काशी. रुद्राक्ष सभागार में आयोजित तीन दिवसीय संस्कृति संसद के समापन सत्र में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया गया कि भविष्य में कैलाश से कन्याकुमारी तक का भारत हमारा होगा और उसे चीन से मुक्त कराएंगे. इसी क्रम में समान नागरिक संहिता, जनसंख्या नियंत्रण, अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक भेद के समापन, पूजा-स्थलों को प्राचीन मूल स्थिति में करने, फिल्मों में मान्यता एवं विश्वास विरोधी प्रस्तुति रोकने सम्बंधी कानून बनाने, चीनी वस्तुओं का बहिष्कार एवं स्वदेशी अपनाने, गंगा को अविरल एवं निर्मल बनाए रखने, पर्यावरण की रक्षा के लिए पौधारोपण एवं सनातन संस्कृति के अनुसार जीवन जीने सम्बंधी प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकार हुए. ये प्रस्ताव गंगा महासभा के संरक्षक एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य इंद्रेश कुमार जी द्वारा प्रस्तुत किए गए.
समापन सत्र के अध्यक्ष एवं जगद्गुरु रामानन्दाचार्य रामराजेश्वाराचार्य ने कहा कि काशी सनातन संस्कृति का केन्द्र है और हमारी संस्कृति की रक्षक है. यहां आयोजित संस्कृति संसद की चर्चा महत्वपूर्ण रही और जब तक ‘ओम’ का प्रवाह जारी है, तब तक हिन्दू संस्कृति का प्रवाह जारी रहेगा. हमें निजी जीवन में हिन्दू मान्यता एवं संस्कृति का पालन करना चाहिए. यही इस आयोजन का संदेश है. सत्र का संचालन गंगा महासभा और अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय महामंत्री स्वामी जितेन्द्रानन्द सरस्वती जी ने किया.
प्रथम सत्र : हिन्दू संस्कृति पर प्रहार करने वाली फिल्मों का करें बहिष्कार
सुप्रसिद्ध अभिनेता गजेंद्र चौहान ने कहा कि हिन्दू धर्म एवं संस्कृति को हानि पहुंचाने के लिए बनाई जा रही फिल्में एक योजना का भाग हैं. इन फिल्मों का बहिष्कार करके हमें अपना विरोध जताना होगा तथा फिल्मों पर आर्थिक चोट पहुंचानी होगी. वे ‘कला-संस्कृति के आवरण में परोसी जा रही विकृति’ विषयक सत्र में संबोधित कर रहे थे.
उन्होंने कहा कि जैसे फिल्मों में ब्राह्मण को नौकर तथा राजपूतों को हमेशा शराबी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. यह भारतीय संस्कृति को विकृत करने का प्रयास है. हमें ऐसी फिल्मों को नकारना है. जो पैसे हम हिन्दू संस्कृति विरोधी फिल्मों को देखने में बर्बाद कर रहे हैं, वह अन्य समाजोपयोगी कार्य में लगा सकते हैं.
प्रसिद्ध ठुमरी गायिका मालिनी अवस्थी ने लोकगीतों की विकृति पर चर्चा करते हुए कहा कि फिल्म जगत जिस अश्लीलता का उपयोग कर रहा है, वह केवल पैसा कमाने का माध्यम है. वह लोकगीतों को केवल एक व्यापार के तौर पर प्रस्तुत कर रहे हैं. आज की फिल्मों में आइटम सॉन्ग यानि उत्पाद के रूप में गानों को प्रस्तुत किया जा रहा है, जो हमारी संस्कृति के लिए ठीक नहीं है. जिस प्रकार अन्य देश अपने राष्ट्र की तुलना किसी और से नहीं करते हैं, उसी प्रकार हमें भी अपने देश की तुलना किसी से नहीं करनी चाहिए. हमारी संस्कृति खुद में ही संपूर्ण है. उन्होंने कहा कि अभिव्यक्ति का मतलब विकृति बिल्कुल भी नहीं है. उन्होंने भोजपुरी फिल्मी गानों में परोसी जा रही अश्लीलता की निंदा करते हुए कहा कि उसका युवा पीढ़ी पर बुरा प्रभाव पड़ रह है, इसे रोका जाना चाहिए.
