भक्तिकाल के श्रेष्ठ संत और कवि गुरु नानकदेव ने लोगों को प्रेम, एकता, समानता, भाईचारा और आध्यात्मिक ज्योति का संदेश दिया है. इन्हीं नानक, कबीर, गौतम और गांधी की धरती पर सारी शिक्षा और मानवता को ताक पर रखकर 1984 में जिस तरह निर्दोष सिक्खों का नरसंहार किया गया, वह भारतीय लोकतंत्र पर एक काला धब्बा और कभी न भुलाया जाने वाला दुःस्वप्न है.
31 अक्तूबर, 1984 को दो सिक्ख शस्त्रधारी अंगरक्षकों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कर दी. उनमें से एक को गिरफ्तार कर लिया गया व दूसरे को मौके पर ही मार गिराया गया. देश का दुर्भाग्य कि 01 नवंबर, 1984 की सुबह से न केवल राजधानी दिल्ली, बल्कि भारत के कई राज्यों में सिक्खों का नरसंहार शुरू हो गया. न केवल कांग्रेस पार्टी, बल्कि सरकार से जुड़े ज़िम्मेदार कांग्रेसियों ने ‘खून का बदला खून’, ‘खून के छींटे सिक्खों के घर तक पहुंचने चाहिए’ और ‘जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है’ जैसे नारे देकर हिंसा, क्रूरता और अमानवीयता की हदें पार कर दीं.
निर्दोष सिक्खों का बर्बरता से नरसंहार किया गया, राह चलते सार्वजनिक तौर पर उनके गले में टायर डालकर जलाया गया, सामूहिक हत्याएं, बलात्कार और लूटमार को अंजाम दिया गया. यहां तक कि अराजक और उन्मादी तत्वों ने सिक्ख समुदाय के पवित्र गुरुद्वारों को भी नुकसान पहुंचाया. 03 नवंबर तक बर्बरता के क्रूर खेल पर सत्ता तन्त्र के इशारे पर प्रशासन, पुलिस, सेना निष्क्रिय और मौन रहे. दया, धर्म, न्याय और मानवाधिकार सब मानों बेमानी हो चुके थे. सत्ता की क्रूर निर्दयता और संवेदनहीनता के तांडव को नहीं भुलाया जा सकता.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार 3 दिन तक चले सत्ता पोषित बर्बर खूनी खेल में लगभग 2800 सिक्ख दिल्ली में और 3350 सिक्ख भारत के अन्य राज्यों में मौत की नींद सुलाए गए. लूट खसोट और नुकसान का आंकड़ा तो अनुमान से परे है.
तंत्र की इस बेलगाम अराजकता से अलग देश में दूसरी तस्वीर उन सेवा संस्थाओं और उदार ह्रदय व्यक्तियों की भी थी, जिन्होंने मानवता, दया और करुणा भाव को जीवंत कर अपने असुरक्षित और विवश बंधुओं को छाती से लगाकर, उन्हें अपने घर में शरण देकर सुरक्षित बचाया. ये हमला एक धर्म को मानने वालों द्वारा दूसरे पंथ पर नहीं था, बल्कि बदले की भावना से प्रेरित होकर असामाजिक तत्वों, अपराधियों और राजनीतिक दल के नापाक गठबंधन का एक घिनौना कृत्य था.
जब नीयत में ही खोट हो और अपराध में पूरी भागीदारी तो फिर किसी जांच पड़ताल का भी क्या फायदा. कांग्रेस पार्टी की यह काली करतूत 84 के दंगों, उनकी जांच की नौटंकी और उसमें लिप्त नेताओं को बचाने की पुरजोर कोशिश दुनिया के सामने है. वेद मरवाह कमेटी को एक साल में ही चलता करना, जस्टिस रंगनाथ मिश्रा कमीशन को सीमा में बांधना और निर्दोष सिक्खों के न्याय को रोकना कहां तक जायज था. वर्ष 2014 में केंद्र में सत्ता परिवर्तन के पश्चात सिक्ख समुदाय के सम्मान और स्वाभिमान को बढ़ाने के साथ ही 84 के नरसंहार से उपजे हरे जख्मों पर मरहम लगाने का प्रयास सरकार कर रही है.