भारत बोध व्याख्यान श्रृंखला
नई दिल्ली. एकात्मता और परिवार भाव ही है भारतीय संस्कृति का वैश्विक अवदान. भारतीय शब्द हमारी संस्कृति का परिचायक है. आजादी के समय कुछ लोगों ने देश का नाम आधिकारिक रूप से ‘भारत’ रखने के लिए कई प्रयत्न किये, लेकिन अंग्रेजपरस्त लोगों ने साथ नहीं दिया. हमारे यहाँ जो भी सांस्कृतिक परम्पराओं के पीछे की दृष्टि है, उसका सन्दर्भ सदैव वैश्विक ही रहा है. भारतीय शिक्षण मंडल के अखिल भारतीय संगठन मंत्री मुकुल कानिटकर जी भारत बोध संवाद व्याख्यान श्रृंखला के अंतर्गत इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय और भारतीय शिक्षण मंडल के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित “भारतीय संस्कृति का वैश्विक अवदान” विषय पर दिल्ली विश्वविद्यालय के सी.पी.डी.एच.ई सभागार में आयोजित कार्यक्रम में संबोधित कर रहे थे.
उन्होंने कहा कि आज भी भारत में सुबह-शाम की पूजा के समय जो प्रार्थना की जाती है, उसमें “सर्वे भवन्तु सुखिनः” की कामना की जाती है. पूरे विश्व में मात्र इसी देश की संस्कृति है जो ऐसी कामना करती है. हम यह नहीं कहते कि सर्वे हिन्दू भवन्तु सुखिनः, न ही हम ये कहते हैं कि सर्वे भारतीयाः भवन्तु सुखिनः, हमने ये भी नहीं कहा कि सर्वे मानवाः भवन्तु सुखिनः, अपितु हमारी प्रार्थना समस्त सृष्टि के लिए है. जिसमें चर-अचर, जड़-चेतन, सभी प्रकार के भेदों से परे जाकर जो कुछ भी अस्तित्व में है, हमने सबके सुख की कामना ही नहीं, अपितु उसके लिए कर्म करने की पहल की है.
आज भी हमारे देश का वनवासी वनौषधि लेने के लिए जब जाता है तो वह पेड़ की एक टहनी को तोड़ने से पहले प्रार्थना करके उस पेड़ से अनुमति लेता है. वनवासी कभी पूरा पेड़ जड़ से नहीं उखाड़ता या काटता. हम प्रतिदिन आरती के बाद कहते हैं धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो. इसलिए भारतीय संस्कृति के वैश्विक अवदान के विषय में कहते समय सबसे पहली बात आती है कि भारतीय संस्कृति ने मनुष्य मात्र को वह मानसिक चेतना प्रदान की है, जो मेरा और तेरा के भाव से परे जाकर सोचने की बात करती है. अयं निजः परावेति गणना लघुचेत्साम, उदारचरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम. हमारी संस्कृति संबंधों की संस्कृति रही है जो पूरे विश्व को अपना परिवार मानती है. हमारे यहाँ जो भी आक्रान्ता अलग-अलग मत सम्प्रदायों को लेकर आए, उन्हें हमने अपनाया, उन्हें यहीं बसने दिया. इन्हीं लोगों ने हमारी संस्कृति को नष्ट करने के लिए समय-समय पर कई षड्यंत्र किए, लेकिन यह संस्कृति अनादि है, अनंत है. कोई आक्रमणकारी इसे नहीं तोड़ पाया, न ही तोड़ पाएंगे. ये संस्कृति राज्य पर निर्भर ही नहीं है, राज्य की मोहताज नहीं है, गुलाम नहीं है. अकबर जैसे शक्तिशाली बादशाह को संत तुलसीदास ने ललकार कर कहा- “कोऊनृप होय हमें का हानि”. यह इस देश की संस्कृति की ताकत है जो तत्कालीन राज्य व्यवस्था को भी ललकारती रही है. इस देश का समाज वैश्विक संस्कृति को जीता आया है, और परिवार उसका आधार है.
उन्होंने कहा कि स्वामी विवेकानंद जब शिकागो गए तो डेढ़ माह तक दर-दर की ठोकर खाई. कई जगह ब्लैक इंडियन कहकर उनका अपमान किया गया. लेकिन अपमान सहकर भी जब संबोधन की बारी आयी तो अमेरिकावासी मेरे भाइयों-बहनों कहकर संबोधित किया. अपमान सहकर भी ह्रदय में अथाह प्रेम की अनुभूति करना, इस देश की संस्कृति रही है. देश के संत ने अमेरिका जाकर न सिर्फ भारत का आत्म सम्मान बढ़ाया, बल्कि भारतीयों को आत्मबोध भी कराया कि आज भी भारत विश्व गुरु है. विवेकानंद के संबोधन के पश्चात् सम्पूर्ण विश्व में उनके लाखों अनुयायी बन गए. विश्व का भारत को देखने का नजरिया बदल गया.
उन्होंने कहा कि 93 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाला देश इंडोनेशिया आज भी देशभर में रामलीला का मंचन करता है. उसमें अभिनय करने वाले कलाकार मुस्लिम समाज के होते हैं. इसमें अभिनय करने वाला मुस्लिम ‘जय श्री राम’ बोलता है. जब उनसे पूछा गया कि आप लोग तो मुस्लिम हो, आपको जय श्री राम बोलने में धर्म आड़े नहीं आता, इस पर उनका जवाब होता है कि मने मजहब बदला है, अपने पूर्वज नहीं बदले. आज भी हमारे अन्दर राम का खून दौड़ रहा है. जबकि इसके उलट आज भारत में जय श्री राम बोलने पर सांप्रदायिक कहा जाता है. आतंकवाद की समस्या से ग्रस्त विश्व में यदि आज शांति की स्थापना की बात की जाय तो वह भारतीय संस्कृति के सर्वे भवन्तु सुखिनः के तत्व का अनुसरण करने से ही आ सकती है. भारत में जो वैज्ञानिक है उसे ही अपनाया जाता है. भारतीय संस्कृति अधिक वैज्ञानिक है, इसलिए फिर से भारत विश्व गुरु बनने की ओर अग्रसर है.
कार्यक्रम अध्यक्ष हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री जी ने कहा कि भारत के आत्म गौरव को नष्ट करने के लिए अंग्रेजों ने इस देश की शिक्षा व्यवस्था को बदला. परन्तु आजादी के 70 वर्षों के बाद भी अंग्रेज परस्त शासकों ने शिक्षा व्यवस्था को आत्मगौरव की स्थिति को प्राप्त करने लायक नहीं बनाया. बिना आत्मगौरव के राष्ट्र गौरव नहीं हो सकता. विशिष्ट अतिथि के रूप में पधारे प्रख्यात इतिहासकार एवं इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. रवीन्द्र कुमार जी ने कहा कि परिवार संस्था के अति प्राचीन पुरातात्विक प्रमाण हमें उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर एवं मध्यप्रदेश के भोपाल के पास स्थित भीमबेडका से प्राप्त हुए हैं. जिसकी तिथि लगभग 80,000 वर्ष पूर्व के आसपास ठहरती है. अतः यह परिवार संस्कृति लगभग सबसे पुरानी सभ्यता की संस्कृति है.