दयानन्द अवस्थी
प्रकृति ईश्वर का दिया गया सबसे अनमोल वरदान है. प्रकृति ही हमारे जीवन का मुख्य आधार है जो हमें प्राणवायु, जल, खाद्य एवं हमारी जिंदगी की सभी आवश्यकताओं को पूरा करती है. प्रकृति के बिना हमारे जीवन की कल्पना मुश्किल है. इसलिए हम सभी को प्रकृति के महत्व को समझना चाहिए एवं इसे बचाने के लिए प्रयास करने चाहिए.
वाल्मीकि रामायण की पाण्डुलिपियों में वर्णित है – मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव. जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥ (“मित्र, धन्य, धान्य आदि का संसार में बहुत अधिक सम्मान है. (किन्तु) माता और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है.”) जिस पृथ्वी पर हम निवास करते हैं, सम्पूर्ण सौर जगत में उसे ही यह सौभाग्य प्राप्त है कि पर्यावरण के सभी तत्वों की विद्यमानता के कारण यहाँ जीवन है, अन्यथा सौर जगत में अन्य ग्रहों पर जीवन के प्रमाण अभी तक उपलब्ध नहीं हैं. पर्यावरण के ये सभी तत्व एक-दूसरे पर प्रभाव डालते हैं और विकसित होते रहते हैं. सभी जीव जन्तु भी इसी “पर्यावरण” के अंग हैं और मानव तो इस पर्यावरण की सर्वश्रेष्ठ रचना है ही. प्रसिद्ध अमेरिकन विद्वान हर्सकोविट्स (Harskovits) के शब्दों में – पर्यावरण उन समस्त बाहरी दशाओं और प्रभावों का योग है जो प्रत्येक प्राणी के जीवन और विकास को प्रभावित करते है. चाणक्य ने भी कहा था कि – राज्य की स्थिरता पर्यावरण की स्वच्छता पर निर्भर करती है. औषधि विज्ञान के आदि गुरु चरक ने कहा था कि “स्वस्थ जीवन के लिए शुद्ध वायु, जल तथा मिट्टी आवश्यक कारक हैं.” महाकवि कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम’ तथा ‘मेघदूत’ जैसे अमर काव्यों में भी मन पर पर्यावरण के प्रभाव को दर्शाया है. लेकमार्क तथा डार्विन जैसे सुविख्यात वैज्ञानिकों ने भी पर्यावरण को जीवों के विकास में महत्वपूर्ण कारक माना है. महात्मा गांधी जी के पर्यावरण से जुडे कुछ प्रसिद्ध उद्धरणों में से एक है – पृथ्वी, सभी व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त है, किन्तु उनके लालच की पूर्ति के लिये नहीं. पृथ्वी, वायु, भूमि तथा जल हमारे पूर्वजों से प्राप्त सम्पत्तियाँ नहीं हैं. वे हमारे बच्चों की धरोहरें हैं. वे जैसी हमें मिली हैं, वैसी ही उन्हें भावी पीढ़ियों को सौंपना होगा. गांधी जी का दृष्टिकोण, पर्यावरण के प्रति व्यापक था. उन्होने देशवासियों से, तकनीकों के अन्धानुकरण के विरुद्ध, जागरूक होने का आवाहन किया था. उनका मानना था कि पश्चिम के जीवन स्तर की नकल करने से, पर्यावरण का संकट पनप सकता है, यदि विश्व के अन्य देश भी आधुनिक तकनीकों के मौजूदा स्वरूप को स्वीकार करेंगे तो पृथ्वी के संसाधन नष्ट हो जाएंगे. प्रमुख वैज्ञानिक ऐल्बर्ट आइन्स्टाइन Albert Einstein ने भी कहा है – Look deep into nature, and then you will understand everything better. (प्रकृति में गहराई से देखिये, और आप हर एक चीज बेहतर ढंग से समझ सकेंगे). रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी कहा है- “पेड़ पृथ्वी पर बोलने का और स्वर्ग को सुनने का अंतहीन प्रयास हैं”॰
हमारी वैदिक संस्कृति का प्रकृति से अटूट सम्बन्ध है. वैदिक संस्कृति का सम्पूर्ण क्रिया -कलाप प्राकृत से पूर्णतः आवद्ध है. वेदों में प्रकृति संरक्षण अर्थात पर्यावरण से सम्बंधित अनेक सूक्त हैं. वेदों में दो प्रकार के पर्यावरण को शुद्ध रखने पर बल दिया गया है – आन्तरिक एवं बाह्य. सभी स्थूल वस्तएं बाह्य एवं शरीर के अन्दर व्याप्त सूक्ष्म तत्व जैसे मन एवं आत्मा आन्तरिक पर्यावरण का हिस्सा हैं. आधुनिक पर्यावरण विज्ञान केवल बाह्य पर्यावरण शु्द्धि पर केन्द्रित है. वेदों में प्राकृति के प्रत्येक घटक