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कैसे भारत के जनजातीय समाज को ‘आदिवासी’ बनाया जा रहा है..?

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09 अगस्त को “विश्व मूलनिवासी दिवस” मनाया जा रहा है. भारत में “विश्व आदिवासी दिवस” के रूप में मनाया जाता है. देश के विभिन्न हिस्सों में बड़े उत्साह से मनाया जाता है, विशेषकर उन प्रदेशों में जहाँ कथित आदिवासी समाज यानि जनजाति समाज रहता है.

अब यह कथित आदिवासी समाज क्या होता है? इसके लिए हमें सबसे पहले आदिवासी शब्द का अर्थ समझने का प्रयास करना होगा. आदिवासी, यह संस्कृत के दो शब्दों से मिलकर बना है, “आदि” और “वासी”. आदि का अर्थ है – अनंत समय से और वासी का अर्थ तो समझते ही हैं.

भारत में जनजाति समाज को आदिवासी समाज के रूप में संबोधित किया जाता है. लेकिन क्या ये सही है? क्या भारत के सभी नागरिक आदिकाल से भारत के निवासी नहीं हैं? और चूँकि 9 अगस्त विश्व मूलनिवासी दिवस के रूप में घोषित है, जिसे भारत के जनजाति समुदाय से जोड़कर इसे “आदिवासी दिवस” के रूप में मनाया जाता है, तो क्या भारतीय परिपेक्ष्य में यह उचित है?

इस बात को कहने का आधार यह है कि जब हम दुनिया की किसी भी मानवीय सभ्यता को देखते हैं तो विकास के मुख्य रूप से तीन क्रम नज़र आते हैं, वन में निवास करने वाले वनवासी, गांवों में निवास करने वाले ग्राम वासी और शहरों में निवास करने वाले नगरवासी. लेकिन, मूल में जाकर देखें तो एक देश में नगर, ग्राम और वन सभी हैं, वहाँ तीनों श्रेणियों में लोग रहते हैं, तो वो सभी उस देश के मूलनिवासी ही हैं.

यदि हम भारतीय संवैधानिक दृष्टि से देखें तो भी यह नज़र आता है कि भारत की संविधान सभा ने वन में रहने वाले वनवासी, गिरिजन या किसी समय में आटविक कहे जाने वाले समाज को आदिवासी नहीं कहा. संविधान सभा में इस समाज को गहरे विमर्श और व्यापक चर्चा के बाद अनुसूचित जनजाति का नाम दिया गया. भारत सरकार आज भी आदिवासी शब्द को किसी भी प्रकार से आधिकारिक दर्जा नहीं देती है.

ऐसे में यदि भारत के जनजाति समाज को हम आदिवासी समाज के रूप में स्थापित करते हैं तो ना सिर्फ यह समाज को बांटता है, बल्कि देश को उसी पुरानी दिशा में ले जाता है. जब बाहरी-मूलनिवासी की थ्योरी से देश को बांटने की कोशिश की जाती रही है.

जनजाति समाज से आने वाले वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर भगत कहते हैं कि “अंग्रेजी का Native शब्द मूल निवासी होने को परिभाषित करता है. Tribal शब्द जनजाति भाव को स्पष्ट करता है. आदिवासी शब्द Native अर्थात मूल होने के भाव के ज्यादा करीब नजर आता है. कम से कम आदिवासी शब्द जनजातियों को तो बिल्कुल रिफ्लेक्ट नहीं करता. दुर्भाग्य की बात ये है कि आजकल वन क्षेत्र में निवास करने वाले सभी समूहों के लिए आदिवासी शब्द बड़ी आसानी से इस्तेमाल हो रहा है. इससे उपजा द्वंद्व विध्वंसकारी है. ये न सिर्फ समाज को, बल्कि राज्य और राष्ट्र को भी बांटने का काम कर रहा है.”

यदि हम आदिवासी शब्द की भी बात करें तो “आदि” “वासी”, यह शब्द मौलिक रूप से संस्कृत के शब्द हैं. किसी भी इतिहास, साहित्य या जनजाति इतिहास, साहित्य, परंपरा, तिथि में यह शब्द शामिल नहीं है. आदिवासी शब्द का उल्लेख प्राचीन और मध्य इतिहास तो छोड़ ही दीजिए, बल्कि 1930 के दशक के पहले किसी शब्दकोश में भी नहीं दिखता.

