नई दिल्ली. दिल्ली के सिरी फोर्ट ऑडिटोरियम में “मानस साधु चरित मानस” शीर्षक से रामकथा करते हुए विश्वप्रसिद्ध रामकथा-वाचक सन्त मोरारी बापू ने कहा कि वृक्षों को काटना, नदियों को दूषित करना साधु हत्या के समान ही है. पर्यावरण के प्रति केवल आज ही सजगता नहीं बढ़ी. रामचरित मानस जैसे प्राचीन ग्रन्थ में भी बहुत पहले ही इस पर विचार किया गया है. वृक्षों, नदियों और पहाड़ों आदि प्राकृतिक संसाधनों को साधु के समान बताकर उनकी रक्षा की बात कही गयी है. तुलसीदास जी ने तो वृक्ष को साधु बताया है.
पर्यावरण संरक्षण की अति-आवश्यकता के महत्व को रेखांकित करते हुए मोरारी बापू ने कहा कि वृक्षों को अनावश्यक मत काटें, नदियों को प्रदूषित न करें. त्योहारों पर सामूहिक स्नान और पूजा करके नदियों को दूषित करना, अनावश्यक वृक्षों को काटना और अकारण पहाड़ों को नष्ट करना साधु की हत्या करने जैसा ही है.
कोरोना नियमों का पालन करवाते हुए सीमित संख्या में उपस्थित श्रोताओं के बीच रामकथा के विभिन्न पहलुओं को बड़े ही सरस और संगीतमय तरीक़े से प्रस्तुत करते हुए बापू ने साधु और सन्त की परिभाषा से भी परिचित कराया. वे कहते हैं कि साधु कौन है – जो अतिशय सहन करे. साधु में सहनशीलता अति-आवश्यक है. यही तपस्या है उसकी, यही भक्ति है जो आज कम होती जा रही है.
सन्त तो दूसरों के लिए जीते हैं. आज तक किसी वृक्ष ने अपना फल खुद नहीं खाया, अपनी छाया खुद नहीं ली. किसी नदी ने अपना जल खुद नहीं पीया. परहित के लिए जीने वाला ही वास्तविक सन्त है. बापू ने कहा – कोरे उपदेशों से कुछ नहीं होता. ऐसे उपदेश, सुनने वाले के जीवन को परिवर्तित भी नहीं कर पाते. कहने वाले के शब्दों में दम होना चाहिए. वह तब होगा, जब उसका जीवन परहित के लिए समर्पित होगा. परहितकारी जीवन.
गुरुनानक देव की जयंती 19 नवम्बर की है. सत्य की व्याख्या करते हुए उन्होंने गुरुनानक देव जी की जपुजी- साहिब नामक बाणी में से उदाहरण लेते हुए कहा कि सत्य या राम कानों द्वारा हमारे भीतर प्रवेश करता है. यानि सुनने से – “सुणिये सत सन्तोख ज्ञान, सुणिये अठसठ का इसनान, सुणिये पढ़-पढ़ पावै मान, सुणिये लागै सहज ध्यान. नानक भगतां सदा विगास, सुणिये दुख पाप का नास.”
अर्थात सुनने से ज्ञान भी जाग्रत होता है और सुनने से ही दुख और पापों का नाश भी होता है. इसलिए भक्ति-ज्ञान की चर्चा सुनिए ज़रूर, चाहे किसी से भी सुनिए. ताकि आपके आन्तरिक केंद्र भी सक्रिय हो सकें.
योगी लोग कहते है कि हमारे शरीर में 68 आन्तरिक केंद्र होते हैं, जबकि भक्तिमार्ग मानता है कि 108 आन्तरिक केंद्र बिंदु होते हैं. जिनके स्थान बदलने से आदमी कभी रोता है, कभी हंसता है या खुश होता है. यानि अलग-अलग केंद्र बिन्दुओं के सक्रिय होने से अलग-अलग भाव मनुष्य के मन में उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं.