जयराम शुक्ल
मामा माणिकचंद्र वाजपेयी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद स्वतंत्रता संग्राम के समय की पत्रकारिता के ध्येय को लेकर चलने वाले अंतिम ध्वजवाहक थे. जलियांवाला बाग नरसंहार के वर्ष ही वे पैदा हुए थे. वे पत्रकारिता में देर से आए. या यूँ कहें कि उनकी संपादक के रूप में पहचान सन् 47 से बीस साल बाद बनी, जब स्वदेश समूह का संपादकीय नेतृत्व सँभाला. लेकिन उनकी पत्रकारिता में नैतिकता, सामाजिक आदर्श, राष्ट्रगौरव, और अन्याय के खिलाफ प्रतिकार का वही उत्स रहा जो स्वतंत्रता संग्राम काल की पत्रकारिता में गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, विष्णुराव पराडकर आदि संपादकों में था. संभवतः इसीलिए मामाजी को ध्येयनिष्ठ और राष्ट्रवादी पत्रकारिता का व्रती कहा जाता है.
करोड़ों में कुछ मुट्ठीभर लोग ही समाज और मायावी दुनियादारी से निकल पाते हैं, जिनकी जन्मजयंती मनाकर नई पीढ़ी धन्य होती है. लेकिन इस धन्यता के बरक्स भी कुछ भीषण दुराग्रह होते हैं. जैसे जब हम लोग मामाजी के जन्मशताब्दी वर्ष की रूपरेखा पर चर्चा कर रहे थे, उसी बीच मध्यप्रदेश में कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस ने सत्ता सँभाली. पता नहीं दून जैसे बोर्डिंग स्कूल और यूरोप के बिजनेस कॉलेजों में पढ़कर निकले कमलनाथ के कान में किसी ने मामाजी माणिकचंद्र वाजपेयी का नाम फूँक दिया. जिस किसी ने फूँका होगा तो अच्छे से ही फूँका होगा कि मामाजी उस राजनीतिक धारा के विचारपुंज हैं, जिसने कई दलों को दलदल में और वामदलों को बंगाल की खाड़ी में विसर्जित कर दिया है. तभी शायद कमालनाथ जी के प्रज्ञाचक्षु खुले और अपनी सरकार की ओर से पहला पुण्यकर्म यह किया कि….ध्येयनिष्ठ और राष्ट्रवादी पत्रकारिता के लिए दिया जाने वाला राष्ट्रीय माणिकचंद्र वाजपेयी पुरस्कार समाप्त कर दिया गया. किसी सरकार के मुखिया का ऐसा मानसिक दीवालियापन देखकर कोई नौसिखिया टिप्पणीकार भी यह भविष्यवाणी कर सकता था कि ऐसा हल्का और ओछा नेतृत्व अपनी पार्टी और सरकार को ज्यादा दिन नहीं सँभाल सकता.
कमलनाथ ‘मुखिया मुख सो चाहिए’ नहीं रहे. सरकार तो सर्वग्राही व सर्वस्पर्शी होती है. पर कमलनाथ को वैचारिक गुस्सा निकालने के लिए मामाजी जैसे आज के विदेहराज मिले. अब मामाजी के नाम से पुरस्कार दो या न दो उनकी महानता पर क्या फर्क पड़ता है. वो तो यश, प्रतिष्ठा की कामना किए बिना ‘जस की तस धर दीनी चदरिया’ और चले गए. मैं कभी न मामाजी का शिष्य रहा और न ही भक्त. लेकिन तत्कालीन सरकार के इस निर्णय की पीड़ा अंतस तक हुई. तब के मुख्यमंत्री कमलनाथ को कड़ा प्रतिरोध पत्र लिखा और हर उससे फरियाद की जिसे सरकार का यह निर्णय अनैतिक लगा.
आदरणीय राजेन्द्र शर्मा जी (स्वदेश) के नेतृत्व में राजधानी के वरिष्ठ संपादकों ने प्रतिरोध दर्ज कराते हुए कमलनाथ जी से मामाजी के नाम से राष्ट्रीय पुरस्कार यथावत रखने का आग्रह किया गया. लेकिन जब सिंहासन पर साक्षात् अहंकार ही विराजमान हो तो कौन किसकी सुने.
बहरहाल मामाजी के गौरवमयी जन्मशताब्दी वर्ष के आयोजन की भूमिका तैयार हुई. मध्यप्रदेश के इतिहास में संभवतः किसी पत्रकार/संपादक की स्मृति को गौरवपूर्ण ढंग से कालजयी बनाने का यह पहला आयोजन है. वर्ष भर व्याख्यानमालाएं आयोजित हुईं और राष्ट्रीय सरोकार की पत्रकारिता पर गंभीर विमर्श हुए. आज 7 अक्तूबर, 2020 को मोहन भागवत जी इस एक वर्षीय वैचारिक समिधा में पूर्णाहुति देंगे, यह भी कम महत्व की बात नहीं है.
मामाजी के सान्निध्य का मुझे सौभाग्य नहीं मिला. उनके जीवन के बारे में सुना और उनका लिखा पढ़ने को मिला. मामाजी की पत्रकारिता का सक्रिय कार्यक्षेत्र चंबल और मालवा रहा. विंध्य-महाकौशल में स्वदेश की ही तरह दूसरा वैचारिक समाचारपत्र था ‘युगधर्म’. 82-83 में जब मैं जबलपुर विश्वविद्यालय में पत्रकारिता का विद्यार्थी था, तब जबलपुर का युगधर्म मेरे लिए प्रयोगशाला जैसा था. युगधर्म के प्रधान संपादक थे आदरणीय भगवतीधर वाजपेयी. वहीं स्वदेश के विभिन्न संस्करणों की डाक प्रतियां आती थीं, जिसमें मामाजी का साप्ताहिक स्तंभ ‘समय की शिला पर’ छपा करता था. यह स्तंभ तत्कालीन समय की देश-दुनिया व समाज की घटनाओं का दर्पण था. पत्रकारिता के विद्यार्थी काल में मामाजी का यह स्तंभ पाठ्यपुस्तक की तरह था. उन दिनों देशबन्धु में पूज्य मायाराम सुरजन का भी एक साप्ताहिक स्तंभ छपा करता था..दरअसल… सुरजनजी और मामाजी वैचारिक रूप से उत्तर व दक्षिण थे. प्रायः एक ही विषय पर दो विचार एक सप्ताह के भीतर ही पढ़ने को मिलते थे. युगधर्म भी स्वदेश की भांति आरएसएस से संस्कारित समाचारपत्र था.
उन दिनों हमें ‘तीन वाजपेयी’ एक साथ मथते थे. दो संपादक यानि कि मामाजी माणिकचंद्र वाजपेयी और भगवतीधर वाजपेयी तथा तीसरे थे अटल बिहारी बाजपेयी. लंबे समय तक इन तीनों को एक ही खानदान/परिवार का मानता रहा. विपक्ष के प्रकाशपुंज अटल जी सभाओं में स्वेच्छाचारी सत्ता के खिलाफ विप्लवनाद करते तो स्वदेश और युगधर्म के संपादकीय प्रतिपक्ष के विचार स्तंभ बनकर समाज को प्रकाशित करते. पत्रकारिता के लंबे अंतराल बाद एक फिर से मामाजी से जुड़ी किस्सागोई से वास्ता पड़ा. पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार प्रकाशन की पत्रिका में मेरे साथी संपादक जयकृष्ण गौड़ जी (अब स्वर्गीय) थे. वे स्वदेश इंदौर से सेवानिवृत्त होकर ‘चरैवेति’ पत्रिका से जुड़े थे. स्वदेश के संपादक के तौर पर गौड़ जी मामाजी के उत्तराधिकारी थे. गौड़ जी ने मामाजी की सादगी, सरलता, मेधा और कुशल सांगठनिक क्षमता के किस्से सुनाते थे. उन्हीं के माध्यम से मामाजी की पुस्तक ‘आपातकाल की संघर्ष गाथा’ पढ़ी. कई और पुस्तिकाएं भी पढ़ीं, जिससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार और उसकी यात्राकथा से परिचित हुआ.
मामाजी को पढ़ने और उनके जीवन के बारे में सुनने के बाद अब मेरे लिए यह सुनिश्चित कर पाना कठिन कार्य है कि उनका कृतित्व उत्कृष्ट है या जीवन महान है. मैं मामाजी के व्यक्तित्व को उनके कृतित्व से एक बित्ता ऊपर ही पाता हूँ. वे सांसारिक और सरोकारी होते हुए भी वीतरागी थे, विदेहराज जनक की तरह. जनक राजा होते हुए भी योगी और संन्यासी थे. मामाजी ध्येयनिष्ठ थे. अपने उत्तरदायित्वों को लेकर उनका खुद का अपना कुछ नहीं था. जो भी भूमिकाएं मिलती गईं आगे-पीछे की सोचे बिना वे निभाते गए. संघ के प्रचारक के रूप में युवाओं को संस्कारित किया तो अध्यापक के तौर पर देश के भावी निर्माताओं को पढ़ाया. उनसे कहा गया कि चुनाव लड़िए तो वे जनसंघ का दीया लेकर मैदान पर उतर गए. ग्वालियर संसदीय सीट पर उनका मुकाबला राजमाता से…राजा बनाम रंक..का था. फिर विधानसभा में कांग्रेस के दिग्गज नरसिंह राव दीक्षित के मुकाबले उतरे. चुनाव की गणित में यह रंक हारने के बाद भी प्रकारांतर में जीत गया. पहले प्रतिद्वंद्वियों के दिल को जीता और फिर उनकी दलगतनिष्ठा को जीतते हुए इन्हें अपना बना लिया. राजमाता जनसंघ/भाजपा की अमरस्तंभ बनी और नरसिंह राव दीक्षित भाजपा से सांसद.
मामाजी को राजनीति/सत्ता सुख चहिए था भी नहीं. वे गृहस्थ संन्यासी थे. विवेकानंद उनके आराध्य. समूचे वसुधैव कुटुम्बकम को ही अपना घर माना. आपातकाल में वे जेल की कालकोठरी में थे, तभी अर्धांगिनी की मृत्यु की खबर पहुंची. काशी में जब वे शिक्षावर्ग में प्रबोधन दे रहे थे, तभी एकमात्र पुत्र के निधन की खबर पहुँची. पीड़ा की पराकाष्ठा को सहते हुए भी उन्होंने स्वयं को सँभाले रखा..क्योंकि जिनका ध्येय ही राष्ट्र आराधन होता है वे पहले ही अपना सबकुछ समय की धूनी में होम कर चुके होते हैं… मामाजी माणिकचंद्र वाजपेयी ऐसे ही थे..अतुल्य, अविस्मरणीय, अपरिहार्य.