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धरती और अनंत व्योम में, राम बसे हैं रोम रोम में

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जयराम शुक्ल

संवत 2077, भाद्रपद कृष्णपक्ष द्वितीया, बुधवार तदनुसार 5 अगस्त 2020 की तिथि इतिहास में एक युगांतरकारी प्रसंग के साथ दर्ज हो गई. हम सब सौभाग्यशाली हैं कि अयोध्या में प्रभु श्रीराम के मंदिर को आकार लेते, साकार होते देख रहे हैं. प्रभु श्रीराम किसी एक मंदिर में नहीं समूचे ब्राह्मांड के कण-कण, क्षण-क्षण में हैं. अयोध्या का मंदिर तो हमारी आस्था और स्वाभिमान का विषय है, जिसे एक आक्रांता म्लेच्छ ने आहत किया था. हम भाग्यशाली हैं कि हमारे जीवनकाल में यह सब देखने को मिला. किसी कवि ने लिखा – धरती और अनंत व्योम में, राम बसे हैं रोम रोम में.

विश्व में रामकथा सर्वश्रेष्ठ और कालजयी है. तुलसी जैसे सुधी कवियों ने प्रभु श्री राम की विशालता को इतना व्यापक बना दिया कि राम से बड़ा राम का नाम हो गया. प्रभु की उदारता ने ‘राम से बड़ा रामकर दासा’ बना दिया. ऐसे अद्भुत प्रसंग विश्व के किसी वांग्मय में नहीं है. रामकथा की यही महत्ता है कि वह जाति-पाति, धर्म- संप्रदाय से परे सर्वग्राही व सर्वस्पर्शी है.

हम विंध्यवासी पुण्य के भागी हैं..क्योंकि प्रभु के साक्षात चरण यहां की भूमि पर पड़े. वे यहां लगभग 12 वर्ष रहे व अपनी कृपा से वनवासियों को, जन-जन को ऋषि मुनियों को कृतार्थ किया. तुलसी ने रामकथा को लिपिबद्ध करने का काम अयोध्या से प्रारंभ कर समापन काशी में किया, लेकिन उनके चित्त में, मानस में चित्रकूट ही बसा रहा. इसलिए वे पूरी रामकथा के सार स्वरूप लिखते हैं –

रामकथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु.

तुलसी सुभग सनेह वन सिय रघुवीर बिहारु..

वास्तव में वनवासी राम को रामत्व इन्हीं बारह वर्षों में इसी चित्रकूट में प्राप्त हुआ. सो हम विंध्यवासी स्वयं को धन्य मानते हैं. साधक तुलसीदास को हनुमानजी की कृपा से प्रभु श्रीराम के दर्शन अयोध्या- काशी में नहीं चित्रकूट में ही हुए. दोहा प्रसिद्ध है –

चित्रकूट के घाट में भई संतन की भीर.

तुलसिदास चंदन घिसैं तिलक देत रघुवीर..

तो चलिए जानें राम के इस चित्रकूट के बारे में. चित्रकूट राम कहानी का ही पर्याय है. इसके भूगोल, संस्कृति और अस्तित्व में राम कथा ही रची बसी है. किन्तु चित्रकूट की गौरवगाथा राम के जन्म से पहले ही देश-देशांतरों में व्याप्त हो चुकी थी. यहां अत्रि के आश्रम का उल्लेख पुराणों में है. उनसे भगवान कपिल की बहन और कर्दम ऋषि की पुत्री अनुसुइया का विवाह हुआ था.

गंगा की धारा को चित्रकूट की धरती पर खींचकर लाने वाली अनुसुइया ही हैं, जिसे लोक मंदाकिनी के नाम से जानता है. यहीं पर त्रिदेव महासती के सामने पुत्र बनने के लिए मजबूर हुए और बाद में उन्होंने अपने अंशों का प्रतिदान किया. भगवान दत्तात्रेय का जन्म इन्हीं अंशों का साक्षी है.

भगवान शिव के क्रोध रूप दुर्वासा का जन्म भी यहीं हुआ. भगवान राम के आगमन से पहले ही सरभंग, सुतीक्ष्ण और अगस्त्य जैसे अनेक ऋषि चित्रकूट की चौरासी कोस की परिक्रमा के इर्द-गिर्द आश्रय लेकर बैठ गए थे. कहा जाता है कि ब्रह्मा ने देवताओं से कहा था कि वे भगवान राम का सत्कार करने के लिए विभिन्न रूपों में बिखर जाएं. चूंकि चित्रकूट उनकी आश्रय स्थली बनने वाला था, इसलिए देवता तमाम ऋषियों के वेष में चित्रकूट क्षेत्र में ही विराजमान हो गए थे.

मत्यगयेन्द्रनाथ आज भी चित्रकूट के उसी तरह राजा माने जाते हैं, जैसे उज्जैन में महाकालेश्वर. सत्य यह है कि भगवान शिव ने यहां अपनी लिंग स्थापना भगवान राम के लिए ही की थी. इसलिए यह कहने में कोई परहेज नहीं होना चाहिए कि चित्रकूट की कहानी ही राम की कहानी है.

रामायण के अनुसार भगवान राम ने प्रयाग में महर्षि भारद्वाज से पूछा था कि ऐसा कोई स्थल बताएं जहां मैं अपने वनवास का समय व्यतीत कर सकूं. महर्षि ने उन्हें चित्रकूट में रहने का आदेश दिया था. इस बात को रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने इस चौपाई के माध्यम से कहा है –

‘चित्रकूट गिरि करहु निवासू, जहं तुम्हार हर भांति सुपासू.’