फिल्म निर्देशक दिलीप सूद ने कहा कि यदि हमें अश्लील एवं हिन्दू संस्कृति विरोधी फिल्मों का विरोध करना है तो सबसे पहले हमें युवाओं को शिक्षित करना होगा तथा उन्हें संस्कृति व धर्म के बारे में जानकारी देनी होगी. यह इसलिए कि हमारे देश की ज्यादातर आबादी युवाओं की है. यदि युवा ही अपनी संस्कृति से अनजान रहेंगे तो हमारे धर्म एवं संस्कृति पर प्रहार होता रहेगा. जिस प्रकार अन्य देश अपनी फिल्मों में अपनी संस्कृति को दिखाना नहीं भूलते हैं, उसी प्रकार हमें भी अपने देश की फिल्मों में अपनी संस्कृति को उजागर करना चाहिए. सत्र का संचालन डीडी न्यूज़ के संपादक अशोक श्रीवास्तव ने किया.
दूसरा सत्र : मंदिरों द्वारा कई सामाजिक एवं आर्थिक काम होते हैं
केरल के पद्मनाभ मंदिर के अध्यक्ष महाराज आदित्य वर्मा ने कहा कि मंदिरों द्वारा कई धर्मकार्य करने वाले ट्रस्टों में दान किए जाते हैं. मंदिरों द्वारा कई स्कूल, कॉलेज और हॉस्पिटल आदि का निर्माण एवं संचालन किया जाता है. इससे समाज में मंदिरों की उपयोगिता बढ़ जाती है. मंदिरों से समाज के कमजोर वर्ग को आर्थिक एवं सामाजिक रूप से सुदृढ़ बनाने का अवसर प्राप्त होता है. ‘मंदिर सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक गतिविधि के केंद्र कैसे बनें?’ विषयक दूसरे सत्र में बोल रहे थे.
लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के पूर्व कुलपति प्रो. आर.के. पांडे ने कहा कि भारत की संस्कृति जहां तक फैली हुई है, भारत वहां तक है. हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित मार्ग जिससे मंदिरों के अनेकों सामाजिक एवं आर्थिक गतिविधियां जुड़ी हुई है. कामगारों, शिल्पकारों, फल विक्रेता एवं पूजन सामग्री के विक्रेताओं को जीवन यापन करने में मंदिर सहायता प्रदान करते हैं. समाज में मंदिरों की भूमिका बहुत ही अहम है.
महाराज रविंद्रपुरी ने बताया कि भारत की आत्मा मंदिरों में बसती है. समाज में मंदिरों के विभिन्न स्वरूपों को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा कि मंदिर अनेकों धर्मार्थ कार्य में अपना योगदान निरंतर देते आ रहे हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था में करीब साढ़े चार लाख करोड़ का योगदान मंदिरों द्वारा दिया जाता है. सत्र का संचालन प्रमोद यादव के किया.
तीसरा सत्र : हिन्दू मंदिरों का प्रबंधन स्वतंत्र हो
विहिप के अंतरराष्ट्रीय कार्याध्यक्ष आलोक कुमार ने कहा कि हमारे मंदिरों में पहले गुरुकुल चलते थे. गुरुकुल के साथ गौशाला, शादी तथा मृत्युभोज जैसे कार्यक्रम भी मंदिरों मे ही किए जाते थे. हिन्दुओं में सांस्कृतिक, साहित्यिक कार्यक्रम एक जीवंत कार्य था, जिसे मंदिरों में ही किया जाता था. पहले की सरकार मंदिरों से केवल तीन प्रतिशत का हिस्सा ही लिया जाता था, परंतु यह १८ प्रतिशत तक बढ़ा दिया गया है. वे ‘हिन्दू मन्दिरों का प्रबन्धन हिन्दुओं द्वारा एवं भारत के प्रत्येक सम्प्रदाय को शिक्षण एवं सांस्कृतिक संस्थानों के संचालन की स्वतन्त्रता’ विषय पर सत्र में संबोधित कर रहे थे.
