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मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन का विवेचनात्मक अध्ययन स्थापित मिथकों को ध्वस्त करता है

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बलबीर पुंज

हिन्दू मान्यता के अनुसार, जिस समय माता लक्ष्मी जी का प्राकट्य हुआ था, उसी तिथि को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भी अयोध्या लौटे थे. इसलिए दीपावली पर दुनियाभर में दीपक प्रज्वलित कर मां लक्ष्मी की पूजा करते हैं, ताकि उनकी कृपा बनी रहे. यह पहली बार है, जब लगभग 500 वर्ष के संघर्ष के बाद रामलला अपने भव्य मंदिर में दीपावली मना रहे हैं. करोड़ों आस्थावान हिन्दुओं के लिए श्रीराम, भगवान विष्णु के सातवें अवतार के साथ राष्ट्रपुरुष के रूप में भी स्थापित हैं. उनका पूरा जीवन ही भारतीय जीवन मूल्यों का मापदंड है. इसलिए जहां सत्कार योग्य गुरु ग्रंथ साहिब जी में हरि व अन्य आराध्यों के साथ प्रभु श्रीराम के नाम का उल्लेख ढाई हजार से अधिक बार है, वहीं गांधी का सच्चा लोकतंत्र, सुराज और सुशासन मुखर तौर पर रामराज्य से प्रेरित रहा. स्वामी विवेकानंद जी भी राम-सीता को भारतीय राष्ट्र का आदर्श मानते थे. यह स्वभाविक इसलिए भी है, क्योंकि रामकथा उन सभी जीवन मूल्यों का मिश्रण है, जो मानव, समाज और विश्व को सुखी और संतुष्टमयी रहने का रास्ता दिखाता है.

श्रीराम सामाजिक समरसता का आइना हैं. अपने जीवन के सबसे पीड़ादायक दौर में श्रीराम ने सहयोगी और परामर्शदाता वनवासियों को ही बनाया, जिसमें केवट निषाद, कोल, भील, किरात और भालू शामिल रहे. अगर श्रीराम चाहते, तो अयोध्या या जनकपुर से सहायता ले सकते थे. लेकिन उनके साथी वे लोग बने, जिन्हें आज आदिवासी, दलित, पिछड़ा या अति-पिछड़ा कहा जाता है. इन सभी को श्रीराम ने ‘सखा’ कहकर संबोधित किया, तो वनवासी हनुमान को लक्ष्मण से अधिक प्रिय बताया है.

“सुनु कपि जिय मानसि जनि ऊना. तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना॥” हनुमान जी न केवल राम दरबार के प्रमुख हैं, साथ ही देश में उनके मंदिर श्रीराम से कहीं अधिक हैं.

भील समुदाय की शबरी माता का पिछड़ापन दोहरा है, क्योंकि वे गैर कुलीन वर्ग की स्त्री हैं. श्रीराम शबरी के झूठे बेर सप्रेम ग्रहण करते हैं. राम को देखकर जब शबरी अपनी स्थिति व्यक्त करती हैं, तब रघुनाथ कहते हैं – कह रघुपति सुनू भामिनी बाता. मानाउँ एक भागति कर नाता.. जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई. धनबल परिजन गुन चतुराई.. भगति हीन नर सोइह कैसा. बिनु जल बारिद देखिअ जैसा…

भावार्थ – मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूं. जाति, पाति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता- इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल. मां सीता की रक्षा में अपने प्राणों की बाजी लगाने वाले मांसाहारी गिद्धराज जटायु, जो वर्तमान में एक निकृष्ट पक्षी है – उन्हें श्रीराम कर्मों से देखते हैं और एक पितातुल्य बोध के साथ उसका अंतिम-संस्कार करते हैं. यह सूचक है कि श्रीराम के लिए केवल कर्म की प्रधानता है, शेष निरर्थक.

रावण कौन था? वह पुलस्त्य कुल में जन्मा ब्राह्मण, प्रकांड पंडित, सर्वशक्तिशाली, महान शिवभक्त, सोने की लंका का स्वामी था. परंतु वह आचरण से दुष्ट, कामुक और भ्रष्ट था. इसलिए हनुमान जी ने अधर्म के प्रतीक लंका का दहन, तो श्रीराम ने रावण का वध किया. इससे यह रेखांकित होता है कि आध्यात्मिक मूल्यों और सामाजिक व्यवस्था की रक्षा हेतु सभ्य समाज को पद-कद-वर्ग आदि की चिंता किए बिना इन जीवनमूल्यों के शत्रुओं को दंडित करना चाहिए. यदि वर्तमान हालात में इस मूल्य को पुनर्स्थापित किया जाए, तो हम स्वस्थ समाज की रचना कर सकते हैं.

