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“देश की स्वाधीनता के वास्तविक महानायक छत्रपति शिवाजी और छत्रपति संभाजी जैसे वीर हैं, जिन्होंने भारत की आत्मा को बुझने नहीं दिया। यह फिल्म उसी दुर्दांत दौर की एक छोटी सी झलक है। स्वाधीनता के बाद अगर इतिहास के ब्यौरे हमें नहीं बताए गए तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। हमें यह विस्तार से बताया जाना चाहिए था कि भारत ने असल में क्या भोगा-भुगता है।” – श्रीमान् सरजू प्रसाद, छावा के शो में सबसे बुजुर्ग दर्शक, आयु 84 वर्ष।
विजय मनोहर तिवारी
बात वर्ष 2018 की है। दीपावली के ठीक पहले कोल्हापुर में था। महालक्ष्मी मंदिर पर कुछ लिखने के लिए मिरज होकर गया था। पन्हाला का किला वहीं पास में है। यह क्षेत्र छत्रपति शिवाजी के समय 1660 में एक्शन से भरे एक बड़े रोचक घटनाक्रम का साक्षी है। आउटडोर मीडिया कवरेज में मैंने ऐसे अनेक ऐतिहासिक स्थानों को निकट से जाकर देखा था।
कोल्हापुर से मैं पुणे लौटा और एक सुबह अपने होटल से ऑटो रिक्शा लेकर शनिवारबाड़ा जा रहा था। बीस एक मिनट के रास्ते में ऑटो चालक से मैंने छत्रपति शिवाजी पर बात शुरू की। वह धैर्य से सुनता रहा। फिर पलटकर कुछ आवेशित होकर बोला – ‘सर, आप छत्रपति शिवाजी के दीवाने हैं, अच्छा है। मगर लगता है, आपने संभाजी राजे को नहीं पढ़ा है’। मैं चकित नहीं हुआ, क्योंकि महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी और छत्रपति संभाजी रक्त की शिराओं में दौड़ते हैं।
औरंगजेब तक आते-आते वह हमारे निकट अतीत का ऐसा सच है, जो बहुतों को पता है। छत्रपति संभाजी से लेकर गुरू गोविंद सिंह और उनके वीर बालकों के साथ जैसा नृशंस व्यवहार किया गया, वह भारत के एक हजार वर्ष के इस्लामी कालखंड के अंतिम खूनी पन्ने हैं। औरंगजेब अपनी मजहबी क्रूरता के साथ इसीलिए एक खलनायक बनकर हमारी आहत स्मृतियों में अंकित है। वर्ना सिंध में मोहम्मद बिन कासिम से लेकर महमूद गजनवी और मोहम्मद गोरी तक भारत की धरती पर वही सब कुछ होता रहा है। तथाकथित सुलतानों, बादशाहों, नवाबों और निजामों ने तोप-तलवार की एक ही फ्रिक्वेंसी पर अपनी मजहबी क्रूरता को ऑपरेट किया है।
वह भारत का ‘भोगा हुआ सच’ है। उन्होंने क्रूरता से सबको गाजरमूली की तरह काटा। बेशक गैर मुस्लिम सदा ही उनके निशाने पर रहे, मगर मुसलमानों को भी नहीं बख्शा गया। इतिहास में ब्यौरे भरे पड़े हैं। वह हम सबका इतिहास है। वह न मुस्लिम इतिहास है, न हिन्दू इतिहास है। सबका भोगा हुआ सच है। इन आततायियों ने अपनी पूरी ताकत केवल विध्वंस में व्यय की। भारत को उसकी जड़ों से खत्म करने और भारत की आत्मा के दीए को बुझाने में ही अपनी शक्ति लगाई ताकि इस्लाम फैले। बल और छल से जितना फैला सकते थे, फैलाने में सफल भी हो गए। मगर कठोर शारीरिक और मानसिक यातनाएँ झेलकर भी छत्रपति संभाजी राजे और गुरू गोविंदसिंह के वीर बालकों ने उफ तक नहीं की और अपना धर्म नहीं छोड़ा।
शिवाजी सावंत की साहित्यिक कृति है – “छावा”, जिस पर यह फिल्म बनी है। छावा सिंह के शावक को कहते हैं और यह कृति छत्रपति शिवाजी के पुत्र छत्रपति संभाजी पर केंद्रित है। वे वाकई सिंह के शावक थे। मुगलों के ताबूत में आखिरी कील ठोकने वाले हिंदवी स्वराज के एक महानायक, जिनके साथ औरंगजेब की क्रूरता मानवता की सारी हदें पार कर गई थी।
