जयपुर. देश में अमन चैन रहे और समाज के सभी वर्ग साथ मिल कर आगे बढ़ें, यह वामपंथी विचारधारा के लोगों को सुहाता नहीं है. समाज में वैमनस्य फैला कर फूट डालने का उनका प्रयास निरंतर चलता रहता है. जालौर में अनुसूचित जाति के छात्र इंद्र मेघवाल के दुःखद निधन की घटना भी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है. छात्र की मृत्यु का दुःख ना सिर्फ उस परिवार को है, बल्कि पूरे समाज को है. लेकिन इस मौत को वामपंथी विचारधारा के कथित बुद्धिजीवियों, नेताओं और मीडिया ने जिस तरह से प्रचारित किया और इसके बाद जिस तरह की राजनीति की गई, उसने ना सिर्फ दुख को बढ़ाया, बल्कि रोष भी पैदा किया. घटना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि वामपंथी विचारधारा के लोग कारण जाने बिना, तथ्यात्मक जांच किए बिना और प्रशासन की जांच का परिणाम आने से पहले ही इस तरह की घटनाओं को कैसा रंग दे सकते हैं और इनका दुष्प्रचार कैसे समाज में वैमनस्य के बीज बो सकता है.
जालौर की यह घटना जब सामने आई थी निश्चित रूप से ही दुःखद थी, क्योंकि एक नौ साल के बच्चे की जान चली गई थी. इस मामले में केस भी दर्ज होना ही था और शिक्षक को सजा भी मिलनी ही थी, क्योंकि मामला सिर्फ अनुसूचित जाति के छात्र का नहीं था, बल्कि बच्चों के साथ मानवीय व्यवहार से भी जुड़ा था.
लेकिेन प्रारंभ से ही घटना को एक विशेष रंग देने के प्रयास किया गया. ताकि अधिक से अधिक राजनीतिकरण किया जा सके. घटना के दुष्प्रचार में जिस मटकी का जिक्र किया जा रहा है और कहा जा रहा है कि मटकी को हाथ लगाने से नाराज होने पर शिक्षक ने छात्र को चांटा मारा, वह बात आज तक पुलिस की जांच में साबित नहीं हो पाई है. पुलिस के अधिकारी अभी तक घटना की जांच के निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे हैं, लेकिन स्वयं पुलिस अधिकारी यह कह चुके हैं रिपोर्ट में जिस मटकी से जुड़ी घटना का जिक्र किया जा रहा है, वह साबित नहीं हुई है. स्वयं बच्चे के पिता और शिक्षक के बीच घटना के बाद फोन पर हुई बातचीत का ऑडियो वायरल हुआ है, उसमें भी इस बात का प्रमाण नहीं मिलता, जिससे साबित होता हो कि यह घटना जातिगत भेदभाव के कारण हुई. ऐसा कोई कारण होता तो इस बातचीत में इसका संकेत जरूर मिल जाता, क्योंकि ऐसे मामलों में भावनाएं तीव्र हो ही जाती हैं.
अब जरा उन तथ्यों को देखते हैं जो हो सकता है कि सीधे तौर पर इस घटना से ना जुड़े हों, लेकिन यह संकेत अवश्य देते हैं कि जो हो रहा है, वह दुष्प्रचार है –
इस स्कूल के भागीदार जीनगर हैं (जो अनुसूचित जाति में आते हैं). अब जिस स्कूल का आधा मालिक अनुसूचित जाति का हो, वहाँ छुआछूत कैसे सम्भव है?
इस मिडिल स्कूल में कुल 6 शिक्षक हैं, जिनमें से 5 शिक्षक अनुसूचित जाति समाज से (दो मेघवाल, दो भील व एक जीनगर) हैं. ऐसे में क्या ये शिक्षक स्कूल में ऐसा होने दे सकते हैं?
इस स्कूल में सभी बच्चे नल से पानी पीते हैं. बच्चों के पेयजल के लिए कोई मटका है ही नहीं. यह बात उसी स्कूल के एक मेघवाल शिक्षक की रिकॉर्डिंग से स्पष्ट हो चुकी है और वे यह भी कह रहे हैं कि स्कूल में कभी भी छुआछूत नहीं हुई है. स्कूल के बच्चों ने मीडिया से बातचीत में कहा कि यहां ऐसा कोई मटका या मटकी नहीं है.
बच्चे की मौत का कारण वास्तव में क्या रहा, यह पुलिस और डॉक्टरों की जांच से स्पष्ट होगा. अभी इस बारे में कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती, लेकिन मामले से जुड़े तथ्य यह स्पष्ट इंगित कर रहे हैं कि मामला वैसा नहीं है, जैसा प्रचारित किया जा रहा है.
मामला एक दुष्प्रचार से ज्यादा कुछ नहीं है. यह इस बात से भी प्रमाणित होता है कि प्रदेश का प्रमुख विपक्षी दल भाजपा चाहता तो इसे एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना सकता था, क्योंकि मामला अनुसूचित जाति समुदाय के एक बच्चे की मौत से जुड़ा है. लेकिन सबसे पहले भाजपा के स्थानीय विधायक जोगेश्वर गर्ग ने ही छुआछूत सम्बन्धी दुष्प्रचार पर सवाल उठाए और स्कूल मैनेजमेंट में अनुसूचित जाति समुदाय की भागीदारी से जुड़े तथ्य सामने रखे. इसके बाद भाजपा ने संयम रखा और उस तरह की राजनीति इस मुद्दे पर नहीं की, जैसी अन्य दलों और विशेष रूप से वामपंथी विचार के लोगों ने की. भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर ने मृतक बच्चे के परिवार से मिलने के लिए जिस तरह का नाटक किया और कांग्रेस के दिग्विजय सिंह सहित कई लोगों ने जिस तरह के ट्वीट कर इस मामले में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसी संस्था को बदनाम करने के प्रयास किए, उससे यह स्पष्ट हो गया कि यह पूरा मामला एक विशेष एजेंडा के अंतर्गत प्रचारित किया गया था ताकि समाज में वैमनस्य पैदा किया जा सके और संघ जैसी संस्थाएं जो राष्ट्र निर्माण और समाज की एकजुटता के लिए काम कर रही हैं, उन्हें बदनाम किया जा सके.
मामले में अब पुलिस की जांच रिपोर्ट की प्रतीक्षा है. सरकार ने एसआईटी का गठन किया है और आशा की जानी चाहिए कि एसआईटी निष्पक्ष जांच करेगी ताकि भविष्य में समाज की ऐसी विघटनकाारी ताकतों को सबक मिल सके.