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भारत केन्द्रित मातृभाषा में शिक्षा

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पंकज सिन्हा

शिक्षा की प्रकृति एक सृष्टि है. सृष्टिकर्ता है – माता. वह माता, जो मानव सृष्टि के बीज़ को अपने गर्भ में धारण करती है. मनोवैज्ञानिकों ने शोध के आधार पर इस तथ्य का उजागर किया है कि गर्भवती माता के दैनंदिन जीवन का प्रभाव गर्भ में मानव सृष्टि के बीज़ तत्व पर पड़ता है. गर्भ काल में माता जो सोचती है, करती है और सुनती है; गर्भ में विकसित शिशु अनुभूति के माध्यम से माता की सृष्टि का बीज़ तत्व ग्रहण करते रहता है. विद्वान यह भी कहते हैं कि गर्भ के चौथे महीने के प्रारम्भ से गर्भ का शिशु माता के माध्यम से सुनने लगता है, समझने लगता है. जिसका प्रत्यक्ष दर्शन शिशु जन्म के बाद शिशु के दैनंदिन जीवन में दिखाई देता है. इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है… महाभारत ग्रंथ में वर्णित वीर अभिमन्यु की वीरता.

अभिमन्यु जब माता सुभद्रा के गर्भ में थे, अपने पिता से युद्ध चक्रव्यूह रचना गर्भ काल में ही समझ चुके थे, क्योंकि माता सुभद्रा एकाग्रचित अपने पति की बाते सुन रही थी, जो गर्भ शिशु के अन्तःकरण तक पहुंच रही थी. चक्रव्यूह को तोड़ कर कैसे बाहर निकलना है, अर्जुन सुना रहे थे तो सुभद्रा को नींद आ गयी थी. अभिमन्यु महाभारत युद्ध में चक्रव्यूह के अंदर तो प्रवेश कर गये, परंतु बाहर नहीं निकल पाये.

मातृ सृष्टि बीजतत्व आत्मदर्शन का प्रत्यक्ष प्रमाण है – जन्म के बाद शिशु के मुख से प्रकट शब्द माँ. माँ की बोली-भाषा, अर्थात मातृभाषा ही शिशु जीवन विकास का बीज़ तत्व है. शिशु का प्रथम शिक्षक माँ ही है. मानव सृष्टि का बीज़ तत्व और शिशु-माँ की बोली-भाषा का बीज़ तत्व यथार्थ शिक्षा का बीजारोपण करता है. शिशु मातृभाषा के द्वारा ही अपनी प्रारम्भिक अवस्था में देख कर पहचानता है, समझता है और अन्तःकरण में धारण करता है. शिशु को मातृभाषा सिखाई नहीं जाती है, वह तो माँ के सानिन्ध्य में स्वतः सीखते जाता है. मातृभाषा के माध्यम से वह घरेलू वस्तुओं के विज्ञान और गणित का ज्ञान भी अन्तःकरण में ग्रहण करने लगता है. अत: शिशु शिक्षा मातृभाषा में होना, शिशु के समझ ज्ञान शक्ति का सर्वांगीण विकास है. आधारभूत भाषा और अंक ज्ञान का बीज़ तत्व मातृभाषा में ही निहित है. उसके बाद तो विश्व की कोई भी भाषा और समस्त ज्ञान का दरवाजा स्वतः खुलते जाता है.

नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में 5+3+3+4 वर्षीय शिक्षा व्यवस्था के पीछे मातृभाषा बीज़ तत्व का दर्शन समाहित है. मौखिक-लिखित शिशु शिक्षा के इन चार क्रमिक उपादानों में मातृभाषा में ही शिक्षा शिशु का जन्मसिद्ध अधिकार है और शिशु के इस अधिकार की रक्षा का कर्तब्य शिशुओं के माता-पिता एवं शिक्षण संस्थानों का है. समाज और देश की व्यवस्था ऐसी ही शिक्षा के अनुकूल होना समाजोपयोगी आदर्श मानव जीवन निर्माण के लिए यथार्थ शिक्षा है. भारत विविधता से भरा राष्ट्र है, एक सार्वभौमिक पूर्ण समाज है. सरकारी एवं गैर सरकारी शिक्षा व्यवस्थाएं मातृभाषाओं को तिलांजलि देकर आंग्ल भाषा चक्रव्यूह के मकड़जाल में कैद हैं. जहां से बाहर निकल कर पुनः मातृभाषा की ओर लौटना भले ही कठिन प्रतीत होता हो, पर असंभव नहीं है. क्योंकि प्रारम्भिक शिक्षा से ही शिशु को उस भाषा को स्वीकार करना होता है, जो उसकी माँ की भाषा नहीं होती है. जीवन का व्यवहार आंग्ल भाषा के माध्यम से शिशु ग्रहण नहीं कर पाता है. ग्रहणशीलता का विकास मातृभाषा के अपनत्व से होता है. शिशु अन्य भाषा से ज्ञान अर्जन तो करता है, किन्तु जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए अपनी इंद्रियों का सही स्वरूप में विकास नहीं कर पाता है. वह माँ, माटी और समाज के अपनत्व से दूर होता जाता है. युवा अवस्था आते-आते उसके जीवन में भटकाव आने लगता है. उसे समझ में नहीं आता है कि क्या करना है. उसके पास ज्ञान का भंडार तो होता है, किन्तु जीवन में उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने के लिए उसमें क्षमता, कुशलता और साहस का अभाव होता है. वह मात्र शिक्षित बेरोजगारों की सूची में अपने को नामांकित देखता है.

मातृभाषां परित्यज्य येयन्यभाषामुपासते,

तत्र यांति हि ते यत्र सूर्यो न भासते.

मातृभाषा का परित्याग एवं अन्य भाषा की उपासना से जीवन में अंधकार बना रहता है, ज्ञानरूपी सूर्य का प्रकाश तो मिलता ही नहीं है.

ज्ञानात्मक क्रियाधारित इंद्रियों द्वारा व्यवहारिक जीवन की अनुभूति से सम्पूर्ण क्षमताओं के विकास का नाम ही मातृभाषा शिक्षा है. अत: जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए मातृभाषा वह बीज़-तत्व है; जो शिशु को माँ, माटी और संस्कृति से जोड़ कर रखता है. नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शैशव काल से युवा अवस्था आने तक सम्पूर्ण क्षमता विकास की बात है. जिससे वह युवा अपने जीवन का सुखमय पथ स्वयं निर्मित कर ले. इसका आधार केवल और केवल शिशु का मातृभाषा में ही निहित है. शिक्षा के नाम पर अन्य भाषाओं की सहायता से अबोध शिशु के मस्तिक में नीरस ज्ञान को ठूस-ठूस कर भरना, दिग्भ्रमित युवा समाज पर मंडराता अमानवीय संस्कार का कारण है. इसलिए मातृभाषा के माध्यम से ही शिशु के अंतर्निहित शक्तियों का जागरण नैतिक एवं मानवीय मूल्यों का समाजोपयोगी सर्वांगीण विकास है.

माना भारत में बोली-भाषाओं की विविधता है. राज्यों में भाषा की विविधता के कारण शिशु शिक्षा का माध्यम विवशतावश आंग्ल ने ले रखा है. आंग्ल भाषा का ज्ञान यदि अनिवार्य भी है, तो शिशु शिक्षा के पायदानों से ही क्यों. शिशु शिक्षा की समाप्ति के बाद भी तो हो सकता है. भाषा विज्ञानविदों ने शोध के आधार पर जो तथ्य प्रकट किया है, वह चौंकाने वाला है. उनका मानना है कि शिशु अवस्था में शिशु की शिक्षा जब उसकी मातृभाषा में होती है तो आगे चल कर वह अन्य किसी भी भाषा को अतिशीघ्र सीखने के लिए प्रेरित होता है. लेकिन यदि शिशु शिक्षा मातृभाषा में न होकर अन्य भाषा से प्रारम्भ होती है तो शिशु धीरे-धीरे अपनी मातृभाषा से दूर होता जाता है, अपनी माँ की बोली-भाषा से घृणा भी करने लगता है. उसका जीवन व्यक्ति केन्द्रित हो कर रह जाता है. वह अपनी मातृभाषा से तो दूर हो ही जाता है, साथ ही साथ घर-परिवार और समाज जीवन की रचनात्मक कला से भी दूर होता जाता है. फिर पीढ़ी-दर-पीढ़ी ऐसा समाज जीवन विश्व के शतको मातृभाषाओं को मृतक बना जाता है.

राष्ट्रीय शिक्षा के परिपेक्ष्य में संकल्पित समाज की अहम भूमिका मातृभाषा में ही शिक्षा की रचनात्मकता पर मात्र सकारात्मक विचार ही नहीं; अपितु माँ, माटी एवं संस्कृति की सुरक्षा एवं संवर्धन के लिए माता-पिता, शिक्षण संस्थान समूह और शिक्षक-शिक्षाविद समाज को आज़ादी का अमृत महोत्सव की बेला में भारत केन्द्रित मातृभाषा शिक्षा के प्रति कृत संकल्पित होने की आवश्यकता है.

(लेखक विद्या भारती नागालैंड के संगठन मंत्री है.)

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