बालि संहार के पश्चात श्रीराम, सुग्रीव को किष्किन्धा का राजपाट सौंपते हैं, तो बालिपुत्र अंगद को इसका उत्तराधिकारी घोषित करते हैं. जब लंका में श्रीराम विजयी होते हैं, तब वे न केवल लक्ष्मण को विभीषण के राजतिलक का आदेश देते हैं, बल्कि विभीषण के घर की सभी महिलाओं को सांत्वना देने का अनुरोध भी करते हैं. राम शक्तिशाली और धर्मानुरागी होने के कारण समाज के अपराधी को तो दंडित करते हैं, लेकिन पराजितों के धन-संपदा राज्य आदि से मोह नहीं रखते. यदि युद्धभूमि में इन मूल्यों का पालन किया जाता, तो विश्व का भूगोल और इतिहास कुछ और होता.

एक मनुष्य को प्रत्येक स्थिति में कैसा आचरण करना चाहिए, उसके लिए भी श्रीराम आदर्श हैं. पिनाक (शिवधनुष) टूटने पर जब लक्ष्मण के तानों से महान शिवभक्त परशुराम जी क्रुद्ध हो उठते हैं और दोनों के बीच भीषण टकराव की संभावना बन जाती है, तब श्रीराम अपने विनम्र व्यवहार और मधुर-वाणी से स्थिति को संभालते हैं और क्रोधित परशुराम जी शांत होकर हिमालय चले जाते हैं. सफलता के शिखर पर पहुंचकर भी एक व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिए, उसका श्रीराम प्रतिरूप हैं.

एक शत्रु के प्रति हमारा रवैया कैसा होना चाहिए? जब विभीषण अपने भाई रावण के किए पर शर्मिंदा होकर उसके देह का अंतिम संस्कार करने में संकोच करते हैं, तब श्रीराम कहते हैं, – “मरणान्तानि वैराणि निर्वृत्तं न: प्रयोजनम्. क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव..” अर्थात् – वैर जीवन काल तक ही रहता है. मरने के बाद उस वैर का अंत हो जाता है. श्रीराम सदैव मर्यादा की परिधि में रहे, इसलिए वे मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए. राजधर्म की कीमत होती है, जिसे उन्होंने चुकाया भी. जब वे अयोध्या नरेश बने, तब उनके लिए प्रजा सर्वोपरि और शेष निज-संबंध गौण हो गए.

भारतीय वांग्मयों की मार्क्स-मैकॉले मानसपुत्रों ने अपने कुटिल एजेंडे के अनुरूप गोस्वामी तुलसीदास जी कृत रामायण की चौपाई: “ढोल गंवार सूद्र पसु नारी. सकल ताड़ना के अधिकारी” की शरारतपूर्ण विवेचना की है. श्रीरामचरितमानस को तुलसीदास जी ने अपने शब्दों में पिरोया है. इसमें विभिन्न पात्रों की बातचीत भी है. उसमें शब्द ना ही श्रीराम के हैं और ना ही रामायण के ऐसे चरित्र के, जिन्हें हिन्दू आराध्य मानते हों. सच तो यह है कि श्रीरामचरितमानस में अन्य नारियों के साथ माता शबरी, केवट, निषादराज और गिद्धराज जटायु को जिस श्रेष्ठ भाव से चित्रित किया गया है, वह भारतीय समाज के सभी वर्गों को जोड़ने और सम्मान देने वाला है.

परंतु, मार्क्स-मैकॉले समूह का उद्देश्य समाज से किसी कुरीति को मिटाना नहीं, बल्कि उनका अपने एजेंडे के लिए प्रयोग करके ‘असंतोष’ का निर्माण करना है. श्रीराम का जन्म किसी वंचित की हत्या करने हेतु नहीं हुआ. उनका अवतार रावण रूपी अन्याय, दुराचार और घमंड को समाप्त करने हेतु था. श्रीराम की जीवनयात्रा का ईमानदार विवेचनात्मक अध्ययन, बहुत से स्थापित मिथकों को ध्वस्त करता है.

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