हिन्दू मंदिरों के प्रबंधन व स्वतंत्र संचालन की मांग करते हुए कहा कि २०२४ से पहले सभी मंदिरों को वापस कर दिया जाए, यह हमारा लक्ष्य है. स्वतंत्र शिक्षा के बारे में कहा कि जिस प्रकार अन्य धर्मों में उनकी शिक्षा को महत्व दिया जाता है, उसी प्रकार हमें भी स्वतंत्र रूप से गुरुकुल चलाने की अनुमति मिलनी चाहिए ताकि हमारे देश के युवा व अन्य लोगों को संस्कृत तथा धर्म का ज्ञान हो.
प्रो.रामचंद्र पांडेय ने कहा कि नई पीढ़ी मंदिरों से जुड़ी, यह सुखद है. युवाओं को यह बताना चाहिए कि सदाचार और चरित्र की शिक्षा सबसे आवश्यक है. हिन्दू संस्कृति में पहले १६ संस्कार जैसे मुंडन व जनेऊ आदि मंदिरों में ही होते थे. ऐसे कार्यों से देवालय की महत्ता व प्रतिष्ठा होती थी जो अब घटती जा रही है. इस पतन को रोककर हमें पुनः प्रतिस्थापित करना है.
काशी विद्वत परिषद के महामंत्री राम नारायण द्विवेदी ने कहा कि किसी भी मंदिर में हिन्दू जब दान देता है तो वह यह सोच कर देता है कि वह किसी अच्छे कार्य में, किसी की मदद करने के लिए उपयोग होगा. परंतु बड़े-बड़े मंदिरों के धन को अन्य कार्यों में उपयोग किया जाता है. दोनों का सदुपयोग किसी भी प्रकार से नहीं हो रहा है. काशी के मंदिरों पर चर्चा करते हुए कहा कि काशी में ऐसे ७० मंदिर हैं जो सड़क के किनारे हैं. उन पर जल चढ़ाने वाला कोई नहीं है, उनकी पूजा करने वाला कोई नहीं है. अगर हम सब मिलकर उन ७० मंदिरों को प्रतिष्ठापित और प्रतिदिन उनकी पूजा करें तो उन मंदिरों का भी कायाकल्प हो सकता है.
चौथा सत्र : भारत की प्रतिष्ठा संस्कृत एवं संस्कृति से है
भारत की प्रतिष्ठा संस्कृत एवं संस्कृति से है. युवा दो प्रकार के होते हैं, एक पक्ष जहां समायोजन, पुनर्जागरण, लोगों को जोड़ने का कार्य करता है तो दूसरा पक्ष विभाजन की सोच रखकर राष्ट्र को दूषित कर रहा है. लोस सदस्य प्रताप चंद्र सारंगी चौथे सत्र ‘सशक्त राष्ट्र के निर्माण में युवाओं की भूमिका’ में बोल रहे थे.
उन्होंने भारतीय शिक्षा पद्धति में वर्ष २०२० में हुए बदलाव को राष्ट्र के लिए उपयोगी बताया. उन्होंने कहा कि भारत में लगभग १/३ युवा स्कूल की शिक्षा, वहीं लगभग दो-तिहाई युवा अपनी स्नातक की शिक्षा पूरी नहीं कर पाते हैं, जो चिंता का विषय है.
उपनिषद में लिखी एक कहानी का वर्णन करते हुए कहा कि सिंह जो मानव के साथ अपना जीवन व्यतीत कर रहा था, वह अपनी गर्जना भूल चुका था. परंतु उसे याद दिलाने पर उसने अपनी गर्जना से हिमालय को हिला दिया. इसी प्रकार हमारे राष्ट्र के युवाओं को भी उनकी संस्कृति का सम्मान करने के लिए हमें प्रेरित करना होगा. देश के युवाओं की तुलना वीर सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी एवं स्वामी विवेकानंद से की.
