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अंतिम सांसें गिनता वामपंथी उग्रवाद

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बलबीर पुंज

बीते कुछ वर्षों में जिस प्रकार वामपंथी उग्रवाद – ‘नक्सलवाद’ का खात्मा किया जा रहा है, वह प्रधानमंत्री के कार्यकाल की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक है। पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत डॉ. मनमोहन सिंह भी अपने कार्यकाल (2004-14) में नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा मानते थे। वर्ष 2011 में बतौर प्रधानमंत्री पांच अखबारों के संपादकों से बात करते हुए डॉ. सिंह ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में विकास और खुफिया तंत्र को मजबूत करने पर बल दिया था। बीते दिनों जिस तरह सुरक्षाबलों ने शीर्ष नक्सलियों को ठिकाने लगाया है, उससे यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि मोदी सरकार ने नक्सलवाद से निपटने में दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ सुरक्षाबलों को हर संभव संसाधन पहुंचाकर नक्सली क्षेत्रों में विकास कार्यों का मार्ग प्रभावी रूप से प्रशस्त किया है।

नक्सलवाद दशकों से देश की सुरक्षा-संप्रभुता, सामाजिक न्याय, राजनीतिक स्थिरता और आर्थिक विकास को चुनौती देता आया है। सियासी-वैचारिक कारणों से वर्षों तक उस अमानवीय व्यवस्था को बर्दाश्त किया गया, जहां कानून का राज नहीं, बल्कि भीड़तंत्र की हुकूमत है। स्वाभाविक रूप से इस अराजकता के सबसे अधिक शिकार कमजोर-वंचित वर्ग ही हुए, जिन्हें नक्सली अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए विकास-लोकतंत्र की मुख्यधारा से काटकर, भय के बल पर नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं।

इन वामपंथी उग्रवादियों के प्रेरणास्रोत वर्तमान साम्यवादी चीन के संस्थापक माओ से-तुंग है, जिनकी विरासत ही अपने विरोधियों के साथ उनसे असहमति रखने वालों के भयावह संहारों और उत्पीड़नों से भरी है। एक आंकड़े के अनुसार, अकेले माओ की ‘सांस्कृतिक क्रांति’ में 20 लाख निरपराधों की मौत हुई थी। भले ही चीन बदलते समय के साथ माओ की विफल आर्थिक नीतियों से तौबा कर चुका है, परंतु उसका वैचारिक-राजनीतिक चिंतन अब भी जस का तस है। वर्तमान चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के शासनकाल में मानवाधिकारों और मजहबी स्वतंत्रता का गला घोंटना रुका नहीं है। जहां तिब्बत में सांस्कृतिक और भाषाई विरासत का दमनचक्र अपने चरम पर है, वहीं शिनजियांग प्रांत में उइगर मुस्लिमों पर कई प्रकार के मजहबी प्रतिबंध हैं और उनकी मस्जिदों को भी ढहा दिया गया है। भारत के प्रति शत्रुभाव रखने के कारण चीन प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से माओवादियों (शहरी नक्सली सहित) को अपना मोहरा बनाता रहा है।

नक्सलियों की कार्यपद्धति उत्तर कोरिया के साम्यवादी तानाशाह किम जोंग सबसे करीब है। जिस प्रकार किम अपने विरोधियों की सरेआम हत्याएं करवाते हैं या भाषण के समय मात्र झपकी लेने वाले को गोली से उड़वा देते हैं – वैसे ही नक्सली अपनी तथाकथित ‘जन-अदालतों’ में बेकसूर लोगों को पुलिस का भेदिया बताकर उन्हें फांसी देने और गोली मारने के अतिरिक्त बम से उड़ा या शरीर के टुकड़े कर देते है। इसमें आरोप भी नक्सली लगाते हैं और फैसला भी नक्सली करते हैं।

वर्ष 1967 से माओवादी खुद को हाशिए पर पड़े आदिवासियों, वंचितों और गरीबों का रहनुमा बताते रहे हैं, कि वो उन पर हुए कथित ‘जुल्म’ और ‘नाइंसाफी’ के खिलाफ लड़ रहे हैं। सच तो यह है कि पिछड़े क्षेत्रों के प्रति ब्रितानी उदासीनता, स्वतंत्रता के बाद प्रारंभिक सरकारों की निष्क्रियता के बाद नक्सली बंदूक की नोंक पर इन क्षेत्रों को मुख्यधारा से काटना, सरकारी इमारतों और स्कूलों को जलाना, सड़कों-पुलों को बम से उड़ाना और आम लोगों से जबरन वसूली करना चाहते है। इस अराजकता के कारण आदिवासी क्षेत्रों में दशकों तक उद्योग-धंधे फल-फूल नहीं सके, जिसका सीधा अर्थ यह हुआ कि वहां रोजगार के अवसर पैदा नहीं हुए और विकास शून्य के समान रहा।

