25 नवंबर 1947 का दिन, जब पाकिस्तान, अब्दुल्ला और नेहरू के कारण जम्मू कश्मीर के मीरपुर में 25000 हिन्दुओं का नरसंहार हुआ था. यह तारीख मीरपुर नरसंहार की है. पाकिस्तानी सेना और कबाइलियों ने मीरपुर शहर में बर्बरतापूर्वक 25000 हिन्दुओं की लाशें बिछा दी थीं. अब्दुल्ला और नेहरू ने जम्मू काश्मीर की सियासत के लिए इंसानियत से ही मुंह फेर लिया था.
26 अक्तूबर, 1947 को जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हो चुका था. मीरपुर इसी जम्मू कश्मीर में पाकिस्तानी सीमा पर बसा एक शहर था. यहां के 25000 से ज्यादा हिन्दुओं, सिक्खों को लगा कि अब जम्मू कश्मीर तो भारत का अभिन्न हिस्सा हो गया है, लिहाजा अब शहर छोड़ने या पलायन करने की जरूरत नहीं है. उन्हें कहां पता था कि इस्लामी आक्रांता इस शहर को उनकी जान की कीमत पर खाली करा देंगे. बंटवारे की आग में झुलसे, पाकिस्तान स्थित अपने घरों से भगाए 10,000 हिन्दू बेफिक्र होकर यहां आकर बस गए थे. उन्हें क्या पता था कि इस्लामी उन्माद के रस में डूबे आक्रांता उन्हें मीरपुर में आकर मार डालेंगे.
उम्मीद ! एक जीवन की उम्मीद, उन्हें पाकिस्तान से मीरपुर सिर्फ इसलिए लेकर आई थी कि वे यहां किसी भय के बिना बचा हुआ जीवन गुजार सकेंगे. लेकिन पाकिस्तानी सेना, कबाइलियों के दुर्दांत नियोजित हमले और अब्दुला / नेहरू की नियोजित नीतियों ने उन्हें सिंधु की पावन सरिता के तट पर प्यासे मरने को विवश किया.
नवस्थापित इस्लामी राष्ट्र के उन्माद में पाकिस्तानी सैनिकों और पठानों के कबीलों ने पहले मीरपुर के अलग बगल के इलाकों में भयंकर हिंसा को अंजाम दिया. हजारों हिन्दुओं को पाकिस्तान और मीरपुर की सीमा पर मारा गया. हिन्दुओं का कत्लेआम करते हुए यह भीड़ मीरपुर शहर की तरफ बढ़ रही थी, राष्ट्रीय समाज की अनन्य श्रद्धा वाले हजारों देवालय भी तोड़ दिए गए. यह कुकृत्य तब भी इस्लामियों के लिए पवित्र जिहाद स्वरूप थे.
संभावित हमले से बचने के लिए नेहरू द्वारा नवनियुक्त अब्दुल्ला के यहां हिन्दुओं का जत्था पहुंचा तो वहां कोई सुनवाई नहीं हुई, तो हिन्दुओं का यह दल दिल्ली में नेहरू से मिला. लेकिन नेहरू ने मीरपुर में सेना भेजने का कोई फैसला नहीं किया.
ऐसी परिस्थितियों में सिर्फ एक बात स्पष्ट थी और वह थी कि मीरपुर के हिन्दुओं को उनकी हालत पर छोड़ दिया गया था, उनकी सहायता करने वाला कोई नहीं था. उधर मीरपुर में भारतीय सेना की एक टुकड़ी इस्लामी कबाइलियों को पीछे धकेलने का प्रयास कर रही थी, लेकिन एक बार फिर नेहरू के एक निर्णय ने मीरपुर के हिन्दुओं के प्राणों पर आघात पहुंचाया. भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने 16 नवंबर को भारतीय सेना को मीरपुर भेजने के बजाय उड़ी भेजने का फैसला सुनाया. जब पाकिस्तानी सेना और इस्लामी कबाइलियों को यह पता चला तो वे पूरी तैयारी के साथ मीरपुर पर हमला करने की योजना बनाने में लग गए.
24 नवंबर 1947 – इस्लामी कबाइलियों के साथ पाकिस्तानी सेना ने मीरपुर पर जबरदस्त हमला बोला, चौबीस घंटे के भीतर ही मीरपुर की सड़कें हजारों हिन्दुओं के खून से लाल हो चुकी थीं. शहर में धुंए की मोटी परत दिखाई दे रही थी, सन्नाटे के बीच ऐसा लग रहा था जैसे सूरज ने भी शर्म से अपनी आंखें मूंद ली हों.
काभइली लूटपाट और हत्या को अंजाम देते हुए गुरुद्वारा दमदमा साहिब तक पहुंचे. यहां पर इस्लामी आक्रांताओं ने सिक्खों का कत्लेआम किया. 24 घंटों के अंदर 25000 से ज्यादा हिन्दुओं की हत्या हो चुकी थी. इस निर्मम हत्या की नींव पर ही मीरपुर में, और अब्दुला की मंशा से कश्मीर में इस्लामी राज्य स्थापित हो चुका था.