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सबके भाऊ….. राजाभाऊ

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नर्मदा साहित्य मंथन के प्रथम दिवस “एक भूला सा सेनानी” शीर्षक से नाट्य मंचन हुआ था, नाट्य मंचन सतीश दवे जी की मंडली ने किया था. यह नाट्य गोवा मुक्ति आंदोलन में बलिदान देने वाले संघ के प्रचारक राजाभाऊ महाकाल के बलिदान पर आधारित था.

नाट्य मंचन कैसा था? ऐसा कि जैसा कभी नहीं देखा. ऐसा कि आंखों से क्षिप्रा न रुके, ऐसा कि जिसने सबको हिला दिया, ऐसा कि जैसे राजाभाऊ सामने ही आ गए. नाटक से ऐसा आत्मीयता पूर्ण संबंध बना कि अपने सबके भाऊ …. राजाभाऊ है.

संघ के भाषणों में सुना था, मध्यभारत की संघ की पहली शाखा महाकाल मंदिर के पास के मैदान में लगी थी, जहां आज भारत माता मंदिर, महाकालेश्वर भक्त निवास और शिशु मंदिर है. संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी ने दिगंबरराव तिजारे जी को मध्यभारत में संघ कार्य के लिए भेजा था और उनकी शाखा टोली के सदस्यों में राजाभाऊ भी थे.

जब नाटक में राजाभाऊ को शाखा में देरी से आने पर तिजारे जी जब तक विश्राम की आज्ञा न हो तब तक दक्ष में खड़े रहने की आज्ञा देते हैं और फिर शाखा के बाद स्वयंसेवकों के साथ भूलवश बिना विश्राम दिए संघ स्थान से चले जाते हैं तो रात्रि में भयंकर वर्षा में भी राजाभाऊ खुले मैदान में दक्ष में खड़े रहते हैं. जब राजाभाऊ की मां उन्हे ढूंढते हुए तिजारे जी के पास आती है, तब तिजारे जी को ध्यान आता है और वे दौड़कर महाकाल मैदान में जाते हैं. भयंकर बारिश में भी राजाभाऊ दक्ष की आदर्श स्थिति में खड़े थे और जब नाटक में तिजारे जी भाऊ को गले लगाते हैं तो अहो! पूरे सदन के प्राण जैसे हलक में आ गए थे.

संघ का प्रतिकूल समय आया. तो प्रचारकों ने घर जाना अस्वीकार कर अलग-अलग कार्य किए, राजाभाऊ ने सोनकच्छ में होटल चलाई थी और वही राष्ट्र कार्य करने वालों का योजना केंद्र भी थी.

हमने देखा राजाभाऊ डॉक्टर नहीं थे, पर वो अपने प्रत्येक कार्यकर्ता के घर स्वास्थ्य का समाचार लेने जाते. वे वकील नहीं थे, पर सब उनसे प्रशासनिक सलाह लेते, वे सोनकच्छ, पीपलरावा, गंधर्वपुरी सभी क्षेत्रों में सभी के भाऊ थे.

वे कुछ नहीं थे पर वे सब कुछ थे, क्योंकि वे प्रचारक थे.

गोवा मुक्ति आंदोलन के समय उनकी तेजस्विता, उनकी दूरदर्शिता भी दिखती है और देश के लिए प्राणार्पण करने की उनकी आतुरता. अहा! जब उनकी अस्थियां आती हैं तब का दृश्य! कौन नहीं रोया था, वो बिटिया जिसके लिए भाऊ आम तोड़ते थे. वो वृद्ध दादा जिनकी चिट्ठियां भाऊ पढ़ते थे, वे माताएं जिनके राजभाऊ पुत्रवत थे, वे स्वयंसेवक जिन्हें राजाभाऊ ने गढ़ा था और राष्ट्रकार्य हेतु बढ़ाया था या वो चिन्मयी भारती, जिसकी स्वतंत्रता को वे आहूत हो गए थे.

“एक भूला सा सेनानी” नाट्य मंचन ने हमारे पुरखे का स्मरण हमें करा दिया, स्वयं पर भी इस बात का गर्व हो रहा था कि हम उस परंपरा के अंश हैं, जिसकी नींव में राजाभाऊ जैसे जीवन है.

अब देवास जाने पर सिर अपने आप झुकेगा, अपने पूर्वज के प्रति अपार श्रद्धा के कारण, और गर्व से उठेगा उनके महान जीवन के कारण.

नर्मदा साहित्य मंथन ने अपने पूर्वज से मिलाया, अपने “स्व” का भाव बढ़ाया, यहीं मंथन का अमृत है.

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