वामपंथी या कहें कि वर्तमान में पनपी कथित धर्मनिरपेक्षता के पैरोकारों का समूह जो मूल में लगभग एक ही हैं, और ऐसे समूह अमूमन सांस्कृतिक मूर्तिभंजन करते हैं. इनके निशाने पर होते हैं ऐसे हिन्दू जो अपने धर्म पर गौरवान्वित हैं.
कथित धर्मनिरपेक्षता की आड़ में छिपे इन वामपंथियों के लिए हिन्दू आस्था और अस्मिता का अपमान इतना सहज है कि इनके लिए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम पर भी कीचड़ उछालना कोई बड़ी बात नहीं.
इन वामपंथियों और कथित धर्मनिरपेक्षता के पैरोकारों द्वारा हिन्दू परंपराओं में आस्था रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति के चारित्रिक हनन से शायद ही कोई वंचित रहा हो. लता जी भी अपवाद नहीं थीं और समय-समय पर इन राष्ट्रद्रोहियों द्वारा उनके चरित्र पर भी आक्षेप किए गए हैं.
चूंकि विश्व भर में प्रशंसकों के हृदय में बसने वाली लता दीदी के गायन पर प्रश्न उठाना संभव न था, इसलिए इन वामपंथियों द्वारा उनके व्यक्तित्व को ही कटघरे में खड़ा किया गया. आप इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि लता जी जीवनपर्यंत एक स्वाभिमानी आस्तिक हिन्दू रहीं.
साठ के दशक में भी गौरव से वीर सावरकर के साथ फोटो खिंचवाती थीं और इस दौर में भी अटल जी, नरेन्द्र मोदी को आदर्श नेता कहती थीं. तो, ऐसे में लता का मूर्तिभंजन करना आवश्यक था.!
भला इतनी मुक्त हिन्दू चेतना की वैश्विक स्वीकृति कैसे पचे.! लेकिन प्रश्न यह था कि मूर्तिभंजन कैसे किया जा सकता था?
इसके लिए इन कथित धर्मनिरपेक्षता के पैरोकारों द्वारा एक घटिया अवधारणा गढ़ी गई कि लता जी ने अपने प्रभावशाली वर्षों में दूसरी गायिकाओं को नष्ट किया. आज भी इस दुःखद और मिथ्या लांछन को सत्य मानने वाले बहुत सारे लोग हैं. यह बात और है कि जिन गायिकाओं से लता जी को खतरा बताया गया था, वे सभी उनकी अनुगामिनी थीं. उनसे सीख रही थीं. खतरा तो किसी ऐसे प्रतियोगी से होता है, ज़ो बराबर हो या बेहतर हो.
लता जी तो इस प्रतिस्पर्धा का हिस्सा कभी रही ही नहीं वो तो अद्वितीय थीं, अलौकिक थीं. दिलचस्प यह भी है कि पचास साठ वर्षों के उनके गायन काल में दर्जनों बड़े संगीतकार आए. उनमें से किसी ने लता जी के उज्ज्वल धवल चरित्र पर प्रश्न नहीं उठाए. यहां तक कि यदा-कदा मतभेद के समय भी वे इसी आह से भरे रहे कि काश, यह गाना लता जी गातीं.
ध्यातव्य है कि किसी कुटिल आत्मा के लिए बड़े-बड़े दिग्गज इतना परेशान नहीं होते. सी. रामचंद्र से लेकर शंकर जयकिशन, एसडी बर्मन, मदन मोहन, सलिल चौधरी, जयदेव, और पंचम, लक्ष्मी प्यारे तक लता जी को देवी मानते रहे.
सलिल चौधरी जैसे दिग्गज यह कहते थे कि उनका जीवन खुली किताब की तरह है. वैसे तो वे एक सामान्य मनुष्य हैं, लेकिन जब स्टूडियो में गाती हैं, तो उस देवी के पांव छूने का मन करता है. लक्ष्मी प्यारे कहते थे कि उनका वश चले तो वह हीरो के गाने भी लता से गवा लें. यह सम्मान शतियों में किसी एक दिव्यात्मा को मिलता है.
उनके सरल और अहंकारहीन व्यक्तित्व का एक उदाहरण अभिमान फिल्म की रिकॉर्डिंग के समय मिलता है, जब रिकॉर्डिंग के समय लता जी बाहर थीं. इसी दौरान जया पर फिल्माए गए एक दृश्य में वह मंदिर जाते हुए संस्कृत के श्लोक पढ़ती हैं. जिसे लता जी की अनुपस्थिति में किसी और गायिका से गवाया गया था. लता जी जब वापस लौटीं तो बर्मन दा ने उनसे पूछा कि वह श्लोक गाना चाहेंगी? लता जी ने रिकार्डिंग सुनने के बाद मना कर दिया, वह भी यह कहते हुए कि बहुत अच्छा गाया है. लता जी सुगम संगीत की पहली ऐसी गायिका रहीं, जिन्होंने अपने सिद्ध स्वर से सिनेमा के गायन को भिन्न स्तर प्रदान किया. अंग्रेजी में उसे ट्रांसेन्ड करना कहते हैं. एक तरह का भाव संतरण.
लता जी ने अपने गायन के प्रारंभिक वर्षों में कठोर श्रम किया. बहुत कष्ट झेले, किन्तु अपने आदर्शों से कभी डिगी नहीं. उनका चरित्र जीवनभर धवल रहा. जिसे मलिन करने के प्रयास किए गए. किन्तु वह हो न सका. आश्चर्य यह कि उनसे आयु में छोटे गायकों तक ने उन्हें उल्टे-सीधे सलाह दिए, लेकिन लता जी ने उन पर कभी कोई आक्षेप नहीं किया. वह प्रतिभा, मान और महानता की साक्षात मूर्ति थीं.
उन्होंने गायन तो बहुत पहले बंद कर दिया था, किन्तु उनका शारीरिक रूप से होना भी उतना ही महत्वपूर्ण था. फिर भी वह आने वाले युगों तक हमारी आवाज बन कर जीवंत रहेंगी. संपूर्ण विश्व में किसी अन्य गायक को वैसी आत्मीयता से नहीं सुना गया. वे वास्तविक स्वरूप में भारत वर्ष की अलौकिक रत्न थीं. ऐसी दिव्यात्मा, “भारत रत्न लता जी” को कोटि कोटि नमन.