महर्षि वाल्मीकि ने भी उन्हें यही राय दी और मत्यगयेन्द्रनाथ की आराधना के बाद भगवान राम चित्रकूट के निवासी बन गए. दरअसल कामदगिरि की महिमा का वर्णन करना आलेख की परिधि से काफी आगे निकल जाना है. इसलिए इतना ही कह देना काफी है कि ‘कामदगिरि भे राम प्रसादा,

अवलोकत अपहरत विषादा.’

अर्थात् कामदगिरि स्वयं राम के प्रसाद बन गए और उनके दर्शन मात्र से ही विषाद तिरोहित हो जाते हैं.

इतना ही नहीं –  ‘चित्रकूट चिंतामनि चारू.   समन सकल भव रुज परिवारू..

‘चित्रकूट के विहग मृग, तृण अरु जाति सुजाति.   धन्य धन्य सब धन्य अस, कहहिं देव दिन राति..

चित्रकूट के आवास की  बारह साल की अवधि में भगवान राम ने ऐसे चरित्र दिए जो ‘सो इमि रामकथा उरगारी, दनुज विमोहनि जन सुखकारी’ हैं.

भगवान राम से व्यथित भ्राता भरत का मिलन इसी चित्रकूट में होता है. यह चित्रकूट साक्षी है मानव के आचरण की उस पराकाष्ठा का जहां लोभ, मोह और किसी तरह की ईर्ष्या हृदय को प्रभावित ही नहीं करती. भरत अयोध्या के राजतिलक की तैयारी करके चित्रकूट आए थे और भगवान राम को सम्राट घोषित करने पर आमादा थे. किन्तु सत्ता यहां कंदुक बन गई. एक लात भरत का पड़ता तो राम की ओर दौड़ती और राम के प्रहार से भरत की ओर आती. अंतत: सिंहासन पर आसीन हुई चरणपादुकाएं.

देवत्व के अभिमान को दंडित करने वाला इसी चित्रकूट का स्फटिक शिला क्षेत्र है. पौराणिक प्रसंग के अनुसार –  ‘एक बार चुनि कुसुम सुहाए.  निज कर भूषन राम बनाए’..

‘सीतहि पहिराए प्रभु नागर.  बैठे फटिक शिला परमादर..

वास्तव में यह दृश्य सौंदर्य को आदर देने का था. परन्तु इंद्र का पुत्र जयंत अपने घमंड में आया और अनादर कर चला गया. भगवान राम को तो तब पता चला

‘चला रुधिर रघुनायक जाना.   निज कर सींक बान संधाना..

आखिरकार यह सींक का बाण तब शांत हुआ, जब उसने शरण में आए हुए जयंत की एक आंख का हरण कर लिया.

चित्रकूट में यदि ऋषि थे तो निशाचरों की संख्या भी कम न थी. विराध जैसे अनेक राक्षसों के वध के प्रसंग रामायण में है. चित्रकूट ही वह स्थल है जो भगवान राम की प्रतिज्ञा का केंद्र बना. जब सरभंग ऋषि ने उन्हीं के सामने स्वयं की काया अग्नि को समर्पित कर दी और वह आगे बढ़े तो आज के सिद्धा पहाड़ में उन्हें हड्डियों का ढेर दिखा. उन्होंने पूछा तो पता चला कि निशाचरों ने मानवों का खाकर यह ढेर लगाया है. उन्होंने यहीं संकल्प लिया –

निसिचर हीन करौं महिं, भुज उठाइ प्रन कीन्ह.

सकल मुनिन्ह के आश्रम जाइ जाइ सुख दीन्ह..

भगवान राम इसी चित्रकूट अंचल में सुतीक्ष्ण से मिलते हैं और अंत में अगस्त्य से. रामकथा के अनुसार अनेक अस्त्र-शस्त्र उन्हें अगस्त्य मुनि ने ही सौंपे थे. जिनमें वह बाण भी शामिल था, जिससे रावण मारा गया. रामकथा के महान चिंतक रामकिंकर महाराज के अनुसार चित्रकूट में अकेले गंगा की धारा मंदाकिनी ही नहीं आई थी, अपितु राम के चरण प्रक्षालन के लिए गुप्त रूप से गोदावरी और सरयू जैसी नदियां भी किसी न किसी अंश में यहां अवतरित हुई थीं.

दुर्भाग्य कि सरयू का कोई अस्तित्व नहीं बचा. जिसे सरयू कहा जाता है, वह अब एक नाला है, जिसका वर्णन रामचरितमानस में यूं है –

‘लखन दीख पय उतरि करारा.  चहुंच दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा..

सरयू कहे जाने वाले अब इस धनुषाकार नाले का भूगोल विलोपित हो चुका है और उसके प्रवाह क्षेत्र में बन गए हैं अनेक भव्य भवन.

उस चित्रकूट का अब अता-पता तक नहीं है, जहां प्रकृति अपने संपूर्ण श्रृंगार के साथ विराजती थी. न तो पेड़-पौधे बचे और न ही जंगल. उनकी जगह उग आए हैं कंक्रीट के बियावान वन. वैसे चित्रकूट ने बड़ी प्रगति की है. यहां अनेक शिक्षण संस्थान हैं, भव्य आश्रम हैं और श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करने के अनगिनत आयाम भी. अगर नहीं है तो भगवान राम का वह चित्रकूट, जहां बाघ मृग और हाथी के एक साथ विचरण करने कथाएं पुराणों में हैं.

अयोध्या के राममंदिर के साथ अब यह विश्वास लौटा है कि चित्रकूट की भव्यता व पवित्रता की दिशा में सत्ता व्यवस्थाएं कुछ अवश्य सोचेंगी. अयोध्या सीधे चित्रकूट से जुड़ेगा. समूचा राम वनगमन पथ पुण्य तीर्थ के रूप में आकार लेगा, पुण्यात्माओं का सपना साकार होगा.

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