मातृ-भू घायल दिखे तब घाव अपने कौन गिनता?
यातनाएँ क्या डिगाएँ मृत्यु तक की नहीं चिंता…
जिन्हें देश के लिए कुछ करना होता है, उन्हें अपने योग्य काम मिल ही जाता है. यह घटना जिस वीर बालक की है, उसने भी अपने लिए राष्ट्रकार्य खोज ही लिया था. वह कार्य था, क्रांतिकारियों का गुप्त संदेशवाहक बनने का काम. यह वह समय था, जब 1931 में महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद प्रयाग के अल्प्रेफड पार्क में आत्म बलिदान देकर अमर हो चुके थे. आजाद का बलिदान सारे देश के राष्ट्रभक्तों के हृदय में स्वतंत्रता की प्रचण्ड आग धधका चुका था. देशभक्तों पर क्रूरतापूर्ण घोर अत्याचार करने वाले अंग्रेज़ अधिकारियों को क्रांतिकारी साहसपूर्वक यमलोक पठा रहे थे. ऐसे में उन्हें बड़ी सतर्कता व गोपनीयता से योजनाएँ बनानी होती थीं क्योंकि अंग्रेज़ी जासूस उन्हें कुत्तों की तरह सूंघते हुए घूमते रहते थे.
वर्ष 1934 राजस्थान के अजमेर नगर में चौदह वर्ष का बालक शंभुनारायण बड़ी ही कुशलता से क्रांतिकारियों को गुप्त सूचनाएँ पहुंचा रहा था. गुप्तचरों को यह शंका तो थी कि हो न हो कोई बच्चा इस काम में क्रांतिकारियों की सहायता कर रहा है, पर वह बच्चा कौन है, यह वे नहीं खोज पा रहे थे. वातावरण अधिक गरमा गया, जब क्रांतिकारी नरहरि बापट ने अजमेर जिला मैजिस्ट्रेट के कार्यालय में घुसकर इंस्पेक्टर जनरल गिब्सन को मौत के घाट उतार दिया. अंग्रेज़ सरकार के मुँह पर यह इकलौता तमाचा न था. और भी कई सरकारी अफसर घात लगते ही काल के गाल में भेज दिए जा रहे थे. परेशान होकर अंग्रेज़ी व्यवस्था में बड़ा बदलाव कर खुफिया विभाग के अधिकारी डी.एस.पी. डोगरा को दिल्ली से अजमेर लाया गया. क्रांतिकारी राम सिंह और मांगीलाल इस अत्याचारी अफसर को खत्म कर देने के लिए चुने गए.
एक दिन जब डोगरा सिनेमा देखने गया, उसकी जिन्दगी का अंतिम दृश्य लिखा जा चुका था. सामने होटल में दोनों क्रांतिकारी जलपान के बहाने बैठे थे और फिल्म समाप्त होने के पहले ही शंभुनारायण दर्शकों की निकासी के दरवाजे पर जा डटा. पिक्चर समाप्त हुई, डोगरा जैसे ही बाहर आया, शंभुनारायण ने संकेत कर दिया. क्रांतिकारी दनादन गोलियाँ दागने लगे. जैसा कि फिल्म छूटने पर होता है, डोगरा के आसपास भीड़ बहुत थी. अतः उसे केवल दो गोलियाँ लगीं. उसका साथी इंस्पेक्टर मारा गया. क्रांतिकारी भागने में असफल रहे, तीनों बन्दी बना लिए गए.
अंग्रेज सरकार के भय से क्रांतिकारियों के मुकद्दमे लड़ने के लिए वकील मिलना भी सरल न था. मथुरा से रामजीदास गुप्ता और शिवशंकर उपाध्याय ने अजमेर आकर व्यवस्था बनाई.
पुलिस को क्रांतिकारियों का नन्हा सहायक मिल गया था. वह उसे कारागृह में कठोर कष्ट देकर क्रांतिकारियों की सब जानकारियाँ प्राप्त करने के लिए राक्षसों जैसी क्रूरता धारण किए थे. अनगिनत कोड़ों से सारा शरीर लहूलुहान, गरम-गरम लोहे की सलाखों से उसे जलाया गया, सिर पर बिजली के भयंकर शॉक दिए गए, बर्फ की शिलाओं पर नग्न करके लिटाया गया. जितनी यातनाएँ किसी दुर्दांत डाकू को भी हिलाकर रख दें, मुँह खोलने पर विवश कर दें, वह सब आज़मा ली गईं. पर, यह नन्हा क्रांतिकारी मानों वज्र का बना था. देह घायल होती रही पर मन इतना मजबूत कि एक सूचना भी जो अंग्रेज़ों के काम की होती, इसके मुँह से न निकली.
यातनाओं से न टूटा तो लालच भी दिए गए, पर शंभु नारायण को कोई भी लालच स्वतंत्रता के सिपाहियों से अधिक मूल्य का लगा ही नहीं.
सीमा से अधिक आघात सह कर तो पर्वत भी टूट जाते हैं. यह तो चौदह-पन्द्रह वर्ष का बच्चा ही था. जब उसे लगा कि कहीं सहनशक्ति कमजोर न पड़ जाए तो उसने अपने प्राण को ही त्याग देने का निश्चय कर लिया. सन् 1935 में पन्द्रह वर्ष का हो चुका शंभुनारायण अजमेर के मुख्य कारावास की कालकोठरी में अपनी भारतमाता की गोद में सदा के लिए सो गया.
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है.)