कोल्हापुर. कोल्हापुर के शिरोल तहसील के हेरवाड़ गांव द्वारा विधवापन की प्रथा बंद करने को लेकर लिया गया निर्णय सराहनीय और अनुकरणीय है.
सन् 1829 में, राजा राम मोहन राय और लॉर्ड विलियम बेंथिक के प्रयास सफल रहे और भारत में सती प्रथा का अंत हो गया.
धीरे-धीरे सती प्रथा कम हो गई और विधवा के बाल काटकर लाल कपड़ों में लपेटा गया. कम उम्र में अपने पति की मृत्यु के बाद, विधवा के लिए अपना शेष जीवन अकेले, समाज की जहरीली नजरें सहन करते हुए और युवावस्था के सारे भोग सहते हुए जीना वास्तव में कठिन था. फिर उसी कारण कुछ स्वेच्छा से, कुछ परिवार के दबाव में, अपने खाली माथे पर लाल कपड़े का पल्लू ओढ़े रहती थी. कभी गरीबी के कारण निर्वाह की चिंता, कभी किसी देवर या ससूर की बुरी नजर, कभी कम उम्र में लगी बांझपन की मुहर, महिलाएं अलग-अलग दौर में विधवा का जीवन जीती रही. काकस्पर्श और पांघरूण जैसी मराठी फिल्मों में इस अनिवार्यता का करुण चित्रण हमने देखा है.
ऐसी हर घटना के समय दमनकारी प्रथा और परंपराओं के खिलाफ कानून हैं! लेकिन कोई भी प्रथा केवल कानून या दस्तावेजों को बदलकर नहीं बदली जा सकती है. इसके लिए समाज के हर वर्ग का अपनी मानसिकता में आमूलचूल परिवर्तन लाना बहुत आवश्यक है. आज पुणे और मुंबई जैसे बड़े शहरों में विधवा प्रथा बहुत पीछे छूट चुकी है. आधुनिक युग में रहने वाली महिला अपने पहनावे के अनुसार कुमकुम, चूड़ियां और मंगलसूत्र पहनने के लिए स्वतंत्र है. लेकिन गांवों में स्थिति अभी भी बहुत अलग है. वहां, महिलाएं पढ़ी-लिखी हैं, यहां तक कि सेना में शामिल होने तक वे आगे जा चुकी हैं. लेकिन वहां अभी भी पुरानी परंपराओं को प्राथमिकता दी जाती है. कुछ अपरिहार्य कारण हो भी सकते हैं, लेकिन ग्रामीण महिलाएं अभी भी आधुनिक विचारों से दूर हैं, यह कड़वा सच स्वीकार करना ही होगा.
और इसीलिए हेरवाड़ गांव द्वारा विधवापन की प्रथा को रोकने के लिए लिया गया निर्णय विशेष रूप से उल्लेखनीय है. कोई भी परिवर्तन समाज के स्तर से ही आगे बढ़ता है. हमारी संस्कृति का प्रवाह भी ग्रामीण से शहरी क्षेत्रों की ओर बहता रहा है. और इसलिए संस्कृति के पहले चरण में यह परिवर्तन निस्संदेह पूरे समाज के लिए एक दिशा होगी.
धर्म के नाम पर थोपी गई अवांछित प्रथाओं को त्यागने वाले हेरवाड़ के गांव को महाराष्ट्र की धरती का शिखर कहा जाना चाहिए, यह निश्चित है..
आसावरी देशपांडे जोशी