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राष्ट्रगौरव की पुनर्प्रतिष्ठा का संकल्प लेने का अवसर गुरु वंदन उत्सव

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गुरु के प्रतीक – प्राणी, प्रकृति, ग्रंथ और ध्वज

रमेश शर्मा

आरंभिक काल में गुरु परंपरा के वाहक अधिकाँश ऋषि गणों का उल्लेख मिलता है, पर समय के साथ इसका विस्तार हुआ. गुरु केवल ऋषि ही बनें अथवा जीवन में केवल एक ही गुरु हो, यह बंधन कभी नहीं रहा. एक से अधिक गुरु और ऋषियों से इतर किसी प्रतीक या अन्य को भी गुरु मानने की परंपरा रही है. यहाँ तक की पशु पक्षी और सेवक के अतिरिक्त कोई प्रतीक जैसे यज्ञ, ग्रंथ और ध्वज को भी गुरु का मानने की परंपरा आरंभ हुई.

भगवान् दत्तात्रेय जी के चौबीस, भगवान् परशुराम जी के सात और राजा जनक के तीन गुरु होने का वर्णन मिलता है. भगवान् दत्तात्रेय की चौबीस गुरु संख्या में पृथ्वी, जल, अग्नि आकाश भी हैं. उन्होंने मधुमक्खी, श्वान् आदि को भी अपना गुरु माना, जिनसे उन्होंने कार्य संकल्प की सीख लेने का संदेश दिया. दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने अपने पिता महर्षि भृगु के साथ यज्ञ को भी गुरु माना. राजा जनक के तीन गुरु संख्या में प्रतीक के रूप में वेद भी गुरु हैं. ऋषिका देवहूति ने अपने पुत्र कपिल मुनि को गुरु रूप में स्वीकारा तो ऋषि कहोड़ ने अपने पुत्र अष्टावक्र को गुरु समान आदर दिया.

आदि शंकराचार्य जी ने एक चाँडाल को गुरु समान आदर दिया और पंचकम् की रचना की. स्वामी विवेकानंद ने खेतड़ी की नृत्यांगना को माँ कहकर पुकारा और गुरु का सम्मान दिया. इसी परंपरा के अंतर्गत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने “भगवा ध्वज” को गुरु रूप में स्वीकारा. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक गुरु पूर्णिमा पर भगवा ध्वज का ही पूजन करते हैं.

संघ की स्थापना के तीन वर्ष बाद गुरु पूजन की यह परंपरा आरंभ हुई. भारत में यह ध्वज पूजन परंपरा पहली नहीं है. भारत में अनादि काल से ध्वज को सम्मान का प्रतीक माना और इसकी रक्षा के लिये प्राणोत्सर्ग करने की घटनाओं से प्राचीन ग्रंथ भरे पड़े हैं. ध्वज नायक या राज्य की पहचान का प्रतीक थे, जैसे गरुड़ ध्वज नारायण की, अरुण ध्वज सूर्य की पहचान रहे हैं.

ध्वज को राष्ट्र के प्रतीक के रूप में वंदन करने की परंपरा आचार्य चाणक्य के समय आरंभ हुई. आचार्य चाणक्य ने भगवा ध्वज को भारत राष्ट्र की पहचान और मान का प्रतीक प्रमाणित किया. ज्ञान के लिये शब्द और स्वर के साथ प्रतीक भी माध्यम होते हैं. उसी प्रकार व्यक्ति, परिवार समाज और राष्ट्र संस्कृति के स्वत्व की पहचान का प्रतीक ध्वज होता है.

गरुड़ ध्वज से नारायण और अरुण ध्वज से सूर्य की पहचान होती है. उसी प्रकार भगवा ध्वज भारत राष्ट्र की पहचान है. भगवा अग्नि शिखा का रंग होता है, सूर्योदय की आभा ऊषा का रंग होता है जो समता समानता का द्योतक होता है. अग्नि सभी को एकसा ताप देती है. सूर्य सबको समान प्रकाश और ऊर्जा देता है. स्वाभिमान के जागरण का प्रतीक शब्द ‘ध्वज’ संस्कृत की “ध्व” धातु से बनता है. इसका आशय धरती की केन्द्रीभूत शक्ति होता है. इसे धारण करने के कारण ही ऋग्वेद में धरती के लिये “धावा” उच्चारण आया है. भगवा ध्वज भारत राष्ट्र का प्रतीक है, इसकी कोई राजनैतिक अथवा क्षेत्र विशेष की सीमा नहीं है. यह शिक्षा संस्कार, सात्विकता और स्वाभिमान का प्रतीक है.

भारत ने पूरी धरती के निवासियों को एक कुटुम्ब माना. इसलिए भारत ने कभी भी, किसी भी युग में राजनैतिक या साम्राज्य विस्तार के लिये कोई युद्ध नहीं किया. जो युद्ध हुए वे सुरक्षा के लिये हुए अथवा धर्म, नैतिकता और संस्कृति की रक्षा के लिए हुए. वह भी आक्रामक नहीं, केवल सुरक्षात्मक. ये युद्ध भी तब हुए, जब शाँति के सभी मार्ग अवरुद्ध हो गए. इन युद्धों में सिद्धांत स्वाभिमान के साथ ध्वज का सम्मान सर्वोपरि रहा.

ध्वज भूमि पर न गिरे, इसके लिये कितने लोगों ने अपने प्राणों की आहुतियाँ दी हैं. यह हमने राम रावण युद्ध, महाभारत युद्ध से लेकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी देखा. ध्वज किसी भी राष्ट्र और संस्कृति के गौरव और सम्मान का प्रतीक माना गया है. इससे आत्मगौरव और स्वाभिमान का भी बोध होता है. यह राष्ट्र और स्वाभिमान बोध ही है जो व्यक्ति को स्वत्व सम्मान की स्थापना के लिये प्रेरित करता है. यह बात आचार्य चाणक्य ने कही थी और इसी को आगे बढ़ाया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी ने. उन्होंने कहा था “जो आत्मबोध कराए वह गुरु है, मनुष्य या प्राणी का जीवन तो सीमित होता है. समय और आयु अवस्था उनकी क्षमता और ऊर्जा को प्रभावित करती है, अतःएव गुरु चिरंजीवी होना चाहिए”.

अष्टावक्र से मिले आत्मज्ञान के बाद इसी भाव के अनुरूप राजा जनक ने वेद को भी गुरु तुल्य आसन दिया. गुरुग्रंथ साहिब को गुरु स्थान का सम्मान देना इसी परंपरा का पालन है.

लेकिन वर्तमान परिस्थिति में जितनी आवश्यकता आत्मज्ञान की है, उससे अधिक आवश्यकता स्वत्व के बोध और राष्ट्र के स्वाभिमान जागरण की है. उधार के सिन्दूर से कोई सौभाग्यवती नहीं हो सकती, बैसाखियों के सहारे कोई पर्वत की चोटी पर नहीं जा सकता. उसी प्रकार कोई व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र अपने स्वत्व से दूर होकर प्रतिष्ठित नहीं हो सकता. यह भगवा ध्वज प्रत्येक भारतीय को उसके स्वत्व और स्वाभिमान का बोध कराता है. व्यक्तिगत ज्ञान के लिये किन्हीं ऋषि तुल्य विभूति से दीक्षा लेना आवश्यक है, पर राष्ट्र स्वाभिमान जागरणकर्ता के रूप में ध्वज के अतिरिक्त कोई प्रतीक नहीं हो सकता.

आज जीवन की आपाधापी है. भौतिक सुख सुविधाओं के संघर्ष में आत्मगौरव कहीं छूट रहा है. इसके लिये आवश्यक है कि गुरु पूर्णिमा पर केवल गुरु वंदन-पूजन तक सीमित न रहें. प्रत्येक व्यक्ति कम से कम एक बार आत्म चिंतन अवश्य करे – स्वयं के बारे में, अपने परिवार के बारे में, अपनी परंपराओं के बारे में और अपने राष्ट्रगौरव के बारे में. और यदि कहीं चूक हो रही है तो उसकी पुनर्प्रतिष्ठा कैसे की जाए, इसका संकल्प लिया जाए. तभी गुरु पूर्णिमा पर गुरु वंदन सार्थक होगा.

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