सृष्टि में मानव जन्म के साथ ही अपने घर की कल्पना विकसित हो गई होगी. बाद में मनुष्य की चेतना में अपना घर, मोहल्ला, नगर और राज्य कहने की प्रवृत्ति विकसित होने लगी होगी. चौदहवीं शताब्दी में लिखे गए शूद्रक के प्रसिद्ध नाटक मृच्छ कटिकम में एक स्थान पर बिना घर वाले व्यक्ति को अत्यधिक विपन्न, निर्धन और व्याधिग्रस्त से भी अधिक दुर्भाग्यशाली बताते हुए कहा कि ऐसे व्यक्ति का कोई सहारा, संबल, अवलंबन नहीं होता. ऐसे बिना घर वाले व्यक्ति के सहयोग को कोई भी आगे नहीं आता. एक घर और एक ठिकाने की इस अटूट और स्वाभाविक मान्यता के विपरीत व अपवाद की ही कथा है – यह भटकी, विमुक्त और घुमक्कड़ जातियों की कथा.
इस कथा के सूत्र 1857 के स्वतंत्रता संग्राम/क्रांति से जुड़ते हैं. इन 191 लड़ाका जातियों के लोगों ने 1857 की क्रांति में बढ़-चढ़कर भाग लिया, और अंग्रेजों को भरपूर छकाया व परेशान किया. फलस्वरूप अंग्रेजों की आँखों की किरकिरी बन गए थे. इसमें कोई संदेह नहीं कि ये जातियां आधुनिक सभ्यता व विकास से कटी हुई अलग थलग रहती थीं व आपराधिक गतिविधियों में भी संलग्न रहती थीं. किंतु 1857 की क्रांति में पूरे देश व समाज का इन्होंने जिस प्रकार साथ दिया, उसके बाद इन जातियों के प्रति देश के शेष हिन्दू समाज में तब अलग स्थान बना लिया था. अपनी युद्ध कला, बलिष्ठता, बुद्धि, लड़ाकेपन का भरपूर उपयोग इस समाज ने अंग्रेजों के पैर उखाड़ने में किया था. 1857 के बाद से ही अंग्रेज इन जातियों पर तीक्ष्ण नजर रखने लगे व इनके लिए देश भर में 50 अलग बस्तियां बना दी गई थीं. जिनसे बाहर निकलते समय व अन्दर आते समय इन्हें शासकीय तंत्र को विधिवत सूचना देनी होती थी. जहां 1857 की क्रांति के बाद शनैः शनैः इन जातियों को हिन्दू समाज ने अपने में समरस करना प्रारंभ किया, वहीं अंग्रेजों ने इस समाज से अपने प्रतिशोध का क्रम प्रारंभ कर दिया. व इस समाज को शेष हिन्दू समाज व देश से काटने का हर षड्यंत्र किया. इसी क्रम में 1871 में इन लड़ाकू 193 जातियों को अंग्रेजों ने आपराधिक जातियां घोषित कर दिया.
यह दुःखद आश्चर्य ही है कि जब 15 अगस्त, 1947 को संपूर्ण भारत स्वतंत्र हुआ. भारत का प्रत्येक नागरिक स्वतंत्र नागरिक कहलाया, तब भारत का 193 जातियों का समूह ऐसा था…जिसे गुलाम श्रेणी में रखा गया था. इन 193 जातियों को अंग्रेजों ने Criminal Law Amendment Act 1871 के अनुसार अपराधी घोषित कर दिया था. अपने मुंह मियां मिट्ठू, जैसे आधुनिक और विकसित कहलाने वाले अंग्रेजों की मध्ययुगीन, बर्बर और पाषाण सोच का यह ज्वलंत उदाहरण है कि 193 जातियों को समूह रूप में पूरा का पूरा अपराधी वर्ग घोषित कर दिया गया था. स्थिति इतनी बर्बर थी कि इन जातियों में जन्म लेने वाला अबोध शिशु भी जीवन के प्रथम दिन से आजन्म अपराधी ही कहलाता था..!! अंग्रेजों की मानसिकता का तनिक सा भी अध्ययन करने वालों को पता है कि भारत में अंग्रेजों को अपराधियों से कभी घृणा नहीं रही, वे अपनी कानूनी स्थिति का लाभ उठाकर अपराधियों को लालच दिखाते और उनका अंग्रेज शासन में अघोषित संविधानेतर उपयोग करने लगते थे. अंग्रेजों द्वारा इन भटकी विमुक्त जातियों को अपराधी घोषित करने के पूर्व इन जातियों की क्षमता उपयोग भी निश्चित तौर पर इस राष्ट्र को लूटने और यहाँ के नागरिकों पर आतंक स्थापित करने वाली गतिविधियों हेतु करने का प्रयास किया गया. हिंदुस्थानी समाज में आतंक और लूट का वातावरण बनाने के अंग्रेजी प्रयासों में अपनी सैन्य, छापामार, रात्रि दक्ष, निशानेबाज, कलाबाज क्षमता के उपयोग से इंकार करने के परिणाम स्वरूप ही किंचित यह जातियां अंग्रेजों द्वारा अपराधी घोषित कर दी गईं. कथित तौर पर अपराधी घोषित इन जातियों में मल्लाह, केवट, निषाद, बिन्द, धीवर, डलेराकहार, रायसिख, महातम, बंजारा, बाजीगर, सिकलीगर, नालबंध, सांसी, भेदकूट, छड़ा, भांतु, भाट, नट, पाल, गडरिया, बघेल, लोहार, डोम, बावरिया, राबरी, गंडीला, गाडियालोहार, जंगमजोगी, नाथ, बंगाली, अहेरिया, बहेलिया नायक, सपेला, सपेरा, पारधी, लोध, गुजर, सिंघिकाट, कुचबन्ध, गिहार, कंजड आदि सम्मिलित थीं. इनको अनेक प्रतिबंधों में रहना होता था. इन्हें किसी भी गाँव नगर में स्थायी बसने की अनुमति नहीं होती थी, सामान्य नागरिक अधिकारों से वंचित इन जातियों के बंधु न्याय व्यवस्था में अधिकार विहीन थे और कहीं भी अपनी शिकायत दर्ज नहीं का सकते थे. स्वतंत्रता के समय देश भर की इन जातियों के लगभग चार करोड़ बंधु स्वतंत्र नहीं कहलाए और इनकी यथास्थिति परतंत्रता की बनी रही. स्थितियों को ध्यान में रखते हुए 1952 अर्थात स्वतंत्रता के पांच वर्षों पश्चात एक बिल के माध्यम से इन जातियों को स्वतंत्र घोषित किया गया था.
आज भारत में इन भटकी, विमुक्त, घुमंतु जातियों की संख्या 15 करोड़ है. इनमें से कई जातियां लुप्त प्रायः हैं और समाप्त होने के कगार पर हैं. 15 करोड़ के इस बड़े जनसमूह का शासन व्यवस्था के तीनों अंगों में अल्पतम प्रतिनिधित्व है. आज भी इस देश में इन जातियों के लोग बेघर, बेठिकाना, अशिक्षित, विपन्न, निर्धन होकर शासन के आंकड़ों में दर्ज नहीं हैं और अनजान होकर अभिशप्त जीवन जी रहे हैं. अपनी कई क्षमताओं, जीवटता, छापामारी, कलाबाजियों और सिद्धहस्त होने के गुणों को अपना पेट पालने के लिए प्रयोग करने वाली यह जातियां अंग्रेजों के इस देश को लूटने के काम में सहयोग करने के आदेश को मानने से इंकार कर बैठी और अपराधी घोषित हो गईं. यदि इन जातियों ने उस समय अंग्रेजी शासन से सहयोग किया होता तो संभवतः इन जातियों के प्रमुख भी कहीं साहब, रायसाहब, सर, मनसबदार, जागीरदार आदि नामों से पुकारे जा रहे होते.
इनके स्वभाव के विषय में कहा जा सकता है कि इन जातियों के बंधु चाहें तो एक स्थान पर रहकर भी आजीविका कमा सकते हैं, किन्तु घुमक्कड़पन इनके स्वाभाव का स्थायी भाव है और ये एक स्थान से दूसरे स्थान पर चलते रहते हैं. मध्यप्रदेश में 51 जनजातियां विमुक्त, घुमक्कड़ एवं अर्द्ध घुमक्कड़ जातियों के रूप में चिन्हित कर मान्य की गई हैं. इन 51 जातियों में से 21 जातियों को विमुक्त जनजाति के रूप में मान्यता दी गई है. 30 जातियों को घुमक्कड़ घोषित किया गया है.
महाराष्ट्र में पिछले कुछ वर्षों से भटके विमुक्त विकास परिषद् नामक संस्था कार्य कर रही है, यह संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विभिन्न प्रकल्पों में से एक है. इसके कार्य को यमगरवाड़ी प्रोजेक्ट नाम दिया गया है. अशासकीय श्रेणी में कार्य कर रही इस संस्था ने इन जाति बंधुओं के मध्य अतुलनीय स्नेह, विश्वास, सम्मान व स्वीकार्यता प्राप्त कर ली है. उपेक्षित, विस्मृत, विपन्न, अशिक्षित श्रेणी की इन जातियों के बीच परिषद् ने अद्भुत विश्वास निर्मित कर दिया है. महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले के यमगरवाड़ी ग्राम में इस संस्था ने 38 एकड़ भूमि पर विद्या संकुल का निर्माण किया है. इस संकुल में चल रहे सेवा कार्यों के परिणाम स्वरूप इसे सामाजिक परिवर्तन का तीर्थ कहा जाने लगा है.
प्रवीण गुगनानी
विदेश मंत्रालय, भारत सरकार में राजभाषा सलाहकार