प्रवासी कामगारों में एक साजिश के तहत हाइप क्रिएट कर दिया गया
डॉ. शुचि चौहान
#ChineseVirus अब तक पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले चुका है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस महामारी से अब तक चीन से भी अधिक लोग इटली में अपनी जान गंवा चुके हैं. जिस समय इटली में पहला केस सामने आया था, उसके अगले दिन यानि 31 जनवरी को भारत में पहले संक्रमित मरीज का पता चला. दुनिया में बीमारी की संक्रामकता, आक्रामकता व भारत के संसाधनों एवं जनसंख्या घनत्व को देखते हुए भारत सरकार समय रहते सचेत हो गई. 22 मार्च को लोगों को बीमारी की भयावहता से जागरूक करने के लिए प्रधानमंत्री ने जनता कर्फ्यू का आह्वान किया और 24 मार्च को संक्रमण की गति पर अंकुश लगाने के लिए लॉकडाउन की घोषणा कर दी. लोगों को परेशानी न हो इसके लिए राशन, दूध, सब्जी, गैस सिलिंडर आदि आवश्यक चीजों की निर्बाध आपूर्ति की व्यवस्था की गई. 26 मार्च को वित्तमंत्री ने लॉकडाउन से प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित गरीब और दिहाड़ी मजदूरों के साथ-साथ ग्रामीणों के लिए 1.7 लाख करोड़ के राहत पैकेज की घोषणा की. इसके अलावा कंस्ट्रक्शन से जुड़े 3.5 करोड़ मजदूरों के लिए फंड का सदुपयोग करने लिए राज्य सरकारों को निर्देश दिए.
इस बीच भारत ने अनेक देशों में फंसे अपने नागरिकों को भी भारत लाने की व्यवस्था की. देश भर में अनेक आइसोलेशन सेंटर बनाए गए. यही कारण थे, कि भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में इटली जैसे कम जनसंख्या व अधिक संसाधनों वाले देश की तुलना में संक्रमण कम फैला. इटली में संक्रमितों का आंकड़ा 98 हजार छूने वाला है, जबकि भारत में यह संख्या 1 हजार 71 (30 मार्च तक) है. वहीं इटली में अब तक संक्रमण के चलते 10 हजार से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हैं, वहीं भारत में यह संख्या 29 (सोमवार तक) है.
हम जानते हैं, भारत में एक वर्ग विशेष है जिसे भारत की मजबूती और विकट परिस्थितियों में भी हिम्मत से डटे रहना रास नहीं आता. वह हर जगह, बिना मौका चूके गरीबी – अमीरी, ब्राह्मण – दलित, वर्ण व्यवस्था जैसे एंगल ढूंढ ही लेता है. इन्हें एक बार फिर तब वह मौका मिल गया जब कुछ लोग लॉकडाउन की स्थिति में पैदल ही अपने घर की ओर चल पड़े. ये लोग दूसरे राज्यों में जीविका के लिए आए हुए थे, जिनमें फैक्ट्रियों, भट्टों पर काम करने वाले मजदूर, ठेला, रेहड़ी लगाने वाले कामगार, पान, चाय की थड़ी व ढाबा चलाने वाले लोग तक शामिल थे. कुछ राज्यों में एक साजिश या कहें षड्यंत्र के तहत हाइप क्रिएट कर दिया गया.
सैन्य ठिकाने पर आतंकी हमले के समय अपनी रिपोर्टिंग से आतंकियों को भागने का सुरक्षित रास्ता बताने वालीं बरखा दत्त पैदल जाने वालों की स्टोरी करने लगीं, ट्वीट होने लगे. अपने-अपने हिसाब से बुद्धिजीवी और मीडिया सक्रिय हो गए.
बीबीसी हिंदी के पोर्टल पर राजेश प्रियदर्शी का एक लेख आया ‘कोरोना वायरस के संक्रमण के आइने में दिखती वर्ण व्यवस्था की छाया’. उन्होंने लिखा – ‘कोरोना ने एक बार फिर दिखाया है कि सरकार-समाज के निर्णयों-प्रतिक्रियाओं में वर्ण व्यवस्था की एक गहरी छाया है’. उनकी नजर में जो लोग पैदल जा रहे थे, वे वर्ण व्यवस्था के तहत जातिगत भेदभाव के शिकार थे, ज्यादातर पिछड़ी जातियों के थे.
बीबीसी पोर्टल पर ही एक अन्य लेख आया ‘क्या इसी भरोसे भारत कोरोना का मुकाबला कर पाएगा’. लेख में तारेंद्र किशोर यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि भारत असहिष्णु है क्योंकि कहीं कहीं यह सुनने में आया था कि कुछ लोग चिकित्साकर्मियों से मकान खाली करवा रहे हैं. वे लिखते हैं कि पिछले कुछ अरसे से समाज में अविश्वास और नफरत का माहौल बना है. हम संकट की घड़ी में वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा अपनी वास्तविक ज़िंदगी में होते हैं. अगर हम मददगार और सहिष्णु हैं तो फिर संकट की घड़ी में भी हमारा यह गुण नहीं जाता है. लेकिन अगर हम निजी जीवन में संदेह और निषेध करने वाले लोग हैं तो फिर संकट की घड़ी में हमसे जो अलग होगा, उसके प्रति असहिष्णु रहेंगे. इटली में ऐसे मौके पर लोगों ने सहिष्णुता दिखाई और भारत के लोग असहिष्णु हैं.
द प्रिंट की पत्रकार ट्वीट करती हैं ‘मेरी उम्र के लोग धार्मिक विभाजन के समय पैदा नहीं हुए थे, लेकिन हम आर्थिक विभाजन की भयावह तस्वीरें जरूर देख पा रहे हैं.’
प्रवासी पलायन सबसे ज्यादा दिल्ली में देखने को मिला. सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो आए, जिनमें रात में प्रशासन द्वारा एनाउंसमेंट किया जा रहा था कि आनंद विहार के लिए बसें जा रही हैं, वहां से यूपी, बिहार के लिए दूसरी बसें मिलेंगी. लोगों को दिल्ली और आसपास के इलाकों से रात में ला लाकर आनंद विहार यूपी बॉर्डर पर छोड़ दिया गया, जिससे अफरा तफरी मच गई. अगले दिन आप के सोशल मीडिया एक्टिविस्ट अंकित लाल ने गाजियाबाद के पास से पलायन की लाइव स्ट्रीमिंग की. सोचने वाली बात है ऐसा किसके कहने से किया होगा. ये केवल दो-चार लोग नहीं है, इनकी जमात लंबी है.
ये वे लोग हैं जो कहते हैं धर्म अफीम है. लेकिन इन्हें गरीबों, दलितों, वंचितों के हकों के नाम पर समाज को तोड़ने का नशा होता है. यह वह वर्ग है, जिसने देश को विभाजित करने के नैरेटिव पर सबसे ज्यादा इन्वेस्टमेंट किया है. समाज में विभाजन और संघर्ष इनकी कथानक की मुख्य खुराक हैं. ये ही चित हैं और ये ही पट हैं यानि सिक्के के दोनों पहलू ये ही हैं. ये पहले लोगों को भड़काकर अराजकता फैलाते हैं, फिर ऐसा दिखाते हैं जैसे उन्हीं की लड़ाई लड़ रहे हैं.
भारत चीनी वायरस से फैली महामारी से लड़ रहा है, जीत भी जाएगा. लेकिन असली चुनौती तो ये लोग हैं जो खाते देश का हैं और गाते किसी और की हैं.
डॉ. शुचि चौहान