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‘द केरल स्टोरी’ – फिल्म के विरोध का एजेंडा विफळ

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अनंत विजय

‘द केरल स्टोरी’ को लेकर देश में चर्चा चल रही है. पक्ष-विपक्ष में लगातार दलीलें दी जा रही हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर देशभर में एक बार फिर से बहस हो रही है. केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रमाण पत्र मिलने के बाद भी इस फिल्म के प्रदर्शन को रोकने के लिए हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक का दरवाजा खटखटाया गया. केरल हाईकोर्ट में फिल्म के रिलीज होने वाले दिन तक सुनवाई हुई. अदालतों ने इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने से इंकार कर दिया. आश्चर्य की बात है कि कलात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर किसी भी तरह की सामग्री दिखाने के पक्षधर और स्वयं को लिबरल कहने वाले लोग भी फिल्म के प्रदर्शन के विरुद्ध थे. इस शोरगुल के बीच केरल हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान न्यायाधीशों की टिप्पणियां अलक्षित रह गईं.

न्यायमूर्ति एन. नागरेश और न्यायमूर्ति एस थॉमस की पीठ ने फिल्म के प्रदर्शन को रुकवाने की याचिका की सुनवाई के दौरान महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं. कोर्ट की कार्यवाही की लाइव रिपोर्टिंग करने वाली वेबसाइट लाइव लॉ के अनुसार पीठ ने स्पष्ट किया – इस फिल्म को केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए प्रमाण पत्र मिल चुका है. ऐसे में इसको रोकना उचित नहीं होगा. न्यायपीठ ने इस बात को भी रेखांकित किया कि याचिकाकर्ताओं में से किसी ने भी फिल्म देखी नहीं है. अब यहां यह प्रश्न उठता है कि अगर किसी ने फिल्म देखी नहीं थी तो इसको रुकवाने की याचिका लेकर अदालत के सामने क्यों उपस्थित हो गए? कुछ लोगों का आरोप है कि ये फिल्म एजेंडा फिल्म है, लेकिन क्या फिल्म को बगैर देखे उसके प्रदर्शन को रुकवाने के लिए उच्च न्यायालय पहुंच जाना एजेंडा नहीं है. असल एजेंडा तो यही प्रतीत होता है कि आपने फिल्म देखी नहीं, लेकिन कथित आसन्न खतरे को लेकर अदालत पहुंच गए. इस एजेंडा की चर्चा कहीं नहीं हो रही है, न ही याचिकाकर्ताओं की मंशा पर प्रश्न खड़े किए जा रहे हैं.

सुनवाई के दौरान न्यायपीठ ने कहा कि देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और कलात्मक स्वतंत्रता को संतुलित तरीके से देखा जाना चाहिए. इस टिप्पणी के गहरे निहितार्थ हैं. अगर हम कोर्ट की इस टिप्पणी के आलोक में देखें तो स्पष्ट है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हर वर्ग और समुदाय के लिए एक समान है. संविधान में इसकी ही व्यवस्था है. सुनवाई के दौरान कोर्ट की ये टिप्पणी भी उल्लेखनीय है कि – ‘इस फिल्म में इस्लाम के विरुद्ध कुछ नहीं है, इस्लाम पर किसी तरह का आरोप नहीं लगाया गया है. इस फिल्म में आतंकवादी संगठन आईएसआईएस की करतूतों को दिखाया गया है’. इस टिप्पणी के बाद ये सवाल उठता है कि अगर किसी फिल्म में फिल्मकार आतंकवादी संगठन के खिलाफ दिखाता है तो उस फिल्म को बिना देखे इस्लाम के खिलाफ या मुसलमानों के खिलाफ कैसे मान लिया जाता है? सिर्फ मान ही नहीं लिया जाता है, बल्कि उनकी रक्षा के लिए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाते हैं. वो भी ऐसे लोग जो खुद को लिबरल या सेक्युलर मानते हैं. क्या इस देश में किसी आतंकवादी संगठन के खिलाफ फिल्म बनाना अपराध है? अब तक इस देश में कई ऐसी फिल्में बनीं, जिसमें स्पष्ट रूप से आतंकवादियों को लेकर फिल्मकार सॉफ्ट रहे हैं. अधिकतर फिल्मों में आतंकवादी के बनने के लिए परिस्थितियों को जिम्मेदार दिखाया गया है. फिल्म मिशन कश्मीर में ऋतिक रोशन ने जिस अल्ताफ खान का चरित्र निभाया है, उसको याद करिए या फिर फिल्म फना में आमिर खान ने जिस आतंकी रेहान का रोल किया. आतंकी रेहान की कब्र पर जब उसका बेटा अपनी मां से पूछता है कि क्या रेहान ने गलत किया था तो उसकी मां कहती है कि रेहान ने वही किया जो उसको ठीक लगता था. इस तरह के संवाद आतंकवाद का परोक्ष समर्थन न भी हो, लेकिन आतंकवाद को लेकर एक रोमांटिसिज्म तो है ही. इस तरह के कई प्रसंग हिंदी फिल्मों में देखे जा सकते हैं.

