खीर भवानी का मंदिर जम्मू-कश्मीर के गांदरबल ज़िले के तुलमुल गाँव में स्थित है। यह मंदिर मां दुर्गा के राग्यना स्वरूप को समर्पित है, जिन्हें स्थानीय लोग “महाराज्ञ देवी” या “राज्ञ देवी” के नाम से भी पुकारते हैं। यह मंदिर हजारों वर्षों से कश्मीरी पंडितों की कुलदेवी का स्थान रहा है और कश्मीर की धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत में इसका महत्वपूर्ण स्थान है।
इस मंदिर का उल्लेख प्राचीन कश्मीरी इतिहास ग्रंथ राजतरंगिणी में भी मिलता है, जिसकी रचना 12वीं सदी के इतिहासकार कल्हण ने की थी। उसमें इस स्थल को “महारागिनी दुर्गा भगवती” का निवास बताया गया है और इसे “रागिनी कुंड” या “तुला मूल का पवित्र झरना” कहा गया है।
धार्मिक मान्यता के अनुसार, लंका नरेश रावण, जो भगवान शिव का भक्त था, माँ खीर भवानी का भी उपासक था। कहा जाता है कि देवी रावण से प्रसन्न थीं, लेकिन जब उसने माता सीता का हरण किया, तो देवी उससे रुष्ट हो गईं और लंका छोड़ दीं। एक अन्य कथा के अनुसार, देवी ने हनुमान जी को स्वप्न में दर्शन देकर मूर्ति को लंका से हटाकर किसी पवित्र स्थान पर स्थापित करने का आदेश दिया। हनुमान जी ने देवी की मूर्ति को लंका से निकालकर कश्मीर के तुलमुल गाँव में स्थापित किया। तभी से यह स्थान देवी का प्रमुख धाम बन गया।
माना जाता है कि संवत 4041, यानी 988 ईस्वी में, कश्मीर के एक तपस्वी योगी कृष्ण पंडित को स्वप्न में देवी ने दर्शन दिए और बताया कि वे एक साँप का रूप धारण कर उस स्थान की ओर जाएंगी जहाँ उनका प्राचीन धाम स्थित है। उस झरने में डूबा मंदिर स्थान तब जाकर खोजा गया और वहाँ पूजा शुरू हुई।
आधुनिक काल में इस मंदिर का पुनर्निर्माण महाराजा प्रताप सिंह ने सन् 1912 में करवाया। बाद में महाराजा हरि सिंह ने इसका जीर्णोद्धार कराया और मंदिर परिसर को भव्य रूप दिया।
मंदिर के अंदर एक जल कुंड है जिसका पानी समय-समय पर रंग बदलता है। यह पानी सामान्यतः हल्का दूधिया होता है लेकिन आपदा या अशुभ घटनाओं के समय यह काला या बैंगनी हो जाता है। सन् 1886 में ब्रिटिश अधिकारी वाल्टर लॉरेंस ने इस कुंड का रंग बैंगनी देखा था। 2014 की कश्मीर बाढ़ से पूर्व भी इसका रंग काला हो गया था।
आज भी, हर वर्ष ज्येष्ठ अष्टमी के दिन यहाँ भव्य मेला लगता है, जिसमें देशभर से हज़ारों श्रद्धालु पहुँचते हैं और खीर का विशेष भोग अर्पित करते हैं। इसीलिए इस मंदिर को “खीर भवानी मंदिर” कहा जाता है।