जब हमने लोक आस्था के पर्व छठ पर लोगों के विचार एकत्रित करना शुरू किया, तो एक रोचक प्रश्न से सामना हुआ. प्रश्न यह कि छठ पूजा बिहार में ही क्यों? इस प्रश्न ने पर्व के उद्गम व इसकी विकास यात्रा के बारे में जानने की प्रेरणा दी. इससे सम्बंधित कई प्राचीन कथाएं भी हैं. लेकिन, सबसे अधिक प्रामाणिक लगा सूर्य विज्ञान की भारतीय परम्परा से जुड़ाव. दरअसल, सूर्य विज्ञान का प्राचीन केंद्र बिहार ही था.
अपनी क्षमता के अनुसार प्रश्न का उत्तर ढूंढने के क्रम में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पोथियों के विस्तृत विवरणी ने हमारी सहायता की. उस विवरणी ने जो सूत्र दिया उसके आधार पर हमने जो पाया वह इस प्रकार है…
सूर्य विज्ञान के पर्व छठ का दस्तावेजी संदर्भ
राष्ट्रभाषा परिषद के अधिकारी के तौर पर शिवपूजन सहाय ने पं. रामनारायण शास्त्री को बिहार के विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्ध हस्तलिखित पोथियों को एकत्रित करने के काम में लगाया था. पटना जिले के एक गांव भरतपुरा में उन्हें एक निःसंतान वृद्ध ब्राह्मण के घर से सूर्यसिद्धांत भाष्य नामक हस्तलिखित पुस्तक मिली थी. उस पुस्तक में सूर्य की शक्ति के मानव कल्याण में प्रयोग की पद्धति का वर्णन है. उस पुस्तक में वाराहमिहिर और उनके आचार्य के रूप में आर्यभट्ट का संदर्भ मिलता है.
इतिहासकारों का मानना है कि मगध की राजधानी में बहुत दिनों तक निवास करने वाले वाराहमिहिर शिप्रा नदी के तट पर स्थित कपित्थ नामक स्थान के रहने वाले थे. उस प्रचीन स्थान का अपभ्रंश कायथा है. यह स्थान भारतीय ज्ञान परम्परा के प्रमुख केंद्र उज्जैन के बहुत निकट स्थित है. वाराहमिहिर के पिता का नाम आदित्यदास जो सूर्य देव के भक्त थे, साथ ही वे सूर्यसिद्धांत के आधिकारिक विद्वान भी थे. उनके परिवार में ज्योतिष विज्ञान के अध्ययन और शोध की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही थी. सूर्य सिद्धांत और ज्योतिष विद्या वाराहमिहिर को अपने परिवार से परम्परा रूप में प्राप्त थी. ज्ञान साधना की उस परम्परा को विस्तार देने के लिए वाराहमिहिर पाटलिपुत्र के एकांत क्षेत्र में निवास करने वाले उस समय के सबसे बड़े खगोल शास्त्री आर्यभट्ट के पास आ गए थे. उन्होंने मिहिर को ज्योतिष विद्या के साथ ही खगोल विद्या भी सिखाई.
आर्यभट्ट से मिला ज्ञान बना पंचसिद्धान्तिका का आधार
आर्यभट्ट से प्राप्त विद्या को अपनी पारिवारिक परम्परा से प्राप्त विद्या के साथ जोड़ते हुए वाराहमिहिर ने पंचसिद्धान्तिका की रचना की. जिसमें सबसे अयनांश प्रमुख है. अयनांश यानी सूर्य की रश्मि की उपयोगिता की दृष्टि से उपलब्धता के काल की गणना. वर्तमान समय में जो ज्योतिष शास्त्र उपलब्ध हैं, उसके अनुसार एक अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के करीब माना जाता है. इस अयनांश के माध्यम से ही चार दिवसीय षष्ठी व्रत के मूहुर्त की गणना की गयी है. इस मुहूर्त की विशेषता है कि यह सूर्य के अस्तित्व तक निश्चित रहेगा. वाराहमिहिर ने वैसे तो कई ग्रंथों की रचना की, लेकिन उनमें तीन अति महत्वपूर्ण हैं. बृहज्जातक, बृहत्संहिता और पंचसिद्धांतिका. ये तीन ऐसे महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं जो आधुनिक विज्ञान को भी दृष्टि देने में सक्षम हैं. पंचसिद्धांतिका में वाराहमिहिर ने प्राचीन काल से भारत में प्रचलित पांच सिद्धांतों का अपने युग के अनुसार वर्णन किया है. पोलिशसिद्धांत, रोमकसिद्धांत, वसिष्ठसिद्धांत, सूर्यसिद्धांत तथा पितामहसिद्धांत नाम से ज्ञात इन पंचसिद्धांतों का प्रयोग कर वाराहमिहिर ने वास्तुविद्या, भवन-निर्माण-कला, वायुमंडल प्रकृति, वृक्षायुर्वेद जैसे जनकल्याणकारी विषयों के माध्यम से मानव के समक्ष आने वाली समस्याओं का समाधान दिया था.
वाराहमिहिर ने पर्यावरण विज्ञान, जल विज्ञान, भूविज्ञान जैसे गूढ़ विषयों को लोक में व्यवप्त कराने के लिए तीन अवसरों को सबसे उपयुक्त बताया है. उसमें सबसे पहले वसंत ऋतु के प्रथम माह यानी चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि, फिर वर्षा ऋतु के दूसरे मास यानी भाद्रपद की षष्ठी तिथि और फिर इसके बाद तीसरा अवसर शरद ऋतु के दूसरे मास यानी कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को बताया गया. इसमें कार्तिक मास का छठ व्रत अधिक प्रसिद्ध है. चैत्र मास का छठ थोड़ा कम प्रसिद्ध है, वहीं भादो के छठ के बारे में शायद ही कोई जानता होगा.
विश्व को पहली बार त्रिकोणमितीय सूत्र देने वाले वाराहमिहिर ने सूर्य षष्ठी को लेकर यंत्र और मुद्रा विधान का भी उल्लेख किया है जो परम्परा के तहत बिहार के कुछ क्षेत्रों में आज भी विद्यमान है. वाराहमिहिर के सूर्यसिद्धांत भाष्य में यह वर्णन आता है कि सूर्य के माध्यम से स्वास्थ्य की रक्षा की कामना करने वालों को अस्ताचलगामी सूर्य के साथ चंद्र देव को भी दुग्ध मिश्रित जल से अर्ध्य देना चाहिए. सूर्य परमब्रह्म् के नेत्र हैं, जिनके माध्यम से उनकी शक्ति जगत में प्रसारित होती है, वहीं चंद्रमा उस परमब्रह्म का मन है. सूर्य द्वारा प्रसारित परमात्मा की ऊर्जा का उपयोग परमात्म के मन के संघनन से होता है. इसीलिए सूर्य षष्ठी अनुष्ठान के दूसरे दिन यानि पंचमी तिथि को खरना के पूर्व या बाद में चंद्रमा को अर्ध्य अर्पित करने की परम्परा है.
वृहत् संहिता में वर्णित ‘आपो ज्योति’ की महत्ता
वाराहमिहिर की वृहत् संहिता में वर्णन है कि सूर्य की विविध ज्योतियों में से एक आपो ज्योति उनके अस्ताचलगामी होने के बाद यानी निशा काल में चंद्रमा के सान्निध्य में जागृत अवस्था में होती है. वही आपो ज्योति प्रकृति को रस और ओज प्रदान करती है. प्रकृति के माध्यम से पंच भौतिक शरीर वाले जीव-जंतु और पादप, स्थावर जंगम सभी रसवान और ओजवान होते हैं. वाराहमिहिर के इस सिद्धांत पर आधारित छठ पर्व के कई अनुष्ठान हैं, जिसके बारे में चर्चा नहीं होती या होती है तो उसे महज एक रस्म मानकर कर दिया जाता है.
परंपराओं और विधानों का असल आध्यात्मिक अर्थ
सूर्य षष्ठी व्रत यदि पूर्ण विधान से किया जाए तो व्रत करने वालों को नदी, तालाब, कुंड, चंवर, आहर, पइन जैसे जल स्रोतों के समक्ष अस्ताचलगामी सूर्य के अर्ध्य के बाद वहीं रात्रि विश्राम करना चाहिए. रात्रि काल में प्रकृति देवी के छठे अंश यानी षष्ठी देवी की कोसी पूजन यानी गन्ना के कोनदार मंडप में अपनी दृष्टि को ऊपर आकाश की ओर करते हुए ध्यान करने की परम्परा है. इस अनुष्ठान का यह प्रयोग अष्टांग योग के प्रथम तीन चरण यानी यम, नियम और धारणा का लोक आचरण जैसा है. क्योंकि यह लोकपर्व है, अतः इसमें लोक परम्परा या कल्पना का भी समावेश हो गया है. इतना ही नहीं बिहार में कई स्थानों पर जलस्रोतों के समक्ष श्रीसोप्ता बनाकर छठ के अवसर पर सूर्य देव के पूजन की परम्परा है. यह गूढ़ सूर्य विज्ञान का एक लोक विज्ञान में रूपांतरण माना जा सकता है.
सूर्योपासना का लोकपर्व छठ विज्ञान से युक्त है. लोक परम्परा के साथ ही इसके विज्ञान की भी चर्चा हम अवश्य करें.
ओम सूर्याय नमः
अमित दुबे