भोपाल. यह लड़ाई हमारे लिए नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ी के लिए है. संविधान में अनुच्छेद 341 में अनुसूचित जाति के लिए प्रबंध किए गए हैं कि यदि वे मतांतरित होते है तो आरक्षण आदि की सुविधाएं नहीं मिलेंगी. जबकि अनुच्छेद 342 में अनुसूचित जनजाति के लिए अलग नियम हैं. यह जनजाति समाज के हित में नहीं है. जनजाति सुरक्षा मंच के क्षेत्र संयोजक कालूराम मुजाल्दा ने विश्व संवाद केंद्र में गुरुवार को आयोजित संगोष्ठी में संबोधित किया. जनजाति सुरक्षा मंच के प्रदेश संयोजक कैलाश निनामा, जनजातीय एवं संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ लक्ष्मण सिंह मरकाम, जनजातीय विषयों की विशेषज्ञ डॉ. दीपमाला राव ने भी संगोष्ठी को संबोधित किया.
मुजाल्दा ने कहा कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और तत्कालीन सांसद बाबा कार्तिक उरांव के 1967 से किए गए संघर्ष और अथक प्रयासों के बाद भी इस संबंध में विधेयक संसद में लंबित रखा गया है. जनजाति सुरक्षा मंच ने हस्ताक्षर अभियान चलाकार 28 लाख जनजाति बंधुओं के हस्ताक्षर वाला मांग पत्र तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल जी को सौंपा था. इसके लिए मंच लगातार आंदोलन कर रहा है कि संसद में इस बिल को पास किया जाए. आज गांव के व्यक्ति को भी डीलिस्टिंग का विषय समझ में आ गया है. जनजाति समाज अब जाग चुका है.
भूमिका दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान के निदेशक डॉ. मुकेश मिश्रा ने रखी. उन्होंने कहा कि डीलिस्टिंग इसलिए अनिवार्य है कि क्योंकि यह जनजाति बंधुओं को उनके अधिकार देने के साथ उनकी उन्नति का मार्ग खोलेगी. अभी अन्याय की एक प्रथा चल रही है. जो लोग अपने मत को बदलकर दूसरे मत में चले गए हैं, वे ही सारा लाभ उठा रहे हैं. ऐसे में जरूरी है कि जो लोग अपनी जड़ों, विश्वास, आस्था और परंपराओं से जुड़े हुए हैं, उन्हें आरक्षण सहित संविधान एवं शासन प्रदत्त सुविधाओं का सौ प्रतिशत लाभ मिले, इसलिए भी डीलिस्टिंग बहुत जरूरी है.
कैलाश निनामा ने कहा कि डीलिस्टिंग एक मार्मिक विषय है. यह सिर्फ आरक्षण से जुड़ा हुआ नहीं है. यह विषय जनजातीय समाज के स्वाभिमान का विषय है. यह जनजातीय संस्कृति के संरक्षण और अस्तित्व की चिंता से जुड़ा हुआ विषय है. यह जनजाति ही नहीं, बल्कि मूल सनातन की अग्रिम पंक्ति में रहने वाले समाज का विषय है. शहरों में रहने वाले प्रबुद्धजन नहीं जानते कि संकट कितना बड़ा है. कार्तिक उरांव ने कांग्रेस के सांसद रहते हुए 1967 में इस विषय पर चिंता जताई थी. आज जनजातीय समाज और पूरा देश जानना चाहता है कि आखिर वह क्या वजह थी कि जो सांसद देश की 85 प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, उनके समर्थन के बाद भी यह बिल आज भी संसद में लंबित है. हमें डीलिस्टिंग के लिए पूरे देश का समर्थन एवं सहयोग चाहिए.
जनजातीय एवं संवैधानिक मामलों के जानकार लक्ष्मण सिंह मरकाम ने कहा कि संविधान में व्यक्ति के अधिकारों के हनन रोकने के लिए ज्यादा व्यवस्था है, जबकि समाज के हनन को रोकने की व्यवस्था नहीं है. समाज के अधिकारों की चिंता करने की जवाबदारी संसद की है. संसद चाहे तो वंचितों, शोषितों को विशेष अधिकार देने के लिए नियम बना सकती है. आर्थिक प्रलोभन से धर्म परिवर्तन किया जाता है तो वह जनजाति को मिलने वाले लाभ का अधिकारी नहीं रह जाता. जनजाति समाज प्रकृति पूजक है. लेकिन अन्य धर्म में जाता है तो क्या वह प्रकृति पूजक रह जाता है. उनकी मूल पहचान ही उसकी मूल आत्मा है. जब कोई व्यक्ति अपनी मूल पहचान को छोड़ देता है तो वह बैकवर्ड नहीं रह जाता. जिन्होंने अपनी मूल पहचान खो दी है, उन्हें मूल पहचान वाले जनजाति बंधुओं के अधिकार छीनने के हक नहीं दिए जाएं.
कार्यक्रम की वक्ता डॉ. दीपमाला रावत ने कहा कि कहा कि जो लोग समझते हैं कि डीलिस्टिंग का विषय अचानक कहां से आ गया है, अभी तक तो ऐसा कुछ था नहीं. उन्हें इतिहास का पता नहीं है. डीलिस्टंग के लिए 1967 में अनुसूचित जाति जनजाति आदेश संशोधन विधेयक आया था. संसद की संयुक्त समिति ने 17 नवंबर, 1969 को इसकी सिफारिशें की थीं. कार्तिक उरांव जी ने 10 नवंबर को इस संबंध में 322 लोकसभा सदस्यों और 26 राज्यसभा सदस्यों के हस्ताक्षर वाला पत्र तत्कालीन प्रधानमंत्री को दिया था. इसके बावजूद मात्र 50 सदस्यों ने इस विधेयक को खारिज करने का पत्र दिया जो 348 सदस्यों की सहमति पर भारी पड़ गया. 16 नवंबर, 1970 को इस विधेयक पर लोकसभा में बहस के बाद इस विधेयक को आज तक पेंडिंग रखा गया है. कार्तिक उरांव ने इस विषय में एक पुस्तक भी लिखी ‘20 वर्ष की काली रात’. इस इतिहास की देश के सभी लोगों को जानकारी होनी चाहिए.
साहित्य अकादमी के निदेशक डॉ. विकास दवे ने अपनी एक कहानी के माध्यम से जनजाति समाज की इस समस्या को रेखांकित किया. संगोष्ठी में प्रबुद्धजन, जनजाति बंधु, पत्रकार, गणमान्य नागरिक, मातृशक्ति, युवा एवं अन्य लोग उपस्थित रहे.