गोपाल माहेश्वरी
“दादी! हम नहीं चलेंगे अयोध्या जी!” सात वर्ष के राघव ने शाला से लौटते ही पूछा.
“चलेंगे जब राम जी बुला लेंगे”. दादी का स्वर हृदय की गहराई से निकला. राघव छोटा था, पर इतना समझने लगा था कि दादी जब राम जी का नाम लेकर ऐसे उत्तर दे तो उनके पास उस काम को करने की इच्छा तो होती है, पर कोई योजना नहीं होती.
वह बहुत उत्सुकता से बोला “राम जी तो सबको बुला रहे हैं, कितने ही लोग जा रहे हैं. हम भी चलें?”
“मैंने कहा न राघव! राम जी बुलाएंगे तो क्यों नहीं जाएंगे?” अपनी पुरानी साड़ी को सिलते-सिलते उनके हाथ की सूई थम चुकी थी और मोटा सा चश्मा, जिसकी एक डंडी का स्थान अब मोटा धागा ले चुका था, दादी की बूढ़ी आंखों में तैर आए आंसुओं को छिपा नहीं पा रहा था.
राघव ने आगे कुछ न पूछा अपने काम में लग गया. घर में दो ही तो प्राणी थे, एक वह दूसरी दादी. दोनों एक-दूसरे को इतना जानते थे, जितना स्वयं को भी न जानते होंगे. दादी बहुत हिम्मत वाली है, उनकी आंखों में आंसू वैसे ही नहीं आते, पर इन आंखों में आंसू आए हैं तो राघव को इसका कारण जानना ही है, दादी के आंसू उनका पोता न पोंछे तो कौन पौंछेगा? लेकिन राघव को पता है, दादी से यह जानना सरल भी नहीं है. फिर उसके मस्तिष्क में अपनी बाल शाखा के कार्यवाह जी से हुआ वार्तालाप कौंधा. उसने पूछा था “राघव का क्या अर्थ है भाई जी!”
वे बोले थे “राम”.
“और राम का?” राघव ने पूछा.
उन्होंने समझ लिया, सीधा सरल साधारण उत्तर नहीं चाहिए इसे, अन्यथा राम को न जाने ऐसा तो यह हो ही नहीं सकता. इसलिए कहा “राम जो कठिनाई से न डरे, हर बाधा को पार करे और जो सोचे वह करके रहे. राम भी ऐसे और उनके जिन पूर्वज राजा रघु के नाम पर वे राघव कहलाए, वे भी ऐसे ही थे.” उसका ध्यान टूटा.
राघव अपना बस्ता जमाते हुए बड़बड़ाया “राम जी पांच सौ वर्षों बाद अयोध्या में अपने नए मंदिर में जा रहे हैं, हमें वहां जाना चाहिए उनका स्वागत करने कि यहीं बैठे रहें. दादी सोचती है रामजी यहीं आ जाएं उनसे मिलने जैसे शबरी मैया की कुटिया पर पहुंचे थे.”
दादी का ध्यान भी तो राघव पर ही था. राघव और बच्चों जैसा हठी नहीं है और उसकी यह इच्छा तो दादी की अपनी भी इच्छा है. दादी की आंखें बाहर भले ही धुंधला देखती हों मन के अंदर बहुत स्पष्ट देखती थीं. वे गहरी स्मृतियों में खो गईं.
पांच सौ सवा पांच सौ बरस बीत गए. अपने परिवार से अयोध्या जी छूटे. राघव के परदादा के परदादा के दादा जी थे तब. पीढ़ियों से परिवार में यह कथा इतनी सावधानी से सुनाई जाती है, जितनी सावधानी से कोई अपने भूमि-भवन के पुरावे अगली पीढ़ी को सौंपता है. तभी तो उन्हें भी यह अक्षरशः याद है. दादी अपनी दादी सास से सुनी पुरानी कहानी में खो गई.
उस दिन वे पूर्वज बहुत क्रोधभरी उतावली में घर आए और अपनी तलवार लेकर तुरंत जाने लगे तो उनके बेटे ने पूछा “पिताजी! कहां?” तलवार, भाले और तीर-कमान भी घर में थे, हर हिन्दू के घर होना ही चाहिए, अपने देवी-देवता तो हाथों में लिए दिखते हैं, हम घर में तो रखें. घर में अस्त्र-शस्त्र थे, पर कभी उपयोग की आवश्यकता न हुई. इसलिए आज तलवार उठाते पिता को देख पुत्र का प्रश्न स्वाभाविक ही था.
आ, तू भी आ. “वे घर से बाहर निकलते निकलते बोले. बेटा भोजन कर रहा था. हाथों का कौर भी मुंह में न रखा और भाला उठा कर चल पिता के पीछे घर से निकला तो देखा हर घर से अयोध्यावासी शस्त्र लिए निकल रहे हैं. कोलाहल में ही पता चला कोई बाबर नाम का मुगल है, उसने अपने सेनापति मीरबांकी को भेजा है अयोध्या जी पर आक्रमण करने. उनकी बड़ी सेना है, वे श्रीराम मंदिर की ओर बढ़ रहे हैं. इतना सुनना था कि सेना के मार्ग में जिनके घर थे, वे भी उजड़ जाएंगे ऐसा सोचे बिना ही वे श्रीराम मंदिर की ओर जा रहे थे.
सुनी हुई घटना भी दादी के बूढ़े शरीर में रोमांच भर रही थी तो जिन्होंने यह भोगा होगा, उनकी दशा कौन कहे?
दादी फिर स्मृतियों के भंवर में कूद पड़ीं. उन्होंने अपनी दादी सास से सुना था – उस दिन अयोध्या रक्तरंजित हो गई. वे दोनों पिता-पुत्र फिर लौटे नहीं. अपने प्राणों के कमल श्रीराम के धाम पर चढ़ा दिए. घर में शेष बचीं सास व एकमात्र बहू अपनी कोख में वंश का तीन मास का अंश छिपाए थी. राक्षसों से भी अधम मीरबांकी की सेना ने श्रीराम जन्मभूमि ढहा दी, इतना ही नहीं तो मंदिर के ही पत्थर रोड़े ले कर तीन बड़े भारी गुंबद बनवा दिए, एक ढांचा जिसे वे दुष्ट मस्जिद कहते थे पर वह मस्जिद थी क्या? नहीं न? अपने धरम से न उनके धरम से.
अपने परिवार को अयोध्या जी छोड़ना पड़ी. आक्रमणकारियों का घोर आतंक, नवयुवती विधवा बहू की रक्षा असंभव थी. सास ने सोचा कहीं भी रहें, कैसे भी रहें, रहेंगे रामजी के पास, निर्बल के बल तो राम जी ही हैं. बस लोटा डोरी कंबल कपड़े लिए और अयोध्या के घर को ताला लगा छुपते-छुपाते पदयात्रा करते चल पड़ीं दोनों सास-बहू. चलते-चलते बहू ने अपने कपड़ों में कटारी छुपाकर रख ली.
महिनों लगे. प्रतिदिन थोड़ा थोड़ा चलती जातीं. जहां कोई सदावर्त मिलता भोजन-प्रसादी पा लेतीं या कोई फिर भिक्षा मांग लेती. राम जी की कृपा से मार्ग में एक हिन्दू परिवार की बैलगाड़ी में स्थान मिल गया. बहू की स्थिति देख कर परिवार की करुणामयी माता का हार्दिक आग्रह सास-बहू को उनके घर रुकने पर विवश कर गया. वहीं बहू की प्रसूति भी हुई. महिना भर यात्रा रुकी रही. नन्हा शिशु गोद में लिए दोनों महिलाएं चलतीं रहीं. इस प्रकार जा पहुंचीं कई कोस चलकर ओरछा राजा राम के धाम. कुछ दिन धर्मशाला में फिर एक कच्ची मढैया बना ली.