को दिव्य स्वरूप प्रदान किया गया है. प्रथम वेद ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र ही अग्नि को समर्पित है – ऊँ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्. (ऋग्वेद 1.1.1) सत्येनोत्तभिता भूमिः सूर्येणोत्तभिता द्यौः. त्रृतेनादित्यास्तिठन्ति दिवि सोमो अधिश्रितः ऋग्वेद (10:85:1) भावार्थ – देवता भी ऋतं की ही उत्पति हैं एवं ऋतं के नियम से बंधे हुए हैं. यह सूर्य को आकाश में स्थित रखता है. इस प्रकार ऋग्वेद वनों को विनाश से बचाने का निर्देश देता है – वनानि नः प्रजहितानि (8:1:13). पद्म पुराण में तो एक वृक्ष को दस पुत्रों के समान माना गया है – दशपुत्रसमो दुरमः (1:44:455). तात्पर्य यह है कि अपने पुत्र के समान ही हमें वृक्षों की देखभाल करनी चाहिए. यजुर्वेद प्रार्थना करता है कि मैं पृथ्वी सम्पदा को हानि न पहुंचाऊं – पृथिवी मातर्मा हिंसी मा अहं त्वाम् (10:23). विश्व में प्रत्येक देश के आदिवासी प्रकृति पूजक हैं. “सरना” अपने आप में एक प्रकृति पूजन का माध्यम है. विभिन्न संस्कृतियों में आज भी वृक्षों की पूजा, खेत की पूजा, पहाड़, नदियों, वन आदि की पूजा की जा रही है. हिन्दू व्रत-त्योहारों में सूर्य, चंद्रमा को जल देना (अर्घ्य देना) नदियों में पूर्णिमा, अमावस्या व कुम्भ स्नान आदि प्रकृति पूजन के जीवंत उदाहरण हैं.
हाल ही में ब्रिटेन के चैरिटी कमीशन ने प्राकृतिक ताक़तों की पूजा करने वाले ‘ड्रूएड नेटवर्क’ को धार्मिक दर्जा दिया है. प्रकृति की पूजा करने वाले ‘ड्रूएड नेटवर्क’ के प्रयासों को सार्वजनिक हित में मानते हुए चैरिटी कमीशन ने उसे कल्याणकारी संस्थाओं में भी शामिल किया है. ईसाई धर्म के अस्तित्व में आने से हज़ारों साल पहले से ही ब्रिटेन में ड्रूएड समुदाय के लोग प्रकृति की पूजा करते आ रहे हैं.
धर्म और पर्यावरण में एक गहरा संबंध है तथा सभी धर्मों का दृष्टिकोण प्रकृति के प्रति सकारात्मक रहा है. उदाहरण के तौर पर बौद्ध धर्म का मत है कि सभी जीव-जंतुओं, वनस्पतियों व मनुष्यों का जीवन एक दूसरे से संबंधित हैं, इसलिये व्यक्ति को सभी जीवों का सम्मान करना चाहिये. बौद्ध धर्म ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ पर आधारित है अर्थात् मानव के व्यवहार का प्रभाव उसके पर्यावरण पर पड़ता है. इसी प्रकार बहाई धर्म का मानना है कि प्राकृतिक ऐश्वर्य और विविधता मानव जाति पर ईश्वर की कृपा है, अतः हमें इसकी रक्षा करनी चाहिये. कुरान में 6,000 से अधिक आयते हैं, जिनमें 500 से अधिक प्राकृतिक घटनाओं से संबंधित हैं. इन घटनाओं में अधिकतर पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा, पौधे, जल आदि की चर्चा की गई है. इस्लाम में जल के सीमित उपयोग पर ज़ोर दिया जाता है. इसाई धर्म का मत है कि सभी जीवों की रचना ईश्वर के प्रेम का रूप है तथा मानव को जैविक विविधता तथा ईश्वर के निर्माण को नष्ट करने का अधिकार नहीं है. जैन धर्म के अनुयायियों के लिये प्रकृति व इसके सभी जीव जंतुओं को समान माना गया है तथा इनका संरक्षण और इनके प्रति समान व्यवहार करना इस धर्म की मूल शिक्षा है. सिक्ख धर्म के पवित्र ग्रंथ ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ के अनुसार, सभी जीव-जंतु, वृक्ष, नदी, पर्वत, समुद्र आदि को ईश्वर का रूप माना गया है. यहूदी धर्म में हिब्रू बाइबिल तोराह (Torah) में प्रकृति के संरक्षण के लिये अनेक नैतिक बाध्यताएं दी गई हैं. तोराह के अनुसार, “जब ईश्वर ने आदम को बनाया, उसने उसे स्वर्ग के बगीचे दिखाए और कहा मेरे कार्यों को देखो, कितना सुंदर है ये, मैंने जो भी बनाया है वह सब तुम्हारे लिये है. तुम्हें इसकी रक्षा करनी है और यदि तुमने इसे नष्ट किया तो तुम्हारे बाद इसे ठीक करने वाला कोई नहीं होगा.”
