महिला अधिकार, सौहार्द, मानवाधिकार, अल्पसंख्यकों के हित, नस्लभेद और सबसे अहम तथाकथित चुनिंदा धर्मनिरपेक्षता का स्वघोषित ‘ठेकेदार’ पश्चिमी मीडिया यूं तो अपनी परिसीमाओं के उल्लंघन के संदर्भ में बहुत ही संवेदनशील होने का दिखावा करता है, लेकिन जब कभी भी आवश्यकता पड़ी है इस पक्षपात पूर्ण ‘दुष्प्रचार व्यवस्था तंत्र’ ने अपना असली स्वरूप दिखाते हुए जमकर अपने निजी हितों के लिए दूसरे राष्ट्रों के बहुसंख्यक जनमानस और उनके नेतृत्वकर्ताओं को बदनाम किया है.
दुष्प्रचार व्यवस्था तंत्र की चेतना शक्ति इतनी शून्य है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में पूर्ण बहुमत से निर्वाचित नेतृत्वकर्ता इन्हें कभी समाज को बांटने वाला प्रमुख नायक दिखाई देता है, तो कभी शाहीन बाग जैसे नाटक के मंचन से नायिका के किरदार में ऊभरी ‘बिलकिस बानो’ इन्हें दुनिया के 100 सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों की सूची में अत्यंत आवश्यक नजर आती है.
इस दुष्प्रचार व्यवस्था तंत्र की आंतरिक विश्लेषण क्षमता इतनी प्रभावहीन है कि जिस वामपंथी और इस्लामिक गठजोड़ के आकाओं को ध्यान में रखकर इन्होंने बिलकिस बानो को दुनिया के 100 सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों की सूची में जगह दी है, उनके समर्थकों के एक बड़े वर्ग को बिलकिस बानो के तथाकथित योगदान के विषय मे जानकारी होगी या नहीं इस पर गहरा संशय है.
हालांकि साफ-सुथरी छवि का चोला ओढ़कर चुनिंदा विषयों पर छाती पीटने वाले भीतर से वामपंथी और इस्लामिक विचारधारा की पैरोकार इस दुष्प्रचार व्यवस्था तंत्र से बहुत ज्यादा उम्मीद रखना बेमानी ही है.
भारत के संदर्भ में अगर बात की जाए तो समस्या इस दुष्प्रचार व्यवस्था तंत्र के अस्तित्व से ना होकर उसके द्वारा फैलाए गए दुष्प्रचार से उत्पन्न मनोवैज्ञानिक दबाव से ज्यादा प्रतीत होती दिखाई पड़ती है.
दरअसल, आजादी के इतने वर्षों बाद भी कई मायनों में हम साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा स्थापित पक्षपात पूर्ण संस्थानों के वैचारिक विद्वेष के चंगुल से नहीं निकल पाए हैं, यही कारण है कि प्रत्यक्ष रूप से चुनिंदा घटनाओं को रेखांकित कर भारत और उसके भीतर की लोकतांत्रिक जड़ों पर कुठाराघात करने के प्रयासों को बल देने वाले इन संस्थानों के विचारों को ना केवल हम गंभीरता से लेते हैं, बल्कि इनके कुचक्र में फंस कर हम स्वयं के निर्णयों पर भी सशंकित हो उठते हैं.
हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था अपने भीतर ही कमियां ढूंढने लगती है और ऐसा करके हमारा राजनैतिक नेतृत्व राष्ट्रहित में उठाए जाने वाले बेहद आवश्यक निर्णय को भी लेने से कतराने लगता है और वास्तिवकता में इतने से ही वामपंथी और इस्लामिक ताकतों के गठजोड़ की पैरोकारी करने वाले इन संस्थानों का उद्देश्यों की पूर्ति हो जाती है.
हमें यह समझने की आवश्यकता है कि जिन मीडिया संस्थानों द्वारा अफगानिस्तान में तालिबान के बर्बर जुल्मों पर चुप्पी साध ली जाती है, जो चीन द्वारा तानाशाही व्यवस्था के अंतर्गत की जा रही बर्बरता पर नरम रुख अख्तियार करता हो, और जो पाकिस्तानी आतंकवाद पर दोहरा चरित्र रखता हो वो सही मायने में निष्पक्ष रुप से भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की भीतर की जटिलताओं का वास्तविक विश्लेषण नहीं कर सकता है.
हमें समझना होगा कि यह दुष्प्रचार तंत्र हमारे राष्ट्रहित के विषयों को लक्षित कर हमारे भीतर संशय उत्पन्न करने के लिए कार्यरत है.
इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी अगर यह कहा जाए कि हर छोटी- छोटी बात पर भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था और उसके सांस्कृतिक मूल्यों को कटघरे में खड़े करने वाली यह व्यवस्था वास्तिवकता में केवल वामपंथी और इस्लामिक गठजोड़ के नेतृत्वकर्ताओं के हाथ की कठपुतली भर है और हमें अपने राष्ट्र की अखंडता और संप्रभुता की रक्षा हेतु अति आवश्यक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु निर्णय लेने में ऐसे संस्थानों के पक्षपाती विश्लेषण और अवधारणाओं को अनदेखा करने की आवश्यकता है.