पटना (विसंकें). कभी अपने कालीन और वस्त्रों के लिए चर्चित रहने वाले बिहार में फिर से कालीन उद्योग ने करवट बदली है. बिहार का कालीन उद्योग पुनर्जीवित होने लगा है. बक्सर के राजपुर प्रखंड स्थित मगराँव के कालीन उद्योग की पहचान अब दूर-दूर तक होने लगी है. उत्तर-प्रदेश के भदोही के प्रसिद्ध कालीन उद्योग में कार्यरत गांव के दर्जनों युवक वापस अपने गांव लौटें है तो कालीन उद्योग को आकार देने में जुट गए हैं. इन सब युवकों का केन्द्र बिन्दु मगरांव का ही प्रफुल्लचंद गुप्ता बने हैं.
मगरांव में कालीन उद्योग की शुरूआत चार वर्ष पूर्व हुई. प्रफुल्लचंद गुप्ता मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद भेदोही के कालीन उद्योग में काम कर रहा था. कुछ वर्षों तक काम करने के बाद उन्हें लगा कि क्यों न इस शिल्प को अपने गांव में शुरू किया जाए. वहां के स्थानीय कारीगरों और दुकानदारों से संबंध स्थापित कर अपने गांव मगरांव में कालीन उद्योग प्रारंभ किया. प्रफुल्ल की प्रेरणा से अब तक 14 युवक अपने घर में कालीन का निर्माण कर रहे हैं.
एक सामान्य कालीन के निर्माण में अमूमन 15 दिन का समय लगता है. डिजाइनरों द्वारा बनाए गए नक्शे पर मजदूर इसे बनाते हैं. यह एक प्रकार के सूती रेशम से तैयार किया जाता है. कालीन की कीमत उसकी कलाकारी के आधार पर तय होती है. इस गृह उद्योग को शुरू करने में 1 से 1.50 लाख तक की राशि का खर्च आता है. सरकार द्वारा कोई सुविधा या बाजार उपलब्ध नहीं कराए जाने से परेशानी तो हो रही है, लेकिन अपनी हिम्मत से इन लोगों ने रास्ता भी निकाल लिया है. प्रफुल्लचंद सहित सभी उद्यमी मानते हैं कि अगर काम बेहतर हो तो बाजार स्वयं मिल जाएगा. अब धीरे-धीरे इनके बनाए कालीन की मांग होने लगी है. हाथ से बने कालीन की काफी मांग होती है.
बिहार कभी अपने वस्त्र उद्योग को लेकर चर्चा में रहता था. बंगाल की तर्ज पर जहानाबाद का भी मलमल काफी प्रसिद्ध था. मेनचेस्टर का सूत उद्योग कहीं कमजोर न पड़ जाए, इसलिए ढाका के समान जहानाबाद के कारीगरों के भी अंगूठे काट लिये गये थे. अभी भी गया के मानपुर के बने सूती वस्त्रों की मांग खूब होती है. मानपुर वस्त्र उद्योग से जुड़े लोगों ने तो आईआईटी में प्रवेश करने का देश में मॉडल ही स्थापित कर दिया. इसी प्रकार औरंगाबाद के कालीन की धूम पूरे विश्व में थी. राष्ट्रपति भवन की शोभा बिहार के औरंगाबाद स्थित ओबरा का कालीन बढ़ाता था. कभी इंग्लैंड की महारानी भी अपने राजमहल के लिए ओबरा से कालीन मंगवाती थी, लेकिन कालक्रम में यह परिस्थितियां बदल गईं. यहां का कालीन उद्योग समाप्त होने लगा.
यहां के बुनकर अली मियां की कार्यकुशलता व दक्षता के लिए उन्हें 1972 में राष्ट्रपति सम्मान भी प्रदान किया गया था. 1974 में भारत सरकार के उद्योग मंत्रालय ने यहां प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना की. वर्ष 1986 में तत्कालीन जिला पदाधिकारी के मार्गदर्शन में असंगठित कालीन बुनकरों को एक साथ संगठित कर 5 मार्च, 1986 को महफिल-ए-कालीन बुनकर सहयोग समिति का निबंधन किया गया. इसी वर्ष डीआरडीए के आधारभूत संरचना कोष से प्राप्त 7 लाख रूपये से संस्था का भवन भी तैयार कराया गया. पटना में भी 66 वर्ष के लिए लीज डीड पर शो-रूम की बात चली ताकि इस उद्योग को बाजार उपलब्ध हो सके. लेकिन, आजतक उसका विधिवत उद्घाटन नहीं हो सका. भारत में हस्तनिर्मित कालीन निर्माण के क्षेत्र में भदोही के बाद ओबरा ही देश का दूसरा सबसे बड़ा कालीन उद्योग था. कभी यहां 200 लूम संचालित होते थे. लेकिन, अब लूम चलाने वाले कारीगरों के सामने रोजी-रोटी के लाले पड़े हैं. ऐसे समय में जब बक्सर के नौजवान प्रफुल्लचंद गुप्ता ने बीड़ा उठाया है तो बिहार के कालीन उद्यमियों के बीच आशा का संचार हुआ है.