सरदार इकबाल सिंह ने कहा कि राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए हर भारतीय को गुरु गोविंद सिंह बनना होगा. पंजाब में वर्ष १९४९ में लगभग ९० प्रतिशत आबादी साक्षर थी, कुछ पैसे के बदले लोगों को किताबें जलाने पर मजबूर किया गया. हमारी संस्कृति एवं युवाओं की शिक्षा पद्धति पर गहरी चोट की गई. उन्होंने बताया कि नई शिक्षा नीति में युवाओं को शिक्षा उनकी मातृभाषा में दी जाएगी, जिससे वह अधिक सहजता से चीजों को समझ सकेंगे. उन्होंने कहा कि शिक्षा नीति में समय-समय पर बदलाव होने अति आवश्यक है.
पाँचवां सत्र : वेदों के मंत्रों के अर्थ को कम्युनिस्टों ने विकृत किया
भारतीय वेदों के बारे में कई पुस्तकें लिखी गई. परंतु किसी भी पुस्तक में वेद की मूल अर्थों में चर्चा नहीं की गई. विदेशियों द्वारा अपने हिसाब से इतिहास लिखा गया. आचार्य विनय झा पांचवें सत्र ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भारतीय इतिहास के साथ कम्युनिस्टों के षड्यंत्र’ में संबोधित कर रहे थे.
उन्होंने कहा कि इतिहास से छेड़छाड़ की गई है. संसार की सभी तकनीकें पहले भारत में ही विकसित हुर्इं, जिसे यूरोपीय लोग यहां खरीदने आते थे. हमारी गुलामी का सबसे बड़ा कारण हमारे शासक ही थे, जो खुद को इस देश का ही नहीं मानते थे. किसी भी देश पर कब्जा करने के लिए वहां के लोगों की बुद्धि पर कब्जा करना ही वामपंथी संगठनों का मुख्य कार्य है. आज के दौर में सोशल मीडिया भी वामपंथी विचारधाराओं के प्रसार में भूमिका निभा रहा है. इसी सत्र में प्रो. सी.पी. सिंह और कोनरॉड एल्स्ट ने भी अपने विचार व्यक्त किए. सत्र का संचालन मधुसूदन उपाध्याय ने किया.
छठा सत्र : शिक्षण संस्थान दें मूल्य आधारित शिक्षा
‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति एवं परंपरागत भारतीय शिक्षा’ विषय पर शिक्षाविद डॉ. मनु वोरा ने कहा कि बच्चों के प्रश्नों को कभी दबाना नहीं चाहिए, उनको प्रश्न करने की पूरी छूट देनी चाहिए. भारत में सभी शिक्षण संस्थानों को, सभी छात्रों को मूल्य आधारित शिक्षा प्रदान करनी चाहिए.
उन्होंने कहा कि प्रभावी राष्ट्रीय शिक्षा नीति २०२० के कार्यान्वयन के लिए गहन मंथन की आवश्यकता होगी, केवल अनुपालन पर नहीं, उत्कृष्टता पर ध्यान दें. पहले शिक्षार्थियों और छात्रों को कक्षाओं में संलग्न करना महत्वपूर्ण है, संकाय उत्कृष्टता प्राप्त करने से प्रभावी ज्ञान हस्तांतरण होता है. श्रेष्ठ शिक्षा के लिए सतत मूल्यांकन आवश्यक है.
जे. एस राजपूत ने वेब माध्यम से कहा कि जब तक सरकारी और निजी स्कूल ठीक नहीं होंगे, तब तक छात्र का कौशल विकास नहीं हो सकता और ना ही देश विश्वगुरु बन सकता है. वर्तमान समय में शिक्षा में सुधार की बहुत आवश्यकता है. हमारे देश में बहुत अच्छे-अच्छे शैक्षणिक संस्थान होते हुए भी शिक्षा के स्तर में कोई बेहतर बदलाव नहीं दिखता, इस पर हमें चिंतन की आवश्यकता है.
