नई दिल्ली. दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के तत्वाधान में ‘पुरातत्व एवं अभिलेखशास्त्र के आलोक में भारतीय इतिहास का पुनर्लेखन’ विषय पर आयोजित गोष्ठी का उद्घाटन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्णगोपाल जी ने किया. उन्होंने कहा कि वामपंथी इतिहासकारों ने भारत को बांटने और भारतीयों के स्वाभिमान को तोड़ने वाला इतिहास लिखा. कुछ इतिहासकार लिखते हैं कि भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा, यह मूर्खतापूर्ण बात है, देशद्रोहिता है. भारत सदियों से एक राष्ट्र रहा है और इसका उल्लेख महर्षि वेदव्यास, कालिदास, वाणभट्ट, पाणिनी आदि की रचनाओं में मिलता है. हमारा इतिहास 15,000 वर्ष का है, न कि 300 या 400 वर्ष का.
उन्होंने कहा कि कुछ इतिहासकारों ने औरंगजेब का महिमामंडन करने के लिए लिखा कि उसने मंदिर के लिए दान और जमीन दी, लेकिन यह नहीं लिखा कि उसने हजारों मंदिरों को ध्वस्त किया. इसी तरह वामपंथी इतिहासकार यह नहीं लिखते हैं कि कुतुबमीनार को 26 जैन मंदिरों को तोड़कर बनाया गया. डॉ. कृष्णगोपाल ने नालंदा विश्वविद्यालय का उल्लेख करते हुए कहा कि कुछ इतिहासकार लिखते हैं कि व्यक्तिगत झगड़े में विश्वविद्यालय को जलाया गया, यह बिल्कुल गलत तथ्य है. उसे बख्तियार खिलजी ने ध्वस्त किया था, जिसे असम में राजा भृगु द्वारा युद्ध में पराजित किया गया.
हमारे यहां कई इतिहासकार लगभग 2,000 वर्ष पूर्व आए. इनमें मेगस्थनीज, ह्येनसांग, अलबरूनी आदि थे. इसके बाद कई इतिहासकार मुगल, खिलजी, बलबन, गोरी आदि के साथ आए. इसी तरह अंग्रेजों के समय भी कुछ इतिहासकार आए. स्वतंत्रता के बाद कुछ राष्ट्रीय विचार के इतिहासकार हुए और उन्होंने भी इतिहास लिखने का प्रयास किया, लेकिन जल्दी ही इतिहास लेखन पर वामपंथी इतिहासकारों ने कब्जा कर लिया. इन सबने अपने-अपने हिसाब से इतिहास लिखा. अब प्रश्न उठता है कि किस इतिहास को सही माना जाए? इसलिए अब भारत की दृष्टि से भारत के इतिहास का पुनर्लेखन किया जाना आवश्यक है.
इससे पहले संस्कृत विभाग के अध्यक्ष प्रो. रमेश चन्द्र भारद्वाज ने गोष्ठी की भूमिका रखते हुए कहा कि संस्कृत विभाग का मुख्य ध्येय छात्रों को सांस्कृतिक विरासत से जोड़ना है. साथ ही वैदिक ज्ञान की पुनर्स्थापना करना. प्रख्यात पुरातत्वविद् प्रो. बी. आर. मणि ने कहा कि अभिलेखशास्त्र पुरातत्व का ही एक भाग है और पुरातत्व इतिहास के लेखन और पुनर्लेखन में महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में मान्य है. उन्होंने यह भी कहा कि आर्यों के बाहर से आने का कोई साक्ष्य नहीं है. उन्होंने यह भी कहा कि गत शताब्दी में अफगानिस्तान में तोखारी भाषा एवं ग्रीक लिपि में प्राप्त एक अभिलेख में भारत के आर्य राजाओं का वर्णन मिलता है. शिक्षाविद् प्रो. चांदकिरण सलूजा ने कहा कि शिक्षा के चार मूलभूत आधार हैं – पहला, ज्ञान हेतु शिक्षा, दूसरा, कर्म हेतु शिक्षा, तीसरा, मिलकर रहने हेतु शिक्षा और चौथा, मनुष्य बनाने हेतु शिक्षा. इस संदर्भ में पूरे इतिहास के अवलोकन की आवश्यकता है.
गोष्ठी के दूसरे सत्र के प्रथम वक्ता डॉ. रवीन्द्र वशिष्ठ ने अभिलेख, पुरातत्व एवं लिपि को एक-दूसरे का पूरक बताते हुए कहा कि संस्कृत इनका आधार है. अभिलेख हमारे क्रियाकलापों के परिचायक हैं. भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद् के सदस्य प्रो. हीरामन तिवारी ने कहा कि स्मृति ही इतिहास है. इतिहास नष्ट हो जाता है तो विनाश निश्चित है. उन्होंने कहा कि इतिहास स्वयं को ढूंढने का महत्वपूर्ण एवं अपरिहार्य माध्यम है.
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सामाजिक विज्ञान कला संकाय के प्रमुख प्रो. कौशल शर्मा ने इतिहास लेखन में संस्कृत के साथ-साथ भूगोलशास्त्र की महत्ता को प्रतिपादित किया. उन्होंने इस तथ्य को सभी के समक्ष रखा कि भारत के सभी प्रमुख शिव मंदिर 79 पूर्व अक्षांश पर स्थित हैं.
गोष्ठी का समापन सत्र प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक जे. नंद कुमार के सान्निध्य में संपन्न हुआ. उन्होंने कहा कि उपनिवेश काल में सबसे अधिक हमारे देश की कहानी अर्थात् इतिहास को खत्म करने काम किया गया, क्योंकि जब किसी देश के इतिहास को समाप्त कर दिया जाता है, तो वह स्वयं को हीन समझने लगता है. इसलिए हमें अपने इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता है. इस सत्र को इस्कॉन इंडिया के संयोजक कृष्ण कीर्ति दास और भारतीय सामाजिक अनुसंधान परिषद के उप निदेशक डॉ. अभिषेक टंडन ने भी संबोधित किया.