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विस्तारवादी चीन के निवेश रूपी कर्ज जाल में फंसे विश्व के कई राष्ट्र

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विस्तारवादी चीनी सरकार का निवेश रूपी कर्ज जाल कोई परोक्ष और कुछ एक राष्ट्रों तक सीमित नीति नहीं, बल्कि इसने दुनिया के 50 से भी अधिक राष्ट्रों को अपनी गिरफ्त में ले लिया है. पिछले एक दशक से चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नीति निर्धारकों द्वारा योजनाबद्ध तरीके से इस षड्यंत्र को अंजाम दिया गया है. स्वयं को दुनिया की महाशक्ति के रूप में उभारने की प्रतिस्पर्धा में तेजी से दौड़ते चीन ने अपने निवेश रूपी कर्ज को सबसे बड़े हथियार के रूप में उपयोग किया है.

आंकड़ों के अनुसार चीन द्वारा वर्तमान में 58 देशों को 5.6 ट्रिलियन डॉलर कर्ज दिया गया है, जिसमें अधिकांश छोटे एवं लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं. बड़ा सवाल यह है कि चीन द्वारा निवेश रूपी कर्ज आखिर क्यों आवंटित किया गया है? एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी कि चीन के कर्ज जाल में इतने राष्ट्र फंस कैसे गए? इसके लिए चीन की कर्ज नीति को बारीकी से समझना बेहद आवश्यक है.

भारी भरकम निवेश

चीन द्वारा कठोर शर्तों पर निवेश रूपी कर्ज के आवंटन एवं छोटे राष्ट्रों द्वारा ऊंची ब्याज दरों पर कर्ज लेने के पीछे एक बड़ा कारण चीन द्वारा इन राष्ट्रों में किया जा रहा भारी भरकम निवेश है. दरअसल, चीन द्वारा उपलब्ध कराए जा रहे इस निवेश रूपी कर्ज में फंसने वाले ज्यादातर छोटे-छोटे लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं, जिनको चीन द्वारा विकास के लिए मनचाही धनराशि उपलब्ध करा दी जा रही है.

एक बड़ा कारण यह भी है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनी हुई सरकार का कार्यकाल पूर्व निर्धारित होता है, जिसके कारण सरकारें एवं उनके नेता दीर्घकालीन विदेश नीति या दीर्घकालीन परिणामों के बारे में ज्यादा चिंतित ना होकर उसके तात्कालिक लाभ को प्राथमिकता देते हैं, जिस कारण उनके द्वारा विकास की परियोजनाओं को आकार देने एवं राष्ट्रीय हितों को साधने के लिए ऊंची दरों एवं कठोर अनुबंधों के साथ भी कर्ज ले लिया जाता है.

चीन ने कई राष्ट्रों को तो उसके सकल घरेलू उत्पाद के 45 प्रतिशत तक का कर्ज उपलब्ध कराया है. कठोर शर्तों पर लिए जाने वाले कर्ज को लौटाना इन राष्ट्रों के लिए बेहद मुश्किल हो जाता है और अंततः ये राष्ट्र चीन के हाथ की कठपुतली बन कर रह जाते हैं.

बेहद कठिन शर्तें एवं अपारदर्शी अनुबंध

चीन छोटे-छोटे राष्ट्रों को बेहद कठोर एवं गुप्त शर्तों पर कर्ज उपलब्ध करवाता है. जिसके परिणामस्वरूप उस राष्ट्र के लिए कर्ज की राशि को वापस लौटना बेहद कठिन हो जाता है. विशेषज्ञों का कहना है कि चीन की कर्ज नीति ना केवल ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनोमिक कॉपरेशन एंड डेवलपमेंट यानि ओईसीडी के नियमों का उल्लंघन है, अपितु वह ‘नो पेरिस क्लब’ की बाध्यताओं से भी परे है.

