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धर्मरक्षक वीरव्रती खालसा पंथ – भाग तीन

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गुरु अंगददेव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी का महत्वपूर्ण योगदान

नरेंद्र सहगल

संत शिरोमणि गुरु नानक देव जी महाराज ने भारत की सशस्त्र भुजा खालसा पंथ का शिलान्यास भविष्य में भारत और भारतीयता के सुरक्षा कवच की कल्पना करके किया था. भविष्य में गुरु गोबिंद सिंह जी ने जिस वीरव्रती सेना (खालसा पंथ) की सिरजना की, उसके निर्माण में 10 गुरु परंपरा का क्रमिक योगदान रहा. इसे आसान भाषा में इस प्रकार समझा जा सकता है कि खालसा पंथ के भव्य, विशाल एवं मजबूत भवन की 10 मंजिलों के निर्माण में प्रत्येक गुरु का महत्वपूर्ण योगदान था. इस भवन के निर्माण कार्य में धर्म, समाज तथा राष्ट्र के लिए आत्म बलिदान का रक्तरंजित इतिहास समाया हुआ है.

राष्ट्र-संत गुरु नानक देव जी ने ब्रह्मलीन होने से पहले अपने परम शिष्य लहणा खत्री को गुरु गद्दी सौंप दी. भक्त लहणा ने अपना नाम अंगददेव रख लिया. अंगद अर्थात नानक का अंग. गुरु गद्दी पर शोभायमान होने के तुरंत पश्चात गुरु अंगददेव जी ने नानक के मिशन को विस्तार देने का निश्चय करके एक संगठन बनाने के लिए परिश्रम करना आरंभ किया. इन्होंने गुरुमुखी लिपि, साहित्य निर्माण और लंगर व्यवस्था जैसे तीन अति महत्वपूर्ण कार्य संपन्न किए. यह तीनों ही कार्य सिक्ख संप्रदाय (संगठन) के शक्तिशाली आधार स्तंभ बन गए.

उस समय पंजाब के अधिकांश हिन्दू लिखना-पढ़ना नहीं जानते थे. पंजाब वासियों की बोली पंजाबी थी. लेकिन पंजाबी में एक भी पुस्तक नहीं थी. गुरु अंगददेव जी ने इस रिक्त स्थान को भरने के लिए देवनागरी लिपि में साधारण परिवर्तन करके पंजाबी भाषा बनाई, जिसका नाम गुरुमुखी रखा गया. भविष्य में यही लिपि एवं भाषा खालसा पंथ की आवाज बनी.

गुरुमुखी का निर्माण होने के बाद साहित्य लिखने का काम प्रारंभ हुआ. गुरु अंगददेव जी ने गुरु नानक देव जी के सहयोगी भाई बाला से गुरु नानक की सभी जीवन कथाएं, शिक्षाएं तथा कर्म क्षेत्र की घटनाओं को सुनकर उन्हें गुरुमुखी लिपि में लिख दिया. इस पहली पुस्तक का नाम ‘वचन संग्रह’ रखा गया. यही पंजाबी साहित्य की सर्वप्रथम पुस्तक है.

इसी तरह संगठन की आवश्यकता के अनुसार लंगर की व्यवस्था की गई. इस प्रथा से अमीर-गरीब, ब्राह्मण, शूद्र सभी मिलकर एक स्थान पर बैठकर सामूहिक भोजन कर सकते थे. इस प्रथा से संगठन का विस्तार होता चला गया. धनवान लोगों ने धन का दान देना प्रारंभ किया. इससे जाति बिरादरी की दीवारें तोड़कर पंजाब के हिन्दू एकता के महत्व को समझने लगे.

गुरु अंगददेव जी ने अपने देह त्याग से पहले अपने परम भक्त तथा होनहार शिष्य अमरदास को अपना उत्तराधिकारी बनाया. सिक्ख सांप्रदाय के तीसरे गुरु अमरदास जी ने सिक्खों का एक नियमित, अनुशासित एवं शक्तिशाली संगठन बनाने के लिए समस्त पंजाब को 22 भागों में बांट कर प्रत्येक भाग का एक प्रचारक नियुक्त किया. यहीं से सिक्ख पंथ की संचालन व्यवस्था शुरू हुई जो आने वाले दिनों में बहुत लाभकारी साबित हुई.

