करंट टॉपिक्स

फिल्म समीक्षा – जातिवाद का धीमा जहर दे रही “भीड़”

Spread the love

प्रवासी मजदूरों के नाम पर दर्शकों के साथ भावनात्मक खिलवाड़ !

फिल्म समीक्षा – “भीड़”

कलाकार : पंकज कपूर, आशुतोष राणा, राजकुमार राव, भूमि पेडणेकर, दीया मिर्जा, आदित्य श्रीवास्तव, कृतिका कामरा, वीरेंद्र सक्सेना

निर्देशक : अनुभव सिन्हा

कोरोना काल के लंबे समय बाद चर्चित फिल्म निर्देशक अनुभव सिन्हा अपने निर्देशन में प्रवासी मजदूरों के दर्द को चित्रित करने के नाम पर फिल्म “भीड़” दर्शकों के सामने लाए हैं. लेकिन यह फिल्म मजदूरों के दर्द से ज्यादा एक एजेंडे को नैरेटिव के तहत परोसती हुई नजर आ रही है. फिल्म में प्रवासी मजदूरों के दर्द एवं विभीषिका की आड़ में समाज को तोड़ने का षड्यंत्र रचा गया है, साथ ही बेहद असंवेदनशील तरीके से तत्कालीन परिस्थितियों को प्रस्तुत किया गया है एवं मजदूरों के साथ भावनात्मक खिलवाड़ किया गया है. फिल्म की स्टोरी बहुत ही कमजोर है. यहां तक कि किरदारों के डायलॉग भी हवा में गोते खाते हुए नजर आ रहे हैं. शायद जातिवाद के चक्कर में अनुभव मजदूरों का दर्द बयां करना ही भूल गए.

कहानी

भीड़ फिल्म कोरोना काल में महानगरों से अपने घरों की ओर पलायन करते हुए मजदूरों की दास्ताँ को लेकर बनाई गई है. इस फिल्म में मजदूरों से जुड़ी अलग-अलग कहानियों को एक टोल नाके पर केंद्रित करके दिखाया गया है. लॉकडाउन की घोषणा होते ही जब शहरों से मजदूर अपने गांव की ओर लौट रहे होते हैं, तभी उन्हें एक टोल नाके पर रोक दिया जाता है. जहाँ फिल्म के मुख्य किरदार के रूप में राजकुमार राव एक पुलिस सब इंस्पेक्टर की भूमिका में नजर आते हैं. इस किरदार की कहानी में भी बड़ी ही सफाई के साथ नैरेटिव को दर्शकों के सामने परोसा जाता है, जिसमें यह पुलिस का जवान अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखता है. जिसके कारण उसे समय समय पर सामान्य वर्ग की जातियों के लोगों द्वारा अपमानित करते हुए दिखाया गया है. कोरोना काल में जहां पुलिस के जवानों द्वारा अपनी जान हथेली पर रख कर लाखों मजदूरों की जान बचाई, वहीं इस फिल्म में पुलिस की सीधी भिड़ंत प्रवासी मजदूरों से होती हुई दर्शायी गई है.

एक विशेष एजेंडे को प्रोत्साहित करने के लिए फिल्म में जगह-जगह, जबर्दस्ती गैर जरूरी जातिवादी डायलॉग डाले गए जो दर्शकों की नाराजगी का कारण बनते हुए दिखाई दे रहे हैं. इसके अलावा फिल्म में एक रिपोर्टर और उसकी टीम है, जो दुनिया को सच दिखाने की पुरजोर कोशिश में है. लेकिन इसके बीच में मीडिया की कार्यप्रणाली को सवालिया निशान खड़ा करते हुए एक संवाद फिल्म में जोड़ा गया है, जिसमें फिल्म के मुख्य किरदार राजकुमार राव मीडिया कर्मी को अपने डायलॉग के साथ यह साबित करते हुए दिखाई देते हैं कि लॉकडाउन के समय में मीडिया कर्मियों ने मजदूरों की असल कहानियों की जगह भी हिन्दू मुस्लिम एंगल की ही कहानियों के समाचार अपने चैनलों पर प्रसारित किए हैं. फिल्म में एक हाई सोसायटी से आती मां की कहानी भी है, जो हॉस्टल में फंसी अपनी बेटी को लेने निकली है. लेकिन इस कहानी के बीच भी पूंजीवाद और समाजवाद को जबर्दस्ती डाला गया है. इस हाई सोसायटी से आने वाली मां के किरदार को फिल्म में ऐसे दिखाया गया है जैसे अमीर लोग गरीबों की भावनाओं की कद्र न करते हुए केवल उनका उपयोग करते हैं.

निर्देशन

मुल्क और आर्टिकल 15 जैसी फिल्मों का निर्देशन कर चुके निर्देशक अनुभव सिन्हा ने प्रवासी मजदूरों की संवेदनशील कहानियों में गैर जरूरी जातिवाद के जहर को परोसते हुए समाज में भेदभाव फैलाने वाला निर्देशन किया है. उनके इस निर्देशन को फिल्मों की आम समझ रखने वाला दर्शक भी आसानी से समझ सकता है. कोरोना त्रासदी के दौरान हर व्यक्ति की अपनी एक कहानी है, लेकिन उस घटना के सकारात्मक पक्षों को नजरअंदाज करते हुए अनुभव सिन्हा ने इस फिल्म का निर्देशन किया है.

फिल्म की कहानी कमजोर होने के कारण राजकुमार राव, आशुतोष राणा, पंकज कपूर, भूमि पेडणेकर, दीया मिर्जा, आदित्य श्रीवास्तव, कृतिका कामरा, वीरेंद्र सक्सेना जैसे प्रतिभावान कलाकार भी अपनी एक्टिंग के साथ न्याय नहीं कर सके. राजकुमार राव सब इंस्पेक्टर के रोल से ज्यादा किसी जाति के ठेकेदार ज्यादा नजर आए. वहीं, आशुतोष राणा अपनी जिस खासियत के लिए जाने जाते है कि उन्हें कैसा भी किरदार मिल जाए, वे उस किरदार के साथ पूरा न्याय करते हैं.

इतने संवेदनशील और आम जनता से जुड़े मुद्दे पर प्रतिभावान कलाकारों को साथ रख कर बनाई गई फिल्म दर्शकों का रुझान शायद इसलिए मिल रहा क्योंकि फिल्म में कहानियों के बीच नामुनासिब एजेंडे को डालने का प्रयास किया गया है जो दर्शकों को हकीकत से दूर दिखाई दे रहा है. आज जहाँ दक्षिण भारत की फिल्में समाज में एक रूपता और समाज के बीच की सकारात्मक कहानियों को लेकर आ रही हैं, जिन्हें सिल्वर स्क्रीन पर दर्शकों का खूब प्यार मिल रहा है, वहीं अब भी बॉलीवुड में बैठे लोग समाज को तोड़ने का काम करने वाले नैरेटिव जीवियों के इशारे पर चल कर सामाजिक झूठ फिल्मों के नाम से फैलाने का काम कर रहे हैं. कमोवेश यही कारण है कि दर्शकों का रुझान बॉलीवुड से दूर और टॉलीवुड की तरफ बढ़ते हुए नजर आ रहा है.

समीक्षक – अंकित शर्मा

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *