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संघ कितना राजनीतिक?

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लोकेन्द्र सिंह

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस विजयादशमी पर अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है. स्वतंत्रता सेनानी डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने वर्ष 1925 में जो बीज बोया था, आज वह वटवृक्ष बन गया है. उसकी अनेक शाखाएं समाज में सब दूर फैली हुई हैं. संघ लगातार दसों दिशाओं में बढ़ रहा है. 100 वर्ष की अपनी यात्रा में संघ ने समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में राष्ट्रीय भाव का जागरण किया है, जिसमें राजनीतिक क्षेत्र भी शामिल है. हालांकि, संघ विशुद्ध सांस्कृतिक एवं सामाजिक संगठन है. इसके बाद भी संघ के संबंध में कहा जाता है कि भारतीय राजनीति में उसका गहरा प्रभाव है.

दरअसल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को निकटता से नहीं जानने वाले लोग इस विषय पर भ्रम फैलाने का काम करते हैं. राजनीति का जिक्र होने पर संघ के साथ भारतीय जनता पार्टी को नत्थी कर दिया जाता है. भाजपा, संघ परिवार का हिस्सा है, इस बात से किसी को इनकार नहीं है. लेकिन, भाजपा के कंधे पर सवार होकर संघ राजनीति करता है, यह धारणा बिलकुल गलत है. देश के उत्थान के लिए संघ का अपना लक्ष्य है, सिद्धांत है, जब राजनीति उससे भटकती है. तब संघ समाज से प्राप्त अपने प्रभाव का उपयोग करता है. सरकार चाहे किसी की भी हो. यानी संघ समाज शक्ति के आधार पर राजसत्ता को संयमित करने का प्रयास करता है. अचम्भित करने वाली बात यह है कि कई विद्वान संघ के विराट स्वरूप की अनदेखी करते हुए मात्र यह साबित करने का प्रयास करते हैं कि भाजपा ही संघ है और संघ ही भाजपा है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 1925 से 1948 तक राजनीतिक क्षेत्र में काम करने के विषय में सोचा भी नहीं था. राजनीति, संघ की प्राथमिकता में आज भी नहीं है. संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार से जब किसी ने पूछा कि संघ क्या करेगा? तब डॉक्टर साहब ने उत्तर दिया – “संघ व्यक्ति निर्माण करेगा”. अर्थात् संघ समाज के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करने के लिए ऐसे नागरिकों का निर्माण करेगा, जो अनुशासित, संस्कारित और देश भक्ति की भावना से ओतप्रोत हों. महात्मा गांधी की हत्या के बाद जब संघ को कुचलने के लिए राजनीति का निर्लज्ज उपयोग किया गया, तब पहली बार यह विचार ध्यान में आया कि संसद में संघ का पक्ष रखने वाला कोई राजनीतिक दल भी होना चाहिए. क्योंकि स्वयंसेवकों को बार-बार यह बात कचोट रही थी कि गांधी जी की हत्या के झूठे आरोप लगाकर विरोधियों ने सत्ता की ताकत से जिस प्रकार संघ को कुचलने का प्रयास किया है, भविष्य में इस तरह फिर से संघ को परेशान किया जा सकता है. राजनीतिक प्रताड़ना के बाद ही इस बहस ने जन्म लिया कि संघ को राजनीति में हस्तक्षेप करना चाहिए. विचार-मन्थन शुरू हुआ कि आरएसएस स्वयं को राजनीतिक दल में बदल ले यानी राजनीतिक दल बन जाए या राजनीति से पूरी तरह दूर रहे या किसी राजनीतिक दल को सहयोग करे या फिर नया राजनीतिक दल बनाए. स्वयं को राजनीतिक दल में परिवर्तित करने पर संघ का विराट लक्ष्य कहीं छूट जाता. उस समय कोई ऐसा राजनीतिक दल नहीं था, जो संघ की विचारधारा के अनुकूल हो. इसलिए किसी दल को सहयोग करने का विचार भी संघ को त्यागना पड़ा. इसी बीच, कांग्रेस की गलत नीतियों से मर्माहत होकर 8 अप्रैल, 1950 को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल से इस्तीफा देने वाले डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी संघ के सरसंघचालक श्रीगुरुजी के पास सलाह-मशविरा करने के लिए आए थे. वे नया राजनीतिक दल बनाने के लिए प्रयास कर रहे थे. श्रीगुरुजी से संघ के कुछ कार्यकर्ता लेकर डॉ. मुखर्जी ने अक्तूबर, 1951 में जनसंघ की स्थापना की. वर्ष 1952 के आम चुनाव में जनसंघ ने एक नये राजनीतिक दल के रूप में भाग लिया.

जनसंघ को मजबूत करने में संघ के प्रचारक नानाजी देशमुख, बलराज मधोक, भाई महावीर, सुंदरसिंह भण्डारी, जगन्नाथराव जोशी, लालकृष्ण आडवाणी, कुशाभाऊ ठाकरे, रामभाऊ गोडबोले, गोपालराव ठाकुर और अटल बिहारी वाजपेयी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. संघ के कार्यकर्ता ही जनसंघ का संचालन कर रहे थे, इसलिए संघ ने जनसंघ को स्वतंत्र छोड़कर दूसरे आयामों पर अधिक ध्यान देना जारी रखा. साल में एक बार दीनदयाल उपाध्याय और श्रीगुरुजी बैठते थे. दीनदयाल जी, गुरुजी को जनसंघ के संबंध में जानकारी देते थे. श्रीगुरुजी कुछ आवश्यक सुझाव भी पंडित जी को देते थे. जनसंघ से भाजपा तक आपसी संवाद की यह परम्परा आज तक कायम है. अब इसे कुछ लोग ‘संघ की क्लास में भाजपा’ कहें, तो यह उनकी अज्ञानता ही है. इस संदर्भ में श्रीगुरुजी के कथन को भी देखना चाहिए. उन्होंने 25 जून, 1956 को ‘ऑर्गनाइजर’ में लिखा था – “संघ कभी भी किसी राजनीतिक दल का स्वयंसेवी संगठन नहीं बनेगा. जनसंघ और संघ के बीच निकट का संबंध है. दोनों कोई बड़ा निर्णय परामर्श के बिना नहीं करते. लेकिन, इस बात का ध्यान रखते हैं कि दोनों की स्वायत्तता बनी रहे”.

