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अमृत महोत्सव लेखमाला – सशस्त्र क्रांति के स्वर्णिम पृष्ठ : भाग तीन

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वासुदेव बलवंत फड़के ने थामी स्वतंत्रता संग्राम की मशाल

नरेन्द्र सहगल

इतिहास साक्षी है जहाँ एक ओर हमारे देश में राष्ट्र समर्पित संत-महात्मा, वीरव्रती सेनानायक, देशभक्त सुधारवादी महापुरुष एवं कुशल राजनेता हुए हैं, वहीं दूसरी ओर देश-हित को नकारकर मात्र अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए शत्रुओं का साथ देने वाले देशद्रोहियों और गद्दारों की भी कमी नहीं रही. इन्हीं गद्दारों की वजह से एक समय विश्वगुरु रहा हमारा देश सदियों तक गुलामी का दंश झेलता रहा.

सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भी इसी इतिहास की पुनरावृति हुई. सारे देश ने एक साथ मिलकर अंग्रेजों का तख्ता पलटने का जो अतुलनीय संग्राम लड़ा उसे सत्ता के भूखे चंद रियासती राजाओं तथा लालची धन कुबेरों ने पलीता लगा दिया. संघर्ष कर रहे देश के वीर सेनानियों का तरिस्कर करके विदेशी/विधर्मी सरकार का साथ देने वाले इन नीच गद्दारों की वजह से हम ‘स्वधर्म एवं स्वराज्य’ के लिए महासंग्राम में जीत कर भी हार गए.

परिणाम स्वरूप अंग्रेज शासकों ने दमन की अंधी चक्की चला कर हमारे सेनानियों को फांसी के फंदे पर चढ़ाना शुरू कर दिया. जिस गाँव, कस्बे एवं नगर से एक भी स्वतंत्रता सेनानी  निकला उसे पूरी तरह तबाह कर दिया गया. स्वतंत्रता सेनानियों का थोड़ा भी साथ देने वालों की बाकायदा सूची बनाकर उन्हें गोलियों से भून दिया जाता. देशभक्तों के घर-संपत्ति-जमीन इत्यादि सब छीनकर सरकारी एजेंटों के हवाले कर दिए गए. सरकार ने एक नया क़ानून ‘आर्म्स एक्ट’ बनाकर सभी भारतवासियों को शस्त्रविहीन करने का षड्यंत्र भी किया. इतने पर भी अंग्रेज भक्त भारतीयों ने अपनी गुलाम मानसिकता को तिलांजलि नहीं दी. देशभक्त और देशद्रोहियों में प्रतिस्पर्धा से भरा हुआ है हमारा गत एक हजार वर्षों का इतिहास.

यह भी जान लेना जरूरी है कि वीर प्रसूता भारत माँ सैन्य और आध्यात्मिक शूर-वीरों की जननी है. 1857 के महासंग्राम के बाद कुछ वर्षों तक सन्नाटा छाया रहा, परन्तु मात्र एक दशक के पश्चात् ही भारत के जेहन में घुसे वीरव्रती आग के शोले फिर उसी शक्ति के साथ प्रस्फुटित हो गए. ब्रिटिश दमन के खिलाफ प्रचंड आवाज उठी और ‘स्वतंत्र भारतीय गणराज्य’ की स्थापना के उद्देश्य के साथ महाराष्ट्र की धरती पर उत्पन्न हुए एक महान क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फड़के ने सशस्त्र क्रांति की रणभेरी बजा दी.

महाराष्ट्र में रायगढ़ जिले के एक गाँव श्रीधर में जन्म लेने वाला यह वासुदेव बाल्यकाल से ही निडर/ निर्भीक वृति का था. माँ बाप चाहते थे कि उनका बेटा कोई साधारण सी नौकरी कर ले. परन्तु विधाता ने तो इस तरुण से कोई और बड़ा काम लेना था. बहुत सोच समझकर वासुदेव ने घर छोड़ दिया और बंबई आकर रेलवे विभाग में नौकरी कर ली. इसी समय बंबई में ही उस समय के एक राष्ट्रभक्त नेता जस्टिस रानाडे का भाषण सुनकर वासुदेव के मन में भारत माता के प्रेम का अद्भुत जागरण हुआ. फलस्वरूप उसने अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार उठाने का प्रण कर लिया.

