वैरागी बंदासिंह बहादुर ने बजाया विजयी सैन्य अभियानों का बिगुल
नरेंद्र सहगल
अध्यात्म-शिरोमणि गुरु नानकदेव जी द्वारा प्रारंभ की गई भक्ति आधारित दस गुरु परंपरा के अंतिम ध्वजवाहक दशमेश पिता गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज ने अपने छोटे से (42) जीवनकाल में ही सनातन भारतीय संस्कृति की रक्षा और स्वतंत्रता के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्यों को सफलतापूर्वक संपन्न कर दिया था. जिस तरह स्वामी विवेकानंद ने अपने मात्र 39 वर्ष के जीवनकाल में पूरे विश्व में हिन्दू धर्म/संस्कृति की ध्वजा फहराने में सफलता प्राप्त की थी, उसी प्रकार दशम गुरु ने हिन्दू समाज में क्षात्र चेतना जाग्रत करने का अद्भुत एवं युग प्रवर्तक अनुष्ठान करके खालसा पंथ की सिरजना की थी.
धर्मयुद्ध शिरोमणि दशम गुरु की अविस्मरणीय ऐतिहासिक उपलब्धियों को संक्षेप में सात भागों में बांटा जा सकता है.
प्रथम :- मात्र 8 वर्ष की आयु में ही उन्होंने अपने पूज्य पिता नवम गुरु गुरु तेगबहादुर जी को धर्म एवं सत्य की रक्षा के लिए आत्म बलिदान की प्रेरणा दी. उनके बलिदान से पूरे भारत में मुगल साम्राज्य को उखाड़ फैंकने के लिए सशस्त्र क्रांति की अलख जग गई.
दूसरा :- दबे, कुचले, हीन भावना से ग्रस्त निहत्थे और विभाजित हिन्दू समाज को जगाकर उसमें क्षात्र भाव भरने के लिए ‘खालसा पंथ’ की स्थापना की. जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारा समस्त भारत को एक सूत्र में बांधने के लिए स्थापित किए चार मठों की भांति दशम गुरु ने भी सारे देश और सभी जातियों से पांच प्यारे (सिंह) तैयार करके भारत की एकता का युग प्रारंभ कर दिया.
तीसरा :- खालसा पंथ की स्थापना के बाद गुरु ने एक विजयी सेनानायक के रूप में 14 छोटी-बड़ी लड़ाइयां लड़ीं. मुगलों के धर्म विरोधी शासन के विरुद्ध लड़ी गई इन लड़ाइयों में दशम पातशाह ने अपने चारों युवा एवं बाल पुत्रों की कुर्बानियां दे दी. फलस्वरुप मुगलिया साम्राज्य के पांव उखड़ गए.
चौथा :- समूचे भारत को तलवार के जोर से इस्लाम में तब्दील करने का इरादा रखने वाले अधर्मी राक्षस औरंगजेब को एक पत्र (जफरनामा) लिखा. इस पत्र की भाषा से औरंगजेब की रूह कांप उठी. उसने गुरु जी से मिलने की इच्छा जताई. परंतु शीघ्र ही उसकी रूह ने उसके पापी शरीर को छोड़ दिया.
पांचवा :- गुरु जी ने अपने अति व्यस्त जीवनकाल में वीररस पर आधारित विशाल साहित्य की रचना की. वे योद्धा राष्ट्रीय कवि थे. वे एक आध्यात्मिक योद्धा थे. उन्होंने जहां अकाल स्तुति तथा ‘जापु’ जैसी भक्तिप्रधान रचनाएं लिखी, वहीं उन्होंने ‘चंडी चरित्र’ तथा ‘चौबीस अवतार’ जैसे कालजयी साहित्य को भी रचा.
छठा :- दशम् गुरु ने अपने अंत समय में बहुत गहन विचार करने के पश्चात तत्कालीन परिस्थितियों के मद्देनजर गुरु ग्रंथ साहिब को गुरुगद्दी पर शोभायमान कर दिया. उन्होंने घोषणा की –
आज्ञा भई अकाल की, तबै चलायो पंथ.
सब सिक्खन को हुकम है, गुरु मान्यो ग्रंथ.
गुरु ग्रंथ जी मान्यो, प्रगट गुरु की देह.
जो प्रेम को मिलवो चाहे, खोज शब्द में लेह…
सातवां :- गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवनकाल में ही वैरागी साधु माधोदास को अमृत छका कर (अमृत-पान) सिंह सजाया और उसे अपना उत्तराधिकारी बनाकर पंजाब की ओर भेज दिया. यही वैरागी साधु बाद में महान योद्धा बंदासिंह बहादुर कहलाया. इस संत सिपाही को बंदा वीर वैरागी भी कहा जाता है.
जिस तरह पूर्व के नौ गुरुओं विशेषतया गुरु नानकदेव जी तथा नवम गुरु गुरु तेगबहादुर जी ने पूरे अखंड भारत का प्रवास करके हिन्दू समाज को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया था, इसी तरह दशम गुरु ने भारतवर्ष को एक चैतन्यमय देवता के रूप में देखकर इसकी परिक्रमा करने का निश्चय किया था. इसी निमित्त वह दक्षिण भारत की ओर गए. वहां उन्होंने नांदेड़ नामक स्थान पर गोदावरी नदी के किनारे पर अपना डेरा बना कर आगे की गतिविधियों को संचालित किया.
इन्हीं दिनों इसी दक्षिण क्षेत्र में मराठा हिन्दू सम्राट छत्रपति शिवाजी महाराज अपनी सेना के साथ मुगल सूबेदारों से लोहा ले रहे थे. शिवाजी ने तो अपने जीवनकाल में ही ‘हिन्दू पद पातशाही’ की स्थापना भी कर दी थी. कुछ इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि दशम गुरु दक्षिण में इसी उद्देश्य से गए थे कि शिवाजी से मिलकर पूरे भारत में एक शक्तिशाली भारतीय सेना तैयार करके मुगल शासन को समाप्त करके एक परमवैभवशाली राष्ट्र की पुनः स्थापना की जाए.
परंतु ऐसा संभव नहीं हो सका. शिवाजी महाराज इस संभावित भेंट से पहले ही अपनी जीवन लीला को समाप्त कर चुके थे. यदि उस समय यह इतिहासिक भेंट हो जाती तो उत्तर से लेकर दक्षिण तक समस्त हिन्दू समाज दोनों महापुरुषों के नेतृत्व में हथियारबंद होकर ‘स्वतंत्रता संग्राम’ के लिए तैयार हो जाता. तो भी इन दोनों महान सेनापतियों ने मुगल शासन की जड़ें तो खोद ही दी थीं. आगे का कार्य दशम गुरु द्वारा सृजित खालसा पंथ के सेनापतियों ने संपन्न किया.
इतिहास इसका भी साक्षी है कि एक समय पर शिवाजी के वंशज भाऊ पेशवा ने दिल्ली के लाल किले पर भगवा ध्वज लहरा दिया था और दशम पिता के सिंहों जस्सासिंह अहलूवालिया और जत्थेदार बघेलसिंह ने 1787 में लाल किले पर केसरिया झंडा लहरा कर दिल्ली पर कब्जा कर लिया था.
उल्लेखनीय है कि दशम गुरु के सैन्य उत्तराधिकारी बंदासिंह बहादुर ने पंजाब में पहुंचते ही सिंहों की सेना के साथ अपना विजयी सैन्य अभियान प्रारंभ कर दिया. एक के बाद एक मुगल सूबेदारों को मौत के घाट उतारकर उनके अधीन क्षेत्रों को स्वतंत्र करवाते हुए बंदा और उसके खालसे केसरी ध्वजा को फहराते चले गए. तुरंत ही उन्होंने सरहंद के सूबेदार वजीर खान और दीवान सुच्चानंद को और उनकी सेना को मौत के घाट उतार कर सरहंद पर कब्जा कर लिया. यह दोनों नरपिशाच दशम गुरु के दो बाल पुत्रों को शहीद करने के जिम्मेदार थे.
इसी विजय अभियान के साथ ही सतलुज नदी और यमुना नदी के मध्य का सारा क्षेत्र मुगल सूबेदारों से स्वतंत्र करवाकर बंदासिंह बहादुर ने सिक्ख राज्य की स्थापना कर दी. यह जीत दशम गुरु के उद्देश्य ‘वैभवशाली राष्ट्र की पुनर्स्थापना के अनुरूप थी. बंदासिंह बहादुर ने दशमेश पिता द्वारा की गई घोषणा – ‘सकल जगत में खालसा पंथ गाजे, जगे धर्म हिन्दू तुरक द्वंद भाजै.’ को अपने पराक्रम से चिरतार्थ कर दिया.
उल्लेखनीय है कि बंदासिंह बहादुर ने भी गुरु अर्जुनदेव जी, गुरु तेगबहादुर जी की तरह भयानक यातनाएं सहकर अपना बलिदान दिया था. गुरु पुत्रों के कातिलों को मौत के घाट उतारने वाले इस धर्म योद्धा को मारते समय मुस्लिम काजियों ने मानवता को शर्मसार करने वाले ऐसे नृंशस हथकंडे अपनाए, जिन्हें जानकर रक्त खौलने लगता है.
मुगलों की विशाल सेना बंदासिंह बहादुर को गुरदास नंगल नामक किले से पकड़कर लोहे के पिंजरे में बंद करके दिल्ली ले आई. बंदासिंह को उसके लगभग एक हजार सिक्ख सैनिकों को जंजीरों में बांधकर जुलूस निकाला गया. इसी जुलूस में सैकड़ों सैनिकों के कटे सिर भालों (बरछों) पर टांग कर लाए गए. दिल्ली में काजियों द्वारा वही पुरानी रट लगाई ‘इस्लाम कबूल करो या मौत.’ बंदासिंह ने इस्लाम कबूल नहीं किया. फिर शुरू हुए क्रूर अत्याचार..
बंदासिंह के 2 वर्षीय बेटे का उसके सामने कलेजा निकाला गया. इस रक्त रंजित लोथड़े को बंदा के मुंह में ठोसा गया. गरम लोहे के चिमटों से इस वीर पुरुष के शरीर को नोचा गया, आंखें निकाल दी गईं. शरीर के सारे अंग खंजर से काटे गए. इस तरह इस्लाम के व्याख्याकारों ने इस सिक्ख राष्ट्रपुरुष के प्राण लेकर अपनी वास्तविक जलालत का परिचय दिया.
इस अमर बलिदान के बाद सिक्ख बहादुरों ने बलिदान के जज्बे को प्रज्ज्वलित रखते हुए संघर्ष को जारी रखा.
………. क्रमश:
(वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक)