भाग्यनगर, 23 नवम्बर 2024.
शिल्प कला वेदिका में चल रहे लोकमंथन के दूसरे दिन की शुरुआत लिथुआनिया के मेहमानों द्वारा किए एक प्रभावशाली ‘अग्नि अनुष्ठान’ से हुई. ये मेहमान रोमुवा परंपरा के अनुयायी हैं, जो लिथुआनिया का एक स्वदेशी धर्म है. लिथुआनिया, यूरोप का आखिरी देश था, जिसने राजनीतिक दबाव में ईसाई धर्म अपनाया, लिथुआनिया ने अपनी ग्रामीण परंपराओं में प्राचीन रीति-रिवाजों और परंपराओं को संरक्षित रखा है.
प्रतिभागियों ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान को बचाने के लिए किए संघर्ष पर प्रकाश डाला. उन्होंने सदियों की चुनौतियों के बावजूद परंपराओं को जीवित रखने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित किया. लोकमंथन में उनकी उपस्थिति ने स्वदेशी संघर्ष और सांस्कृतिक पुनरुत्थान की साझा वैश्विक कहानी को रेखांकित किया.
दूसरे दिन का पहला सत्र ‘लोक साहित्य’ विषय पर केंद्रित था. इसमें देशज भाषाओं की हमारी जीवनशैली में भूमिका, उनके योगदान और हमारे रोजमर्रा के जीवन में उनके प्रतिनिधित्व पर चर्चा की गई.
सत्र के पहले वक्ता उस्मानिया विश्वविद्यालय में तेलुगु साहित्य के प्रोफेसर डॉ. काशी रेड्डी वेंकट रेड्डी (सेवानिवृत्त) थे. उन्होंने भारतीय समाज में प्रचलित व्यापक विभाजन की ओर ध्यान दिलाया. उन्होंने उल्लेख किया कि विदेशी परंपराएं, जैसे ‘महान परंपरा’ और ‘छोटी परंपरा’, मान्यता प्राप्त कर रही हैं. यह वर्षों से एक व्यवस्थित प्रक्रिया के तहत किया जा रहा है ताकि समाज में दरार और विभाजन पैदा हो. हमारी चेतना में एकता की गहरी अवधारणा होने के बावजूद, कुछ स्वार्थी तत्व विभाजन से लाभ उठाते हैं.
सत्र के दौरान, उन्होंने लोक कहानियों के माध्यम से भारतीय संस्कृति पर अपने विचार साझा किए. उन्होंने बताया कि कई लोग इन लोक गीतों का संग्रह कर रहे हैं और पं. रघुनंदन, डॉ. पी. भास्कर और प्रो. डी. रामराजू जैसे व्यक्तियों का नाम लिया. उन्होंने रामायण पर आधारित लोक कहानियों और गीतों का उल्लेख किया, विशेष रूप से तेलुगु में, जो यह दर्शाता है कि भगवान राम का दक्षिण भारत में भी प्रभाव है.
सत्र की दूसरी वक्ता, पद्मश्री पुरस्कार विजेता और प्रसिद्ध लेखिका डॉ. विद्या विंदु सिंह थीं. उन्होंने लोक गीतों और कहानियों में महाकाव्यों के गाए जाने की संस्कृति पर विस्तार से बताया. उन्होंने जोर देकर कहा कि भगवान राम लंबे समय से इस मौखिक परंपरा का हिस्सा रहे हैं. उन्होंने अफसोस जताया कि इस तरह के कई गीत और कहानियां अब विलुप्त हो चुकी हैं, लेकिन भारत का लोक अपनी संस्कृति और परंपराओं के माध्यम से जीवित है. उन्होंने प्रकृति के प्रति लोक के भावनात्मक और संवेदनशील दृष्टिकोण का उल्लेख करते हुए रात में पत्ते न तोड़ने या कुएं से पानी न लेने जैसी प्रथाओं का उदाहरण दिया, यह मानते हुए कि वे ‘सो रहे हैं’. उन्होंने भारतीय परंपरा में निर्जीव वस्तुओं तक को मानवीय गुणों से युक्त मानने की बात कही, जैसे गर्म तवे पर पानी डालने से बचना क्योंकि ‘उसे चोट’ लग सकती है. उन्होंने वर्तमान पीढ़ी के लिए विशाल सांस्कृतिक विरासत को समझने के महत्व पर जोर दिया और कहा कि जो लोग अपनी जड़ों से जुड़ते हैं, वे अक्सर जीवन में सफल होते हैं. उन्होंने आधुनिक मीडिया, विशेष रूप से फिल्मी गीतों, की आलोचना करते हुए कहा कि वे समाज के मूल्यों को गिरा रहे हैं. उन्होंने मौखिक परंपराओं को लोकप्रिय बनाने की वकालत की और यह धारणा खारिज की कि भारतीय परंपराएं पिछड़ी हुई हैं, यह तर्क देते हुए कि भारतीय मूल्यों को मापने के लिए पश्चिमी मापदंड उचित नहीं हैं.
उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि एकता की भावना हमारे सुरक्षा कवच की तरह है, जो “स्व” और “पर” के बीच किसी भी विभाजन को रोकती है. लोक समाज के सुख-दुख में भागीदार होता है, खुशी में हंसता है और दुःख में रोता है. उन्होंने उल्लेख किया कि धर्मनिरपेक्षता के साथ सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास शुरू हो गया और सवाल किया कि कोई समुदाय अपनी धार्मिक जड़ों के बिना कैसे जीवित रह सकता है. उन्होंने इन जड़ों की ओर लौटने का आग्रह किया.
सत्र के अध्यक्षीय भाषण में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने उपनिवेशवाद के विरुद्ध प्रयासों की प्रशंसा की. उन्होंने सुझाव दिया कि चूंकि भारत का सार लोक गीत और लोक अर्थ में निहित है, इसलिए इन प्रयासों को ‘भारत मंथन’ कहा जाना चाहिए. उन्होंने भारतीय परंपरा के वृत्ताकार चिंतन पर भी विचार किया, जहां हर चीज़ की शुरुआत और अंत एक ही बिंदु पर होता है.