अद्भुत थी. संघ में अनेक दायित्वों को निभाते हुए बाबासाहब आप्टे 27 जुलाई, 1972 (गुरुपूर्णिमा) को दिवंगत हो गये.