वर्ष 1975 लोकतंत्र के लिए काला अध्याय लेकर आया था. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल लाद दिया. संघ ने इसका पुरजोर तरीके से विरोध किया. संघ के कार्यकर्ताओं पर आपातकाल में बड़ी क्रूरता से अत्याचार किए गए. इसके बाद भी संघ लोकतंत्र की रक्षा के लिए आपातकाल का विरोध करता रहा. वर्ष 1977 में जनता पार्टी का गठन किया गया. जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया. लेकिन, कम्युनिस्टों ने ऐसी परिस्थितियां खड़ी कर दी कि जनसंघ के नेताओं को जनता पार्टी से बाहर आना पड़ा. सन् 1980 में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्र की संप्रभुता के विषयों पर लगातार चिंतन करता रहता है. संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा और अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल अनेक अवसर पर भारतीय राजनीति को संदेश देने के प्रस्ताव पारित कर चुके हैं. संघ के प्रयत्नों के कारण ही देश में आज समान नागरिक संहिता पर बहस जारी है.

वहीं, जम्मू-कश्मीर से स्थायी दिखने वाली ‘अस्थाई’ अनुच्छेद-370 एवं 35ए समाप्त किए जा सके हैं. भारत और हिन्दू अस्मिता का प्रतीक श्रीराम जन्मभूमि का मुद्दा भी संघ की ताकत के कारण ही राजनीतिक बहसों में शामिल हो सका, जिसका परिणाम आज अयोध्या में भव्य श्रीराम मंदिर के रूप में हमें दिखायी दे रहा है. चुनाव प्रक्रिया में धन के प्रभाव को रोकने और अपराधियों के चुनाव लड़ने को प्रतिबंधित कराने के लिए संघ ने सामाजिक अभियान चलाया. इस संबंध में प्रतिनिधि सभा के वर्ष 1996 के प्रस्ताव को देखना चाहिए, जो राजनीति और भ्रष्टाचार पर केन्द्रित था. वर्तमान में गोहत्या पर बहस छिड़ी हुई है. गौ-संरक्षण के लिए संघ ने अथक प्रयास किए हैं. संघ के आंदोलनों से बने जन दबाव के कारण कांग्रेस सरकारों को भी राज्यों में गोहत्या प्रतिबंध के संबंध में कानून लागू करने पड़े. असम और पश्चिम बंगाल में 1950 में, तत्कालीन बंबई प्रांत में 1954 में, उत्तर प्रदेश, पंजाब और बिहार में 1955 में गौहत्या प्रतिबंध संबंधी कानून बनाये गए, उस वक्त वहां कांग्रेस की सरकारें थीं. इसी तरह कांग्रेस के समय में ही तमिलनाडु में 1958 में, मध्यप्रदेश में 1959 में, ओडिशा में 1960 में तो कर्नाटक में 1964 में संबंधित कानूनों को लागू किया गया.

जब कभी भारतीय राजनीति असंतुलित हुई है, संघ ने हस्तक्षेप किया है. अर्थात् सरकारों ने वोट बैंक की राजनीति के फेर में जब-जब राष्ट्रीय एकता के मूल प्रश्न की अनदेखी की है. तब-तब संघ ने हस्तक्षेप किया है. भाजपा भले ही संघ परिवार का हिस्सा है, लेकिन संघ ने स्वयं को दलगत राजनीति से हमेशा दूर ही रखा है. देश की सामयिक परिस्थितियों और राजनीति के प्रति संघ सजग रहता है. राजनीति समाज के प्रत्येक अंग को प्रभावित करती है. संघ इसी समाज का सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन है. इसलिए संघ और राजनीति का संबंध स्वाभाविक भी है.

‘संघ और राजनीति’ पुस्तक के लेखक एवं राज्यसभा सांसद प्रो. राकेश सिन्हा कहते हैं – “सांस्कृतिक संगठन का तात्पर्य झाल-मंजीरा बजाने वाला संगठन न होकर राष्ट्रीयता को जीवंत रखने वाला आंदोलन है. इसीलिए आवश्यकतानुसार संघ राजनीति में हस्तक्षेप करता है, जो आवश्यक और अपेक्षित दोनों है”.

हम समझ सकते हैं कि संघ राजनीति का उपयोग इतना भर ही करता है कि उसके मार्ग में बेवजह अड़चन खड़ी न की जाए. मिथ्या आरोप संघ पर न लगाए जाएं. संघ के पास राजनीतिक शक्ति नहीं है, यह सोचकर कोई उसके वैचारिक आग्रह की अनदेखी न कर सके. एक बात स्पष्ट तौर पर समझ लेनी चाहिए कि संघ सीधे चुनाव में भाग नहीं लेता है और भविष्य में भी नहीं लेगा. संघ का राजनीति में प्रभाव अपनी उस ताकत से है, जो अपने 100 वर्ष के कार्यकाल में जनता के भरोसे से हासिल हुई है. देश के खिलाफ कोई ताकत खड़ी होने का प्रयास करती है, तब सम्पूर्ण समाज संघ की ओर उम्मीद से देखता है. संकट के समय में भी संघ से ही मदद की अपेक्षा समाज करता है.

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