उनका शिशु जब किशोर हो गया तो राम राजा के दरबार में ही चाकरी पा गया. दादी को उनकी दादी सास बताती थीं, तब से परिस्थितियों में उतार चढ़ाव आए. लेकिन दो बातें इस परिवार में आज तक नहीं बदलीं. पहली इस वंश के सारे बच्चों के नाम भगवान राम के नाम पर रखे जाते, दूसरा श्रीराम जन्मभूमि पर बाबर के आक्रमण की कथा बाद के इतिहास को जोड़ते हुए प्रत्येक पीढ़ी अगली पीढ़ियों को आवश्यक रूप से सुनाती हैं.
कितने धर्म प्रेमी नागरिक, कितने संत महापुरुष कितनी कितनी मार श्रीराम जन्मभूमि को विधर्मियों के द्वारा लगाए गए कलंक से मुक्त कराने संघर्ष करते रहे. हजारों तो बलिदान हो गए. इनमें गुरु गोबिंद सिंह जी के प्रयत्न और नागा साधुओं के लड़े युद्ध की कथाएं भी जुड़ती गईं. पीढ़ियां और संघर्ष कथाएं दोनों बढ़ते रहे. पीढ़ियों ने इन कथाओं को अमूल्य धरोहर की भांति संजोया था.
अंततः संघर्ष की पूर्णाहुति भी हुई. वह बींसवीं शताब्दी के अंतिम दशक की घटना है. अपार जन ज्वार चल पड़ा था अयोध्या जी की ओर. पूज्य अशोक जी सिंघल जैसे रामभक्तों के नेतृत्व में एक बार सन् 1990 में और पुनः सन् 1992 में दिशा दिशा से असंख्य रामभक्तों का समुद्र उमड़ पड़ा. विश्व हिन्दू परिषद् और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनेक कार्यकर्ताओं ने श्रीराम जन्मभूमि को मुक्त कराने की प्रतिज्ञा ही कर ली थी. ‘रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे’, ‘बच्चा बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का’ जैसे गगनभेदी दिव्य घोषों से भारतवर्ष के नगरों, ग्रामों के गली-मोहल्ले गूंज उठे थे. शासन तंत्र विरुद्ध था, पर यह एक निर्णायक जनयुद्ध था. भारत की जनता अपने संस्कृति पुरुष और धर्म की साकार प्रतिमा भगवान श्रीराम की जन्मभूमि, अपने राष्ट्रीय मानबिन्दु के लिए लड़ रही थी.
राघव शाला से लौटा तो दादी को किन्हीं विचारों में खोया हुआ पाया. उसने दादी को दोनों हाथों से पकड़कर हिलाया “यह क्या दादी! तब से ऐसे ही बैठी हो क्या!! भूख लगी है. कुछ बनाया है मेरे लिए?”
दादी का ध्यान टूटा, वे अपनी साड़ी के पल्लू से आंखें पोंछती उठी. राघव ने हाथ पकड़ा “दादी रो रही हो? अरे नहीं जाना मुझे अयोध्या बस?”
दादी ने उसके मुंह पर हाथ रख दिया ऐसा नहीं कहते बेटा! मैंने तब नहीं रोका तो अब क्यों रोकूंगी?”
“कब, किसे नहीं रोका दादी?” बताती हूँ, पहले कुछ खा ले फिर भोजन बनाऊंगी, आज तो सच में मुझे रसोई तक बनाने की सुध न रही रे.” वे गुड़ चना कटोरी में निकालने लगी.
“फिर तो आपने भी कुछ न खाया! आओ, मेरे साथ.”
“कैसा अद्भुत उत्साह था उस दिन! तेरे दादा और पिता दोनों अलग-अलग जत्थे में जाने को तैयार. ऐसे कई जत्थे कार सेवा के लिए अयोध्या जी की ओर कूच करने चल पड़े थे. तेरे पिताजी का तो दो वर्ष पहले ही विवाह हुआ था. तेरी मां उस समय मायके गई हुई थी, तू जो आने वाला था. पहले जत्थे में मेरा बेटा ही गया था. साथ में थोड़ा-सा सत्तू, गांठ में जरा-से पैसे और राम जी पर अटूट विश्वास.” दादी के सामने जैसे सारा दृश्य साकार दिख रहा था.
राघव ने टोका “मैं कहां था दादी?” “तू तो अपनी मां के पेट में ही था रे!” दादी ने उसके सिर पर हाथ फेरा.
“फिर क्या हुआ?” राघव बहुत उत्सुक था. कटोरी के गुड़ चने वैसे ही रखे थे.
“फिर क्या बेटा? रामभक्तों को संसार का कौन-सा बंधन रोकता? कौन-सी बाधा अटकाती? कौन-सा रास्ता भटकाता? वे तो बस चल पड़े, पीछे मुड़े ही नहीं.”
“वे संघ वालों के साथ थे?”
“गया तो शाखा की टोली के साथ ही पर तब क्या संघवाले, क्या विश्व हिन्दू परिषद्, क्या आम नागरिक? सब तो केवल रामभक्त थे. कारसेवक, रामजन्मभूमि के लिए बने स्वयं सैनिक. पहले जमाने में साका होता था. साका यानि ऐसा जत्था जो निर्णायक युद्ध के लिए निकलता था. जिसके सैनिक केसरिया बाना पहने या तो जीतेंगे या मर जाएंगे, यही प्रतिज्ञा करके निकलते थे. वैसा ही निश्चय, वैसी ही बलिदानी भावना थी उनमें.”
“आगे क्या हुआ?” राघव उत्सुक था.
“चार दिन बाद ही बाप भी बेटे की राह पर निकल पड़े.… बाद में कुछ लोग बता रहे थे तेरे दादा तो अयोध्या जी पहुंच ही न पाए. कौन जाने यह कितना सच, कितना अनुमान था. पर तेरे पिता जा पहुंचे थे. ढांचा ढहा, तब वहीं थे. उनका एक साथी साथ था. उसने बताया छुपते-छुपाते गांवों जंगलों से वे अयोध्या जी पहुंचे. सारी सीमाएं बंद थीं, पर उत्साह और रामलला की लगन की कोई सीमा न थी. सरकार का घमंड था कि अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार सकेगा, पर ठीक समय पर जत्थे के जत्थे प्रकट हो गए. हजारों हजार रामभक्त. बौखलाई सरकार ने रामभक्तों पर गोलियां चलवा दीं. ‘जय श्रीराम’ कहते एक गोली मेरे बेटे ने भी खाई और सरयू मैया की गोदी में ऐसा समाया कि किसी को न दिखा.” बूढ़ी आंखों से आंसू टपके, पर छाती ठोक कर बोली “राम के काम आकर पुरखों को तार गया मेरा बेटा. गर्व है मुझे ऐसी संतान पर.”
“और दादाजी?” राघव रोमांचित था.
“कुछ पता नहीं, कौन जाने कहां क्या हुआ? पर वे भी लौटे नहीं.” दादी और बैठी न रह सकी. रसोई में चल दीं.
पीछे-पीछे जा पहुंचे राघव ने कहा “दादी! मैं अयोध्या जी जाऊं? शाखा वाले जा रहे हैं. कारसेवकों के परिवार के सदस्य भी जाएंगे पर आप बूढ़ी हैं आप को बाद में ले जाएंगे. मैं जाऊं?”
संघर्ष की भीषण बेला में पति नहीं रुका, बलिदान के मुहूर्त पर बेटे को मना नहीं कर सकीं तो अब तो रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा का परमानंद महोत्सव है वह कैसे मना करे? धीरे से कह दिया “जा. राम जी रक्षा करेंगे.”
अपनी प्रबल इच्छा को पूरी करने के लिए बालसुलभ झूठ बोला था राघव ने. जाने वाले स्वयंसेवकों में अभी छोटा होने से उसका नाम न था.
अपने दादाजी और पिता के अनुभव को जीना चाहता था राघव. वैसे अब तब जैसी कठिनाई तो थी नहीं. वह रेल, बस और पैदल चलकर अयोध्या जी जा पहुंचा. अयोध्या स्वर्ग जैसी लग रही थी. अनेक गणमान्य अतिथियों के कारण सुरक्षा अधिक ही थी और व्यवस्था सीमित. ठंड थी. वह एक चबूतरे पर सिकुड़कर कंबल ओढ़े सोया था. एक बैरागी साधु महाराज वहां से निकले. बड़ी भारी जटाजूट दाढ़ी, चौड़ा-सा तिलक बोले “बच्चा! अकेले हो?”
“अं..हां.”
“बाहर से हो?”
“हां, प्रणाम.” राघव उठकर सम्हला और उन्हें प्रणाम किया.
“सीताराम सीताराम.” वे आशीर्वाद की भांति बोले.
एक अयोध्यावासी को संकेत से बुलाया “सुनो! इसे अपने घर ले जाओ.”
उसने हाथ जोड़कर कहा “जी महाराज जी!”
संत राघव से बोले – “जाओ, यहां ऐसे पुलिस सोने रुकने नहीं देगी.”
राघव करुण स्वर में बोला “मुझे तो रामलला के दर्शन…”
वाक्य अधूरा रह गया “बाद में करवाएंगे, कुछ दिन रहो इनके साथ. अभी बहुत भीड़ है.” कहकर वे चल दिए.
राघव उन सज्जन के घर रुक गया. संघ के संस्कार, कुल के गुणधर्म काम आए. सेवा, सरलता और संतोष ने परिवार का हृदय जीत लिया. वह दस दिन रहा. रामलला के दर्शन भी किए. संत जी ने उसकी सारी कथा जान ली थी. कहा “दादी के पास जाना है?” राघव मौन रहा. संत मुस्कुराए.
एक दिन वह सोया हुआ था कि किसी ने उसके सिर पर हाथ फेरा. वह यह स्पर्श पहचानता था, पर उनींदा-सा था. मुंह से निकला “दादी!”
“हां बेटा!” यह तो दादी ही है. वह चौंककर उठा. यह सपना था या सच वह न समझ सका. चौंक कर बैठा तो दादी वहां न थी.
उसने यह अनुभव संत जी को सुनाया. संत जी ने एक भक्त को ओरछा भेजा, जिसने लौटकर दादी के उस सपने वाले दिन ही राम जी को प्यारी हो जाने का समाचार दिया.
“अब राघव यहीं रहेगा, छावनी में ही.” राघव का अधिकतर समय संत सेवा और वेद पढ़ने में बीतता. यह रहस्य राम जी ही जाने कि छावनी के एक साधु महाराज उसे देखते तो राघव के उनके और मन में भी अनबूझा-सा अपनत्व क्यों गहराता जाता था. संत जी से यह छुपा न था, पर वे इतना ही कहते “राम जी की माया.” कारसेवा के समय ये पास के गांव में अपनी स्मृति खोए भटकते मिले थे. अयोध्या जी में प्रवेश के समय इस वृद्ध के सिर पर सरकारी लाठी का भरपूर प्रहार पड़ा था. किसी ने सब शांत होने तक इन्हें सम्हाला, फिर इन संत जी की छावनी में पहुंचा दिया, जहां वे बिन बनाए ही साधु बन गए थे. राघव कभी छोड़ न पाया अनबूझी पहेली-सा संबंध था उनमें. राघव “बाबा जी! बाबाजी!” कहता, सब साधुओं से भी अधिक ही उनकी सेवा करता रहता. रात्रि में पांव दबाता तो बूढ़े साधु की आंखें जाने क्यों झरने लगतीं, राम जी की यह लीला भी राम जी ही जानें. रामलला अपने भव्य मंदिर में मुस्कुरा रहे थे.
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक हैं.)