गुरु अमरदास जी गंगा नदी के परम भक्त थे. प्रत्येक वर्ष वे अपनी अपार संगत के साथ गंगा स्नान के लिए जाते थे. जब अकबर ने हिन्दुओं की तीर्थ यात्रा पर कर लगाया, तब गुरु अमरदास जी ने उसके विरुद्ध आवाज उठाई और अकबर को अपना निर्णय वापस लेने पर मजबूर किया.

गुरु गद्दी पर बैठने के बाद उन्होंने अनुभव किया कि आज का सामान्य हिन्दू मां गंगा के दर्शन के लिए कितने कष्ट सहन करता है. वे अपने नगर में ही गंगा सरोवर के लिए उदृत हो गए. अतः गोइंदवाल में ही उन्होंने एक नई हरि की पौढ़ी की रचना की, जिसकी चौरासी सीड़ियाँ बनाई गई. चौरासी लाख योनियों से मुक्ति पाने के लिए यह नए सोपान बनाए गए. पंजाब में ही उन्होंने प्रत्येक निवासी के लिए गंगा को सुलभ कर दिया.

गुरु अमरदास जी ने इस बावली की रचना गंगा, हरिद्वार और हर की पौड़ी के विरुद्ध नहीं की जैसा की कुछ लोग कहते हैं. वह तो अंतिम श्वास तक गंगा मां के भक्त रहे.

गुरु अमरदास जी ने संगठन को ज्यादा व्यवस्थित तथा प्रभावशाली बनाने के लिए गुरु गद्दी को पैतृक बना दिया. इससे उत्तराधिकारी से संबंधित सभी झगड़े एक साथ निपट गए. उल्लेखनीय है कि जब सिक्खों के एक धड़े ने गुरु नानकदेव के पुत्र बाबा श्रीचंद को गुरु गद्दी पर बिठाए जाने की जिद की तो गुरु अमरदास जी ने बहुत ही बुद्धिमता से इस समस्या का निपटारा कर दिया. बाबा श्रीचंद साधु थे और उन्होंने उदासी सांप्रदाय की स्थापना भी की थी. यदि उन्हें सिक्खों की गुरु गद्दी मिल जाती तो आगे चलकर सिक्ख सेना अर्थात खालसा पंथ भी ना बन पाता.

गुरु अमरदास जी ने सभी शिष्यों को समझाते हुए कहा कि गुरु नानकदेव जी का मार्ग साधुओं की संख्या बढ़ाने का नहीं था. गुरु नानकदेव तो सांसारिक जीवन को पूर्णता तक पहुंचा कर जगत का कल्याण करना चाहते थे. इसी के साथ उन्होंने विदेशी हमलावरों द्वारा किए जा रहे जुल्मों का प्रतिकार करने का मार्ग भी खोज लिया था.

गुरु अमरदास जी के दामाद भक्त रामदास बहुत ही धर्म प्रेमी और विश्वस्त गुरुभक्त थे. उनके त्याग, तपस्या और लगन से प्रभावित होकर गुरु अमरदास जी ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित करके गुरु गद्दी सौंप दी. इसी प्रसंग के पश्चात ही वास्तव में सिक्ख गुरुओं में उत्तराधिकार वंशवादी हो गया.

सिक्खों के चौथे गुरु रामदास जी ने गद्दी पर शोभायमान होते ही गोइंदवाल की तरह ही एक और बड़े तीर्थस्थल की योजना को साकार रुप देने का निश्चय किया. उन्होंने अमृतसर नगर का शिलान्यास किया. इलाके के बड़े जिमीदारों से जमीन खरीद कर इस नगर को बसाया गया. इस जमीन पर पानी का एक बहुत बड़ा तालाब (छप्पर) था, जिसे सरोवर बना दिया गया. अब यह स्थान आसपास के हिन्दू जिमीदारों के आकर्षण का केंद्र बन गया. इससे सिक्ख सांप्रदाय में नवशक्ति का संचार हो गया.

इस केंद्र के स्थापित हो जाने से पंजाब के मालवा और माझा आदि क्षेत्रों में गुरु रामदास जी का प्रभाव बढ़ा और देखते ही देखते सिक्ख अनुयायियों की संख्या तेज गति से बढ़ने लगी. इस क्षेत्र के किसानों, जिमीदारों ने आगे चलकर खालसा पंथ के विस्तार में ऐतिहासिक योगदान दिया.

………. क्रमश:

 

(वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक)

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