मोनियर विलियम्स द्वारा 1872 में लिखी गई संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोष और 1899 में आये इसके दूसरे संस्करण में आदिवासी शब्द का कहीं उल्लेख नहीं है. 1890 में आया वामन आप्टे का अंग्रेजी-संस्कृत शब्दकोष हो या 1879 में आया फैलन का शब्दकोष, हमें आदिवासी शब्द कहीं नहीं मिलता है.

आदिवासी शब्द का उल्लेख 1936 में रसेल द्वारा पहली बार मिलता है जो संभवतः भारत में अंग्रेजों द्वारा “बांटो और राज करो” की नीति से प्रभावित था. रसेल ने ही एक समय में भारतीय समाज को बांटने के लिए आर्य-द्रविड़ सिद्धान्त को मजबूती से पेश किया था.

शब्द बड़े अर्थपूर्ण होते हैं. किन्तु, इन्हीं शब्दों से भ्रम पैदा किया जाता है. उदाहरण के तौर पर यही आदिवासी शब्द. इसका उपयोग भारत के वन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए किया जाने लगा है. भ्रामक शब्दों की अधिकता से कभी-कभी वास्तविकता धुंधली नज़र आने लगती है. भारत में जिस तरह से जनजाति समाज को आदिवासी के रूप में पेश किया जाता है, यह तकनीकी तौर पर गलत है.

यदि हम भारत को एक देश के रूप में संयुक्त राष्ट्र में विश्व मूलनिवासी दिवस के परिपेक्ष्य में देखें तो भी यह स्पष्ट होता है कि भारत में मूलनिवासी की जिस अवधारणा का प्रचार किया जा रहा है, वह निराधार है.

भारत ने संयुक्त राष्ट्र में यह कहा है कि “भारत के जितने भी नागरिक हैं वो सभी मूलनिवासी हैं.” हाँ भारत में वनवासी समाज, जिसे अनुसूचित जनजाति के रूप में दर्जा प्राप्त है, जरूर है और जनजाति समाज के अधिकारों और उनकी सुरक्षा के प्रावधान भारतीय संविधान में पहले से निहित हैं.

जिस 9 अगस्त को विश्व मूलनिवासी दिवस मनाया जाता है, उससे भारत के जनजाति समाज का किसी भी तरह का तकनीकी रूप से कोई संबंध नहीं है. सिर्फ इसीलिए कि 1994 में मूलनिवासी अधिकारों से सम्बंधित पहली बैठक हुई थी, यह दिन था FEAST DAY का. इसे बैठक में शामिल कैथोलिक सदस्य देशों ने शुभ दिन माना, जिसके बाद दिसंबर 2007 में 9 अगस्त से विश्व मूलनिवासी दिवस की घोषणा की गई.

यह बात भी सच है कि भारत के जनजाति समाज के लिए सरकार के स्तर पर किसी भी तरह के विशेष दिवस या उत्सव की कोई घोषणा अभी तक नहीं की गई है और साथ ही शब्दों के मायाजाल में फंसकर और फंसाकर जनजाति समाज को “आदिवासी समाज” के रूप में स्थापित किया गया है, जिसकी वजह से उनके पास 9 अगस्त के अलावा कोई ऐसा दिन नहीं है, जिसकी कोई राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय पहचान हो.

इस दिशा में सिर्फ केंद्र सरकार नहीं, बल्कि राज्य सरकारों (जो जनजाति बहुलता क्षेत्र के हैं) को मिलकर इसकी योजना बनानी चाहिए कि भारत के जनजाति समाज के लिए उनके बीच के ही किसी नेता, नेतृत्वकर्ता, आराध्य, तिथि, परंपरा, त्यौहार या किसी विशेष महत्वपूर्ण दिवस को “जनजाति दिवस” के रूप में मनाया जाए. इस दिवस का योग दिवस की तरह व्यापक स्तर पर प्रचार किया जाए, जिससे जनजाति समाज ना सिर्फ औपचारिक रूप से बल्कि भावनात्मक और सामाजिक रूप से भी इस दिवस से खुद को जोड़ सके.

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