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वामपंथी इतिहासकारों ने भारतीयों के स्वाभिमान को तोड़ने वाला इतिहास लिखा

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सुखदेव वशिष्ट

वामपंथी इतिहासकारों ने भारत को बांटने और भारतीयों के स्वाभिमान को तोड़ने वाला इतिहास लिखा. कुछ इतिहासकारों के अनुसार तो भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा, उनका यह तर्क मूर्खतापूर्ण है. भारत सदियों से एक राष्ट्र रहा है और इसका उल्लेख महर्षि वेदव्यास, कालिदास, वाणभट्ट, पाणिनी आदि की रचनाओं में मिलता है. हमारा इतिहास हजारों वर्ष का है, न कि 300 या 400 वर्ष का.

कुछ इतिहासकारों ने औरंगजेब का महिमामंडन करने के लिए लिखा कि उसने मंदिर के लिए दान और भूमि दी, लेकिन यह नहीं लिखा कि उसने हजारों मंदिरों को ध्वस्त किया. इसी तरह वामपंथी इतिहासकार यह नहीं लिखते हैं कि कुतुबमीनार को 26 जैन मंदिरों को तोड़कर बनाया गया. नालंदा विश्वविद्यालय के विषय में कुछ इतिहासकार लिखते हैं कि व्यक्तिगत झगड़े में विश्वविद्यालय को जलाया गया, जो बिल्कुल गलत तथ्य है. उसे बख्तियार खिलजी ने ध्वस्त किया था, जिसे असम में राजा भृगु द्वारा युद्ध में पराजित किया गया.

हमारे यहां कई इतिहासकार लगभग 2,000 वर्ष पूर्व आए. इनमें मेगस्थनीज, ह्येनसांग, अलबरूनी आदि थे. इसके बाद कई इतिहासकार मुगल, खिलजी, गौरी आदि के साथ आए. इसी तरह अंग्रेजों के समय भी कुछ इतिहासकार आए. स्वतंत्रता के बाद कुछ राष्ट्रीय विचार के इहिासकार हुए और उन्होंने भी इतिहास लिखने का प्रयास किया, लेकिन जल्दी ही इतिहास लेखन पर वामपंथी इतिहासकारों ने कब्जा कर लिया. इन सबने अपने-अपने हिसाब से इतिहास लिखा.

इसी प्रकार आर्यों के बाहर से आने का कोई साक्ष्य नहीं है. गत शताब्दी में अफगानिस्तान में तोखारी भाषा एवं ग्रीक लिपि में प्राप्त एक अभिलेख में भारत के आर्य राजाओं का वर्णन मिलता है. स्मृति ही इतिहास है. इतिहास नष्ट हो जाता है तो विनाश निश्चित है. इतिहास स्वयं को ढूंढने का महत्वपूर्ण एवं अपरिहार्य माध्यम है. उपनिवेश काल में सबसे अधिक हमारे देश के इतिहास को खत्म करने का काम किया गया. क्योंकि जब किसी देश के इतिहास को समाप्त कर दिया जाता है, तो वह स्वयं को हीन समझने लगता है.

देश की स्वतंत्रता के बाद, इस विशाल देश को एकसाथ, एकजुट रखते हुए, नए भारत के निर्माण के लिए अनेक चीजें करने की आवश्यकता थी. परंतु भारत निर्माण करने में सहायक और आवश्यक प्रेरणास्पद व्यक्तित्व और प्रतीकों को ही समाज से दूर रखा गया. क्योंकि हमने शासन की बागडोर  ऐसे लोगों के हाथों में दी, जिनकी रीढ़ ही गायब थी.

अंग्रेजों द्वारा बर्बाद की हुई सब व्यवस्थाएं फिर से खड़ी करनी थी. उसके लिए आवश्यकता थी, इस देश की मिट्टी से जुडे़ शिक्षा विभाग और इस विभाग का नेतृत्व करने वाले देश की सांस्कृतिक विरासत से जुड़े व्यक्ति की. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

मुस्लिम लीग के जिन्ना को टक्कर देने के लिए काँग्रेस द्वारा खड़ा किया हुआ ‘पोस्टर ब्वॉय’. यह पूर्ण रूप से मुस्लिम संस्कारों में विकसित हुए थे. मुस्लिम पद्धति से मदरसों में इनकी शिक्षा हुई. अल-हिलाल और अल-बलाघ, इन दो उर्दू सप्ताहिकों के संस्थापक संपादक. खिलाफत आंदोलन के प्रमुख समर्थक. अलीगढ़ के ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ के संस्थापक सदस्य. तो जिनका भारतीय संस्कृति से, आचार-विचार से, धरोहर से केवल ऊपरी, सतही संपर्क रहा. फलस्वरूप अंग्रेजों ने जो उपनिवेशिक मानसिकता भारतीयों के मन में ठूंस – ठूंस कर भरी थी, उसे दूर करने के प्रयास हुए ही नहीं. इसलिये, वर्तमान की आवश्यकता है कि आने वाली पीढ़ी को अपनी समृद्ध परंपरा, गौरवमयी इतिहास और संस्कृति से अवगत करवाने के लिये इतिहास का पुनर्लेखन करवाना ही होगा.

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