सरकारी नौकरी करते हुए इस युवा स्वतंत्रता सेनानी ने विदेशी अफसरों द्वारा भारतीय कर्मियों के साथ अन्याय को नजदीक से देखा और अनुभव भी किया. इसी समय वासुदेव के घर से तार आया कि ‘तुम्हारी माँ बहुत बीमार है तुरंत आ जाओ’. वासुदेव वह तार लेकर अंग्रेज अफसर के पास छुट्टी की प्रार्थना करने के लिए गया. उस अधिकारी द्वारा वासुदेव तथा उसकी माँ के प्रति कहे गए अत्यंत अभद्र शब्दों ने वासुदेव के मन में अंग्रेजों के प्रति पहले से ही भभक रही नफरत की आग में घी डालने का काम किया.

वासुदेव ने वह तार और प्रार्थना पत्र अंग्रेज अफसर के मुंह पर दे मारा और नौकरी छोड़कर घर आ गया. उसकी माँ तब तक प्राण छोड़ चुकी थी. वासुदेव ने प्रतिज्ञा की कि वह इस अमानवीय हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की चिंगारी को दावानल में बदलेगा. इन्हीं दिनों देश में एक भयंकर अकाल से जनता दाने-दाने को तरस रही थी. लार्ड लिटन और लार्ड टैम्पल के अत्याचारी शासन ने मानवता की सारी हदें पार करके भारत का सारा कच्चा माल इंग्लैंड की यॉर्कशायर और लंकाशायर आदि मिलों में भेजना शुरू कर दिया. ढाके में बनाई जा रही विश्व-प्रसिद्ध मलमल के कारीगरों के हाथ काट दिए गए. अंग्रेजी व्यापारियों को फ्री ट्रेड के नाम से भारतीयों को लूटने की खुली छूट दे दी गयी.

यह सब देखकर वासुदेव ने महाराष्ट्र के युवकों को साथ लेकर एक मोर्चा बनाने का साहसिक कार्य शुरू किया. परन्तु घर परिवार के सुखों में डूबे हुए युवकों ने साथ नहीं दिया. अंततः वासुदेव ने छोटी कहलाने वाली ग्रामीण जातियों की और ध्यान दिया. महाराष्ट्र में एक पिछड़ी परन्तु वीरव्रती जाति ‘रोमोशी’ के नवयुवकों ने वासुदेव का भरपूर साथ दिया. बहुत कम समय में एक छोटी, परन्तु शक्ति संपन्न सैनिक टोली तैयार हो गयी. सरकार को लगान न देना, अंग्रेजों का गाँव में बहिष्कार करना इत्यादि प्रारम्भिक गतिविधियाँ बड़े स्तर पर होने लगीं.

वासुदेव की डायरी के यह शब्द उसके उद्देश्य का आभास करवाते हैं – “यदि मुझे पांच हजार रुपया मिल जाता तो मैं सारे देश में अपने सैनिकों को विद्रोह करने के लिए भेज सकता हूँ. यदि दृढ़ चित्त वाले दो सौ व्यक्ति मुझे मिल जाएं तो मैं देश में एक चमत्कार कर सकता हूँ. यदि भगवान ने चाहा तो हम भारत में एक “स्वतंत्र भारतीय गणराज्य की स्थापना कर सकेंगे”. ध्यान दें कि 1857 में भारतीय सेनानियों ने ‘स्वधर्म एवं स्वराज्य’ का नारा दिया था तो वासुदेव ने इसी को आगे बढ़ाते हुए ‘स्वतंत्र भारतीय गणराज्य’ का बिगुल बजा दिया.

वासुदेव की सैनिक टुकड़ियों ने ब्रिटिश सरकार के दफ्तरों, थानों और ठिकानों पर आक्रमण करने की गति तेज कर दी. इन सैनिकों ने तोमर एवं धामरी के अंग्रेज सैनिक ठिकानों तथा किलों पर अपना अधिपत्य जमा लिया. यह सेना पूरी ताकत के साथ आगे बढ़ती गयी.

