अरुण आनंद
राम और रामायण, भारत की सांस्कृतिक परंपरा का न केवल अभिन्न, बल्कि सबसे महत्वपूर्ण अंग हैं. अयोध्या में राम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर के निर्माण का ओदांलन जब वर्ष 1983 में एक बार पुन: आरंभ हुआ तो बहुत से आलोचकों ने राम और रामायण को लेकर कई प्रश्न भी उठाए थे.
पर, वास्तविकता तो यह है कि राम और रामायण पूरे दक्षिण एशिया को एक सांस्कृतिक परंपरा में बांधते हैं. थाईलैंड, कंबोडिया, वियतनाम, इंडोनेशिया, लाओस, म्यांमार व नेपाल में ही नहीं, बल्कि राम और रामायण का प्रभाव और उपस्थिति सिंगापुर, मलेशिया में भी है.
वाल्मीकि रामायण का अंग्रेजी में अनुवाद कर 1895 में उसे प्रकाशित करने वाले विद्वान रैल्फ टी.एच़ ग्रिफिथ के अनुसार, ”यह एक ऐसा महकाव्य है जो भारत की रग-रग में समाया हुआ है. यह भारत में हर व्यक्ति की स्मृति में स्थायी रूप से अंकित है. जहां जहां राम गए, वे सभी स्थान विख्यात हो गए. सदियों से श्रीराम को लोग लगातार याद करते आए हैं. भला ऐसे व्यक्तित्व के बारे में लिखे गए महाकाव्य को कोई कैसे काल्पनिक कह सकता है?”
यही मत इतालवी इंडोलोजिस्ट गैस्पर गोरेसियो (1808-1891) का भी है. गोरेसियो ने वाल्मीकि रामायण का अनुवाद इतालवी में किया था. उनका मानना है – यह रचना ऐसी घटनाओं पर आधारित है, जिसने हिन्दुओं के मानस पटल पर इतनी गहरी छाप छोड़ी कि इसे कभी भुलाया नहीं जा सकता.
एक अन्य विद्वान एफ. ई. पारगिटर ने अपनी पुस्तक ‘द ज्योग्रोफी ऑफ रामास एक्जाइल’ (1894) में भौगोलिक दृष्टि से उन स्थानों से संबंधित जानकारी की समीक्षा की है, जहां वाल्मीकि रामायण के अनुसार भगवान राम वनवास के दौरान गए थे. पारगिटर का निष्कर्ष है कि वाल्मीकि रामायण में दी गई जानकारी पूरी तरह से तथ्यात्मक है क्योंकि बिना इन स्थानों पर गए इतनी सटीक जानकारी देना संभव नहीं है.
स्वयं स्वामी विवेकानंद का कहना था कि रामायण व महाभारत प्राचीन आर्य जीवन व ज्ञान के एनसाइक्लोपीडिया हैं. मैकडोनाल के अनुसार, ”दुनिया भर में रामायण जैसी साहित्यिक रचना नहीं है, जिसने लोगों पर इतना गहरा प्रभाव छोड़ा हो.”
इतिहासकारों का यह भी मानना है कि जहां-जहां श्रीराम गए, वहां-वहां उनकी यात्राओं की स्मृति बनाए रखने के लिए मंदिर बनाए गए. इसलिए रामायण की तथ्यात्मकता पर प्रश्न उठाना तर्कसंगत नहीं है. इतिहासकार नंदिता कृष्णन इन स्थानों के सांस्कृतिक महत्व को रेखांकित करते हुए कहती हैं, ”जिन स्थानों पर भी श्री राम गए, वहां अभी भी उनकी स्मृति वैसी ही बनी हुई है, मानों वह कल ही आए हों. भारत में समय को सापेक्ष माना जाता है. इसलिए कुछ स्थानों पर तो उनकी स्मृति में मंदिर बन गए और बाकी स्थानों पर ये यात्राएं और श्रीराम की स्मृति लोकपरंपरा का अभिन्न अंग बन गईं. अगर साहित्य, पुरातत्व और स्थानीय पंरपराएं एक धागे में गुंथी हुई दिखती हैं तो भला इस पर किसी को आपत्ति क्यों हो?”
स्टीफन नैप जो भारतीय वैदिक परंपरा के गहन अध्ययेता हैं, कहते हैं – ”श्री राम की स्मृति आज भी उतनी मजबूती से कायम है क्योंकि उनका जीवन और शासनकाल दोनों ही असाधारण थे. उनके शासनकाल में शांति थी और प्रचुर समृद्धि भी, इसीलिए रामराज्य को आज सुशासन का संदर्भ बिंदु माना जाता है.”
आधुनिक संदर्भ ग्रंथों में देखें तो सूर्यवंशी श्रीराम का इतिहास फैजाबाद गजेटियर के तैंतालीसवें खंड के पांचवे अध्याय के आरंभ में दिया गया है. पर वाल्मीकि रामायाण के अनुसार श्री राम का जन्म आज से लगभग 9350 वर्ष पूर्व अयोध्या में उसी स्थान पर हुआ था, जिसे रामजन्म भूमि कहा जाता है. 06 दिसंबर, 1992 को बाबरी ढांचा ध्वस्त होने के बाद मंदिर संबंधित 265 अवशेषों के साथ एक महत्वपूर्ण शिलालेख भी निकला था. इसी शिलालेख से भी यही सिद्ध हुआ कि जिसे आज हिन्दू रामजन्मभूमि मानकर जहां मंदिर निर्माण का आग्रह कर रहे हैं, श्रीराम का जन्म वहीं हुआ था.
श्रीराम ने ‘मर्यादा पुरूषोत्तम’ के रूप में अपना जीवन जिया. उनके जीवन की सत्य घटनाओं पर आधारित कथा ऋषि वाल्मीकि ने ‘रामायण’ के माध्यम से संस्कृत में कही. बाद में तुलसीदास ने इसी कथा पर आधारित रामचरितमानस सहित कई अन्य ग्रंथों की रचना की तथा लोकस्मृति व भारतीय मानस में इसे और गहरे से अंकित किया. सामाजिक व व्यक्तिगत जीवन में आदर्श स्थापित करने तथा मूल्यों को स्थापित, संवर्धित व संरक्षित करने की भारतीय जीवन परंपरा के केंद्र में निर्विववाद रूप से श्रीराम व रामायण हैं. कोई ऐसी भारतीय या प्रमुख विदेशी भाषा नहीं है, जिसमें रामायण का अनुवाद न हुआ हो. पिछले 300 वर्षों में श्रीराम व रामायाण पर भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में गहन शोध कार्य हुआ है. जिनका निष्कर्ष यही है कि श्रीराम भारत की सांस्कृतिक परंपरा की सबसे प्रखर अभिव्यक्ति हैं. वे केवल अवतार नहीं, बल्कि ऐसी प्रबुद्ध मूल्य परंपरा के प्रतिनिधि हैं. जिसकी ओर पूरा विश्व सम्मान व गर्व से देखता है. उन्हें किसी एक पूजा पद्धति या समाज विशेष से जोड़ कर देखना तथा रामायण जैसे ग्रंथ को संकुचित दृष्टि से कल्पना की उड़ान मानना भारत की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा के साथ गहरा अन्याय होगा.
(लेखक इंद्रप्रस्थ विश्व संवाद केंद्र के सीईओ हैं)