नक्सली जिस वामपंथी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं, वह अपने निरंकुश-हिंसक और मानवता-विरोधी चिंतन के कारण 74 वर्षों के जीवनकाल में दुनिया में कहीं भी संतोषजनक, खुशहाल और मानवाधिकार युक्त समाज का निर्माण नहीं कर पाया है। यह ठीक है कि लोकतंत्र में भी कुछ खामियां हो सकती हैं। परंतु उपलब्ध व्यवस्थाओं (शरीयत सहित) में दीर्घकालिक तौर पर सबसे सफल, सौहार्दपूर्ण, आशाजनक, संतोषप्रद और मानवीय अधिकारों से लैस उदार समाज का निर्माण – लोकतांत्रिक व्यवस्था ने ही किया है। नक्सलियों की प्रजातंत्र में विश्वास रखने वालों के प्रति घृणा कितनी गहरी है, यह उनके द्वारा 25 म,ई 2013 को छत्तीसगढ़ के झीरम घाटी में तत्कालीन कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार पटेल सहित कई कांग्रेसी नेताओं-कार्यकर्ताओं और जवानों को मौत के घाट उतारने से स्पष्ट है।

बुनियादी ढांचे, शिक्षा-स्वास्थ्य सुविधाओं और सुरक्षा को प्राथमिकता देकर मोदी सरकार ने पिछले 10 वर्षों में नक्सलवाद की जड़ों पर गोली के साथ विकास के जरिए सीधा वार किया है। 14,000 किमी. से अधिक सड़कें अब सुदूर इलाकों को मुख्यधारा से जोड़ रही हैं। ऐसे क्षेत्रों को हजारों मोबाइल टावर 4जी नेटवर्क के माध्यम से आधुनिकता से जोड़ रहे हैं। जहां पहले बंदूकों का डर था, वहां डाकघर, बैंक, एटीएम खुल गए हैं। पिछड़े क्षेत्रों में बुनियादी ढांचा मजबूत करने और वहां प्रशासनिक पहुंच बढ़ाने के लिए ₹3,500 करोड़ से अधिक की धनराशि आवंटित की गई है। 2014 से पहले जहां केवल 38 एकलव्य मॉडल स्कूल थे, वहीं अब ऐसे 178 स्कूल हैं। नक्सल प्रभावित इलाकों में युवाओं को बंदूक के स्थान पर हुनर थमाने के लिए दर्जनों कौशल केंद्र खोले गए हैं। नक्सलियों से निपटने हेतु सरकार ने सुरक्षाबलों को अत्याधुनिक हथियार, तकनीक और संसाधनों से लैस करने के लिए सुरक्षा बजट को ₹3,000 करोड़ तक पहुंचा दिया है, जो 2014 की तुलना में तीन गुना अधिक है। जहां पिछड़ापन कभी नक्सलवाद की प्राणवायु हुआ करता था, वहां अब विकास की सांसें दौड़ रही हैं। इन सबके कारण ही 2010 की तुलना में नक्सली घटनाओं और इसके शिकार लोगों की संख्या में 80 प्रतिशत से अधिक की कमी आई है।

नक्सली वे भटके हुए नौजवान हैं, जिन्होंने दुर्भाग्य से विदेशी वामपंथी विचारधारा से गुमराह होकर अपने ही देश के खिलाफ जंग छेड़ रखी है। नक्सलवाद का लगातार घटता दायरा, केवल सैन्य कार्रवाई का नतीजा नहीं, बल्कि इसका संबंध सरकारी पहुंच, विकास परियोजनाओं और आदिवासी समुदायों में भरोसे के पुनर्निर्माण से भी जुड़ा है। जो सब्जबाग वामपंथी उग्रवादियों ने दिखाए थे, उसका असली चेहरा परत दर परत उतरकर सामने आ चुका है। सरकार का स्पष्ट संदेश है कि मार्च 2026 तक माओवाद का समूल सफाया कर दिया जाएगा।

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