इन्हीं दिनों वासुदेव ने धनी लोगों के नाम एक अपील जारी की – “तुम अपनी अपार संपत्ति में से कुछ धन अपने देश के लिए दे दो…….. आप जब अपना कर्तव्य पूरा नहीं करते तो मुझे तुमसे यह धन जबरी छीनना पड़ता है. इस ईश्वरीय कार्य के लिए शक्ति द्वारा धन लेने में मैं कोई पाप नहीं समझता. क्या आप विदेशी सरकार को टैक्स नहीं देते. फिर मैं भी जंगे-आजादी के लिए आपसे धन मांगने या छीनने में कौन सा पाप करता हूँ. आप इसे मुझे दिया गया ऋण ही समझ लो. स्वराज मिलने पर हम आपको ब्याज सहित वापस कर ‘देंगे’.

वासुदेव की इन सरकार विरोधी हरकतों पर लगाम लगाने के लिए अंग्रेज पुलिस अफसर एक गुप्त स्थान पर वार्तालाप के लिए एकत्रित हुए. वासुदेव के गुप्तचरों द्वारा इसकी सूचना मिलने पर वासुदेव के सैनिकों द्वारा इन पर हमला कर दिया. सभी अफसरों को गोलियों से भून डाला गया. भवन को लूटकर उसे आग के हवाले कर दिया गया. अब तो वासुदेव और उसकी सेना द्वारा की जा रही सशस्त्र क्रांति के चर्चे समाचार पत्रों की सुर्खियाँ बटोरने लगे.

शासन प्रशासन परेशान हो गया. तभी बम्बई की दीवारों पर इश्तेहार लगे दिखाई दिए – “जो वासुदेव को जिन्दा या मुर्दा पकड़वा देगा, पुलिस अफसर रिचर्ड द्वारा उसे 50 हजार का ईनाम दिया जाएगा”. दूसरे ही दिन जनता ने एक और इसी तरह का इश्तेहार देखा – “जो कोई बेईमान रिचर्ड का सर काटकर लाएगा, वासुदेव उसे 75 हजार रुपया ईनाम देगा”.

शहर में तहलका मच गया. पूरे बम्बई में धारा 144 लगा दी गई. वासुदेव अपने सैनिकों के साथ भूमिगत होकर संघर्ष को और भी ज्यादा प्रचंड करने की योजना बनाने लगे. सरकार के एजेंट और गद्दार पत्रकार वासुदेव को एक लुटेरा और डाकू बताने लगे.

भूमिगत रहकर पुलिस की नजरों से बचकर अपनी सैन्य गतिविधियों का संचालन करना कितना जोखिम भरा कठिन कार्य होगा, इसकी जानकारी वासुदेव की डायरी से मिलती है. – “अपने रोमोशी सैनिकों के साथ पहाड़ियों पर भागते हुए गिरते हुए प्राण बचे ….. कई दिनों से खाना नहीं खाया – झाड़ियों में दिन भर छिपे रहने से पानी की बूँद तक भी नसीब नहीं होती …….. तो भी हम अपने राष्ट्रीय दायित्व को निभाने से एक कदम भी पीछे नहीं हटेंगे.”

वासुदेव द्वारा छेड़ी गयी जनक्रांति से घबराकर सरकार ने एक बड़े खतरनाक किस्म के पुलिस अफसर डेनियल को वासुदेव को काबू करने के लिए नियुक्त किया. एक रात वासु अपने नजदीकी दोस्त गोघाटे के घर ठहरा था. गोघाटे की पत्नी ने यह समाचार गाँव की महिलाओं को सुना दिया. बात चलते-चलते डेनियल तक पहुँच गई. डेनियल दल-बल के साथ वहां आ धमका. किसी प्रकार पुलिस का घेरा तोड़कर वासुदेव भाग गया. थके-टूटे और बीमार शरीर के साथ वह भागता-भागता अपने मित्र साठे के घर शरण लेने के लिए गया और खाने के लिए भोजन माँगा, परन्तु ना घर का दरवाजा खुला और ना ही कई दिनों की भूख मिटाने के लिए एक रोटी तक मिली.