दरअसल, कर्ज की राशि स्वीकृत करते समय कर्ज की ब्याज दरों एवं संबंधित शर्तों को सार्वजनिक करने की सख्त मनाही होती है. जिस कारण जिस राष्ट्र द्वारा यह कर्ज लिया जा रहा है, उसकी जनता कर्ज की शर्तों से तब तक अनभिज्ञ रहती है, जब तक कि चीन द्वारा लिए गए कर्ज के कारण इन राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल ना हो जाए. यही कारण है कि चीन की कर्ज नीति में फंसे कई राष्ट्र ऐसे हैं, जिनमें सरकार को चीनी कर्ज के कारण भारी विरोध झेलना पड़ रहा है.

विशेषज्ञों का मानना है कि इतने बड़े स्तर पर चीन द्वारा दिए जा रहे कर्ज के पीछे उसकी साम्राज्यवादी सोच है. चीन दुनिया में अपने कर्ज के बलबूते छोटे-छोटे राष्ट्रों पर प्रभुत्व स्थापित कर वहां की खनिज संपदाओं के दोहन एवं सामरिक महत्त्व के स्थानों का अधिग्रहण कर अपने दीर्घकालीन हितों को साधने की चेष्टा कर रहा है.

इन राष्ट्रों में चीनी समूहों के लिए लाभ के अवसरों के निर्माण को भी सुनिश्चित किया जाता है. यही कारण है कि चीन द्वारा निवेश रूपी कर्ज का 60 प्रतिशत व्यावसायिक कर्ज के रूप में दिया जाता है, जिससे संबंधित सभी परियोजनाओं में चीनी समूहों को वरीयता दी जाती है. साथ ही परियोजनाओं के क्रियान्वयन के दौरान भी चीनी मजदूरों को ही कार्य पर लगाया जाता है. कर्ज की राशि ना लौटा पाने की परिस्थिति में चीन द्वारा उस राष्ट्र के सामरिक महत्व के स्थानों का अधिग्रहण कर लेने की शर्त भी रखी जाती है. हाल ही में श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह एवं युगांडा के अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे का अधिग्रहण इसके ज्वलंत उदाहरण हैं.

चीन ना केवल इन राष्ट्रों में निवेश रूपी कर्ज के माध्यम से उनके प्राकृतिक संसाधनों के दोहन एवं सामरिक महत्व के स्थानों का अधिग्रहण कर रहा है, अपितु राजनीति में भी हस्तक्षेप करने का पुरजोर प्रयास किया जा रहा है.

विशेषज्ञों की मानें तो चीन की इस नीति के पीछे इन राष्ट्रों के भीतर चीन की वामपंथी विचारधारा के प्रचार-प्रसार तथा अंततः इन्हें वामपंथी सत्ता व्यवस्था के अंतर्गत लाने की दीर्घकालिक मंशा होने की आशंका जताई जा रही है. अनुमान है कि अफ्रीका एवं एशिया महाद्वीप के कई छोटे-छोटे राष्ट्रों में चीन ने रिश्वत के माध्यम से सत्ता पक्ष एवं विपक्ष के नेताओं के गुटों में अपनी गहरी पैठ बना ली है.

चीन भले ही अपनी इस कर्ज नीति को वैश्विक समुदाय के प्रति अपनी जिम्मेदारी का चोला ओढ़ाकर प्रस्तुत करने का प्रयास करता है. लेकिन वास्तविकता यही है कि चीन की यह रणनीति उसके साम्राज्यवाद की मूल धारणा को ही परिभाषित करती है.

इसलिए बेहद आवश्यक है कि लोकतांत्रिक एवं संप्रभु मूल्यों की पक्षधर शक्तियां, चीन की साम्राज्यवादी मंशा का पूरी शक्ति से प्रतिकार करें, अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब दुनिया के कई राष्ट्र तथाकथित समानता के अधिकारों की विचारधारा का दंभ भरने वाली खूनी कम्युनिस्ट साम्राज्यवादी सत्ता व्यवस्था के अधीन होंगे.

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