नई शिक्षा नीति में अध्यापकों के कौशल पर भी ध्यान दिया गया है. बच्चों में प्रश्न पूछने की जागरूकता को बढ़ाना है. उन्हें कभी प्रश्न करने से रोकना नहीं चाहिए, बल्कि प्रोत्साहित करना चाहिए. हर बालक के अंदर एक व्यक्ति होता है, उसे व्यक्तित्व में परिवर्तित करना शिक्षक की जिम्मेदारी है. चरित्र का निर्माण करके ही हम राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं. हमें अपनी जड़ो के साथ जुड़े रहते हुए बच्चों को शिक्षा देनी है. सत्र का संचालन शालिनी वर्मा ने किया.
सातवां सत्र : भारतीय संस्कृति के पुनर्जागरण हेतु तीर्थों का नामकरण आवश्यक
भारत के पुनर्जागरण के लिए अतीत की गौरवशाली परम्परा का बोध आवश्यक है. इसके लिए यह आवश्यक है कि वर्तमान समय में जो भी महत्वपूर्ण नगर एवं राजधानियां हैं, जिनका नामकरण विदेशी आक्रांताओं के समय विकृत किया गया था, उसके स्थान पर अतीत के समृद्धशाली नाम की पुनः स्थापना की जाए. यह देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के लिए आवश्यक है, जिसका प्राचीन नाम इंद्रप्रस्थ है. ‘भारत का सांस्कृतिक पुनर्जागरण’ विषयक सत्र में वक्ताओं ने व्यक्त किए.
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के इतिहास पर चर्चा करते हुए वक्ता नीरा मिश्रा ने कहा कि हमारी राजधानी का अस्तित्व अतीत से जुड़ा है. १८८७ एवं १९१३ के दौरान अंग्रेजी शासन द्वारा प्रेषित रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली का वास्तविक नाम इंद्रप्रस्थ था. इन्द्रप्रस्थ का इतिहास लगभग ३००० ईसा पूर्व का है. इसके साक्ष्य लगभग ६०० वर्षों तक चले मुगल शासन के दस्तावेजों में भी मौजूद हैं एवं १९२६ के एक रिपोर्ट के अनुसार इंद्रप्रस्थ के भीतर पांडव किला का अस्तित्व भी मिलता है. उसे वर्तमान में पुराना किला कहा जा रहा है. हमें अपने इतिहास पर गर्व करना चाहिए तथा उसके प्रचार-प्रसार का दायित्व युवाओं का है.
प्रो. ओमप्रकाश सिंह ने कहा कि संस्कृति की जड़ें अतीत में बसती हैं और अपनी जड़ों से जुड़ने की इच्छा सभी में होती है. भारतीय संस्कृति के पुनर्जागरण हेतु गुलामी के दिनों में विकृत किए गए स्थानों एवं तीर्थों का प्राचीन नामकरण आवश्यक है. भारतीय संस्कृति पर हुए आक्रमणों की चर्चा करते हुए कहा कि इंद्रप्रस्थ में जहां यज्ञशाला हुआ करती थीं, वहां मजारें बनवाई गई. पुनर्जागरण के लिए इंद्रप्रस्थ की पुनर्स्थापना आवश्यक है.
प्रो. विनय कुमार पांडेय ने कहा कि मूल्यों को पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है. कोई भी संस्कृति जिसका लक्ष्य निर्धारित ना हो, ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रह सकती है. हमारी संस्कृति का लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है. दूसरी संस्कृतियों का लक्ष्य सिर्फ अर्थ और काम है. युवाओं में आत्मगौरव की अनुभूति होनी चाहिए. आत्मा को मृत होने से रोकना चाहिए तथा आत्म अनुशासन का पालन करना चाहिए.