बीमार, भूखा और थका हुआ यह क्रांति योद्धा गाँव के मंदिर में जाकर लेट गया. इसकी आँख लग गई. डेनियल भी पीछा करते हुए इसी मंदिर में पहुँच गया. उसने सोए हुए शेर वासुदेव की छाती पर भारी भरकम बूट का पंजा जमा दिया. क्रांति शेर को जंजीरों में बाँध कर गिरफ्तार कर लिया गया. इस क्रांतिकारी देशभक्त को अदालत में पेश किया गया. राज-द्रोह की सभी धाराएं लगा दी गईं. उल्लेखनीय है कि वासुदेव को पकड़ने वाले डेनियल को निजाम हैदराबाद ने 50 हजार रूपये का ईनाम दिया था. अदालत ने वासुदेव को कातिल अपराधी घोषित करके आजीवन कारावास का दंड सुना दिया.

तीन वर्ष तक जेल में घोर अमानवीय यातनाएं सहन करते-करते वासुदेव लगभग प्राणहीन हो गया. एक रात वह जेल की दीवार फांदकर निकल गया. पुलिस पीछा कर रही थी. वह पकड़ा गया और फिर जेल के उन्हीं सीकचों में जकड़ दिया गया. एक रात रोटी सेंकने वाली सलाखों से भारत के इस स्वातंत्र्य लाल को बुरी तरह से पीटा गया. ‘वासुदेव क्रांति अमर रहे – अंग्रेजों देश से निकल जाओ’ उद्घोष करता रहा. और फिर एक दिन इस महान योद्धा ने भगवान से प्रार्थना की – “हे परमात्मा मुझे अगले जन्म में फिर मनुष्य का जन्म देना ताकि मैं फिर से स्वतंत्रता संग्राम में एक सैनिक के नाते देश के लिए अपना बलिदान दे सकूं”. वासुदेव ने प्राण छोड़ दिए. खून से लथपथ उसकी लाश का क्या बना इसकी जानकारी इतिहास की किसी पुस्तक में नहीं मिलती.

वासुदेव बलवंत फड़के की अनुपम बलिदान पर उसकी वीर पत्नी बाई साहब फड़के ने कहा था कि उनके पति को डाकू कहना सभी स्वतंत्रता सेनानियों और क्रांति के समर्थक भारतवासियों का घोर अपमान है. मेरे पति ने देश के लिए अपना जीवन समर्पित किया है. यह कार्य दधीची द्वारा समाज के लिए जीते जी अपनी अस्थियाँ समर्पित करने के समान है. जान लें कि वासुदेव ने अपनी पत्नी को भी तलवार बन्दूक और अन्य हथियारों का प्रशिक्षण दिया था. वासुदेव के घर के बाहर रहने पर इस महान नारी को कितने कष्ट एवं वेदनाएं सहनी पड़ी होंगी, इसका अंदाजा वह लोग नहीं लगा सकते जो आज भी अपने वतन पर मर मिटने वाले इन क्रांतिकारी बलिदानियों को स्वतंत्रता सेनानी स्वीकार नहीं करते.

वासुदेव 1857 के संग्राम के बाद देश के लिए बलिदान देने वाले पहले क्रांतिकारी थे. महासंग्राम के विफल हो जाने के बाद वासुदेव पहले राजनीतिक कैदी थे, जिसे अंग्रेजों ने ही जेल में तड़फा-तड़फा कर मार डाला था. वासुदेव ने अंग्रेजी हुकूमत का तख्ता पलटने के लिए गुरिल्ला युद्ध की तकनीक अपनाई थी. देश की बलिवेदी पर अपने जीवन का सर्वस्व बलिदान करके वासुदेव ने सशस्त्र क्रांति की मशाल भविष्य के क्रांतिकारियों को सौंप दी.

……. अमर रहे वासुदेव.

………जारी

 

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