वर्तमान में वन्य जीवन, वनों में कम हो रहा है. किन्तु वह शहरों में बढ़ रहा है. विकास का त्रुटिपूर्ण ढांचा, गांवों से शहरों की ओर पलायन को प्रोत्साहित करता है. ताज़ा कोविड कोरोना महामारी काल ने भी प्र्त्यक्ष दिखा दिया कि मानव जीवन यदि प्रकृति से अधिक छेड़ छाड़ न करे तो आबो-हवा कितनी शुद्ध हो सकती है, यहाँ तक कि ओज़ोन की परत पर भी सकारात्मक प्रभाव परिलक्षित होते हैं, सुदूर स्थित हिमालय पर्वत भी पास दिखाई देने लगता है.
इस सब का आशय यह कि प्रकृति हमें सेती है, हमें पालती है, हमारी जननी है, उसके सम्मान के प्रति यदि हम उसकी वंदना नियमित करें और उस पावन शक्ति की आराधना हमारे जीवन दर्शन में व्याप्त हो तो हम उसे नुकसान पहुंचाने से पहले हजार बार सोंचेंगे. इसी अवधारणा को हिन्दू आध्यात्मिक एवं सेवा फाउंडेशन (एचएसएसएफ) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पर्यावरण संरक्षण गतिविधि के अंतर्गत अखिल भारतीय स्तर पर आगामी 30 अगस्त, रविवार प्रात: 10 से 11 बजे प्रकृति वंदना का कार्यक्रम रखा गया है, जिसे सभी अपने अपने घरों में उपलब्ध वृक्ष या गमले के पौधों की पूजा-अर्चना, रोली चन्दन, आरती और रक्षासूत्र बंधन आदि उपायों से करने का निर्णय लिया है. साथ ही इसी दौरान दस मिनट के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी के संबोधन को फेसबुक के माध्यम से ऑनलाइन प्रसारित किया जाएगा. www.fb.com/rss.paryavaransanrakshan/live
इस हेतु विभिन्न संस्थाओं द्वारा घर पर प्रकृति वंदन करने के लिए गूगल लिंक
(sankalp.paryavaransanrakshan.org) पर पंजीकरण करने का अनुरोध किया गया है. ‘प्रकृति वंदन’ के बाद प्रमाण पत्र के लिए sankalp.paryavaransanrakshan.org पर आवेदन करने पर पर्यावरण संरक्षण गतिविधि के अंतर्गत हरितघर आयाम में पाँच सितारा घर बनाने की दिशा में उठाए गए कदमों में ‘एक सितारा’ प्रमाण पत्र प्राप्त किया जा सकता है. अंत में अंतर्जाल पर उपलब्ध एक कविता के अनुसार –
आओ चलो आज एक नई प्रार्थना करते हैं…
धैर्य, त्याग, अनुशासन और समर्पण से….
अपने संस्कारों को सीचते हैं…
लोभ, मोह, स्वार्थ और द्वेष को छोड़ते हैं…
चलो हम प्रकृति से कुछ सीखते हैं…
आओ चलो आज एक नई प्रार्थना करते हैं…प्रकृति वंदन करते हैं.