केरल हाईकोर्ट की न्यायपीठ की एक और टिप्पणी थी. कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं के साथ फिल्म के ट्रेलर को कोर्ट में ही देखा और कहा कि ये काल्पनिक है. याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि इस फिक्शनल फिल्म का उद्देश्य मुसलमानों को खलनायक के रूप में पेश करना है. कोर्ट ने इससे भी असहमति जताई और कहा कि फिल्मों में कई तरह की चीजें दिखाई जाती हैं. भूत और पिशाच भी नहीं होते हैं, लेकिन फिल्मों में काल्पनिक रूप से उनको भी दिखाया जाता है. सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणी न्यायमूर्ति नागरेश ने की वो ये कि – कई फिल्मों में हिन्दू संन्यासियों को तस्कर और बलात्कारी दिखाया गया है, लेकिन कभी भी किसी ने उस पर आपत्ति नहीं जताई. आपने हिंदी और मलयालम में इस तरह की कई फिल्में देखी होंगी. मलयालम में तो एक फिल्म में पुजारी को मूर्ति पर थूकते दिखाया गया था, लेकिन उससे भी किसी प्रकार की कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई थी. आप कल्पना कर सकते हैं कि वो फिल्म पुरस्कृत भी हुई थी. इस टिप्पणी ने भारतीय फिल्म जगत के उस एजेंडे को बेनकाब कर दिया जो अब तक निर्बाध रूप से चल रहा था.

आईआईएम रोहतक के निदेशक धीरज शर्मा ने अपनी पुस्तक फिल्में और संस्कृति में लिखा है कि ऐसी फिल्में हमारे मूल्यों, परंपरा, हिन्दुत्व की विचारधारा और भारतीय संस्कृति की जड़ें कमजोर कर रही हैं. बालीवुड व्यवस्थित तरीके से हिन्दू धर्म को नीचा दिखाने में लगा हुआ है. धर्म के खिलाफ नकारात्मक धारणा, भावना या गतिविधि को बढ़ा रहा है. उदाहरण के लिए फिल्म वास्तव, संजू, सिंघम, सरकार में जितने भी नकारात्मक पात्र दिखाए गए हैं, उन सबने हिन्दुओं के प्रतीक चिन्ह धारण कर रखे हैं और वे साफ नजर भी आते हैं. संभवत: यह दर्शाने के लिए हिन्दू धर्म के प्रतीक जिन्होंने धारण कर रखे हैं, वे बुरे इंसान हैं. इसके उलट अगर किसी ने अन्य धर्म के प्रतीक धारण कर रखे हैं तो उसको पवित्र व्यक्ति के तौर पर पेश किया जाता है. फिल्म दीवार के नायक को भी इस संदर्भ में याद किया जाना चाहिए. अमिताभ बच्चन ने फिल्म दीवार में जिस विजय वर्मा का किरदार निभाया है वो हिन्दू मंदिरों में जाने का इच्छुक नहीं होता है, लेकिन हमेशा अपनी जेब में 786 नंबर का बिल्ला रखता है. पुलिस से बचकर भागते समय उसका बिल्ला कहीं खो जाता है और उसको जान गंवानी पड़ती है. इससे परोक्ष रूप से क्या संदेश दिया जाता है?

‘द केरल स्टोरी’ को लेकर जिस तरह की बातें इन दिनों हो रही है, लगभग उसी तरह की बातें पिछले वर्ष ‘द कश्मीर फाइल्स’ को लेकर हो रही थीं. उसको भी एजेंडा फिल्म से लेकर समाज को बांटने वाली फिल्म तक करार दिया गया था. ‘द कश्मीर फाइल्स’ के बाद ‘द केरल स्टोरी’ में आतंकवादियों की करतूतों को दिखाया गया है. कुछ लोग इसको बेवजह इस्लाम से जोड़ कर अपना एजेंडा चलाना चाह रहे हैं. इन दोनों फिल्मों में किसी धर्म के खिलाफ कुछ भी आपत्तिजनक नहीं दिखाया गया है. अगर ऐसा होता तो देश की अदालतें इसका संज्ञान अवश्य लेतीं. जो लोग इन फिल्मों को इस्लाम और मुसलमानों के विरुद्ध बता रहे हैं, उनको गंभीरता से इस बारे में सोचना चाहिए कि वो ऐसा क्यों कह रहे हैं? कश्मीर में हिन्दू पंडितों का नरसंहार करने वाले आतंकवादी या आईएसआईएस के आतंकवादियों को मुसलमानों या इस्लाम से जोड़ना अनुचित है. फिल्म इंडस्ट्री में कुछ ऐसे निर्माता हैं, जिनकी आस्था न तो भारत में है न ही भारतीयता में. उनका लक्ष्य है – किसी तरह से कला की आड़ में अपना एजेंडा चलाना. लेकिन इस बार अदालत ने उसे नाकाम कर दिया.

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