इतिहास के अध्ययन में वह दृश्य मेरी स्मृति में अंकित है, जब दोनों पिता पुत्र आगरा में औरंगजेब के 50वें जन्मदिन पर आयोजित जलसे में शामिल होने के लिए बुलाए गए थे। बाबा साहब पुरंदरे ने “राजा शिव छत्रपति’ में उस दृश्य को विस्तार से रचा है। नौ वर्षीय संभाजी राजे अपने पिता छत्रपति शिवाजी महाराज के साथ मुगल दरबार में उपस्थित होते हैं। बाद में उन्हें कैद किया जाता है और छत्रपति मगरमच्छों के मुंह से सुरक्षित निकल जाते हैं। संभाजी का प्रशिक्षण ऐसे विकट परिवेश और ऐसे विकट वीर पिता की छाया में हुआ था। हमारे देश के किशोर होते बालकों, युवा होते किशोरों को स्कूल और कॉलेजों में इन पाठों को 15 अगस्त, 1947 की सुबह की पहली कक्षा से ही पढ़ाया जाना चाहिए था।
छत्रपति शिवाजी 50 साल की आयु में 1680 में नहीं रहे। उसके नौ साल बाद ही भारत की स्मृतियों में वह समय आया, जब छत्रपति संभाजी राजे का औरंगजेब ने शिकार किया। तब वे केवल 32 वर्ष के थे। आप अंदाजा लगाइए कि उन सदियों में हमारे पूर्वज किस औसत आयु में हमसे विदा ले रहे थे। वह वंशों के महाविनाश की काली सदियाँ थीं। औरंगजेब अपने पूरे खजाने और खानदान के साथ छत्रपति शिवाजी द्वारा स्थापित हिंदवी स्वराज को जड़मूल से उखाड़ने के वास्ते दक्षिण में मरने तक जूझता ही रहा और खुलताबाद की बेनूर कब्र में सोने के साथ ही मुगलों की उलटी गिनती शुरू हो गई। जो लोग उस शैतान को अपना पीर मानते हैं, वो यह रेखांकित करते हैं कि आप आजादी के मुगालते में मत रहिए, जंग अभी जारी है!
1857 भारत की आजादी की लड़ाई का आरंभ बिंदु नहीं है। विदेशी आक्रमणकारियों और दिल्ली-आगरा के कब्जाधारियों के विरुद्ध संघर्ष तब से ही चले हैं, जब सिंध, लाहौर, दिल्ली और आगरा पर अतिक्रमण होते गए। किंतु यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विभाजन की विभीषिका के साथ मिली रक्तरंजित आजादी के बाद मुगल हमारे हीरो हो गए और छत्रपतियों को हाशिए पर भी ठीक से जगह नहीं मिली।
आज सिनेमाघरों में ‘छावा’ देखने उमड़ रही भीड़ परदे पर इतिहास के अनछुए अध्याय से परिचित हो रही है। यह काम सबसे पहले हमारी शिक्षा प्रणाली में होना चाहिए था। साहित्य और फिल्मों में बाद में। किंतु आजादी के बाद हम मुगले आजम और जोधा-अकबर में मंत्रमुग्ध किए गए। शिक्षा पाठ्यक्रमों से इतिहास के सत्य पर परदा डाला गया और परदे पर दूसरा झूठ फैलता रहा। समय सदा एक सा नहीं रहता। इतिहास अपना हिसाब खुद देखता है। इसलिए मैं कहता हूं कि इतिहास से पीछा मत छुड़ाइए, क्योंकि इतिहास कभी हमारा पीछा नहीं छोड़ता।
‘छावा’ को देखकर आँखें गीली हैं, हमारे उन लाखों अनाम पूर्वजों के लिए, जिनकी गर्दनें काट दी गईं, जिनकी लाशों के खलिहान लगाए गए, जिनके कटे हुए सिरों की मीनारें बनीं, जीते-जी जिनकी खालें उतार ली गईं और उन पर नमक घिसे गए, जिनकी आँखें निकाली गईं, जिनके टुकड़े-टुकड़े चील कौओं को खाने के लिए फैंके गए, जिन्हें जिंदा ही दीवारों में चुनवा दिया गया या आग में जला दिया गया, माताएं-बहनें जौहरों में जो जीवित ही चिताओं में गिरती रहीं। बेमौत मारे गए हमारे वे पुरखे हर उम्र के थे।
‘छावा’ देखकर निकले एक बुजुर्ग दर्शक श्रीमान् सरजू प्रसाद की टिप्पणी में सच्चे इतिहास को दबाने के लिए आजाद भारत के सत्ताधीशों के सम्मान में देशी बुंदेली गालियों की झड़ी भी है, जिसे यहाँ व्यक्त करना उचित नहीं है। फिल्म देखने लायक है। विक्की कौशल, अक्षय खन्ना और आशुतोष राणा सहित सबने अपनी भूमिकाएँ ठीक से निभाई हैं। वीर रस की इस करुण कथा में गीत-संगीत भी उम्दा है। मूल बात इतिहास की है, इसलिए देखना चाहिए।