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नारदीय संचार नीति : एक मीमांसा

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आज संचार प्रक्रिया ने जिस गति एवं परिधि से मानवीय जीवन में अपना स्थान बनाया है, वह आश्चर्य  का विषय होने के साथ -साथ चिंता का भी विषय बन गया है. चिंता का विषय इसलिए है कि व्यापक संचार प्रवाह ने मानवीय जीवन को सकारात्मक से ज्यादा नकारात्मक ढंग से प्रभावित करना प्रारम्भ कर दिया है. ऐसे में अनेक वर्षों तक प्रत्यक्ष रूप से प्रिंट मीडिया में काम कर चुके और संप्रति हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय धर्मशाला के कश्मीर अध्ययन केंद्र में सहायक आचार्य डॉ. जयप्रकाश सिंह की शोध परक पुस्तक ‘नारदीय संचार नीति’ पत्रकारिता और विशेषकर वर्तमान समय में मीडिया की आँखों में जो नकारात्मकता की धूल सी जम गई है, उसे इस कृति के माध्यम से बुहारने का एक सफल, अभिनव प्रयास के रूप मे निश्चित ही देखा जा सकता है.

जैसा कि संचार विशेषकर जनसंचार व अन्य विद्वानों का मानना है कि देवर्षि नारद को जाने-अनजाने ही नकारात्मक पात्र के रूप में स्थापित करने की कुचेष्टा की जाती रही है. परन्तु पुस्तक के माध्यम से पुनः देवर्षि नारद जी को उनके मूल पद और स्थान पर प्रतिष्ठापित किया गया है. इसके लिए शोधार्थी लेखक को साधुवाद.

लोक कल्याण के लिए देवर्षि नारद तीनों लोकों की यात्रा में निरंतर व अविरल रहे. लोक हित हेतु नारद जी कटु सत्य वचनों से अक्सर सुर -असुरों के कोप का भाजन भी बनते रहे. मगर सत्य व लोक कल्याण का मार्ग कभी भी नारद जी ने तिरोहित नहीं किया, न ही किसी के कोप -अकोप की चिंता ही की. पुस्तक के माध्यम से अपेक्षा है कि जनसंचार कर्म में लगे लोग भी देवर्षि नारद का न केवल अनुसरण करें, बल्कि उनके सम्पूर्ण जीवन, व्यक्तित्व और कर्तृत्व का मूल समझें.

आज की अत्याधुनिक तकनीक ने संचार के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की है, वहीं दूसरी तरफ तकनीक के कारण मानवीय समाज में अनेक नकारात्मक और न भर पाने वाली अपूर्णिय क्षतियों को भी अंजाम दिया है. कई बार प्राण गंवा रहे व्यक्ति की वीडियो तो बन रही होती है, लेकिन उसे बचाने की कोशिश नदारत दिखती है. व्यक्ति का कहना कुछ होता है, मगर अपने स्वार्थ में वही हिस्सा दिखाया जाता है जो उन्हें लाभ दे सके.

हम क्या सही और क्या गलत का भी निर्णय नहीं कर पाते. यहाँ एक बहुचर्चित प्रसंग की चर्चा करता हूं.. यद्यपि अधिकांश जानते ही होंगे. पर जब -जब संचार और मीडिया कर्म में संवेदनशीलता की बात होगी, तब-तब इस घटना का उल्लेख होगा ही.

‘केविन कार्टर’ एक प्रतिष्ठित दक्षिण अफ़्रीकी फ़ोटो पत्रकार थे, जो अपने करियर के दौरान अफ़्रीका में संघर्षों का दस्तावेज़ीकरण करने के लिए जाने जाते थे. सबसे उल्लेखनीय रूप से, एक भूखी सूडानी बच्ची की तस्वीर, जिसका गिद्ध द्वारा पीछा किया जा रहा था…अंततः वह बच्ची तड़प तड़प कर मर गई. वह तस्वरी सुर्खियों में रही और 1993 में तस्वीर के लिए उन्हें पुलित्ज़र पुरस्कार मिला. इस भयावह चित्र को कैद करने की अपेक्षा यदि समय रहते केविन ने उस मरती बच्ची को बाहों में उठाकर भोजन केंद्र तक पहुंचा दिया होता तो शायद उसकी जान बच जाती. बाद में यह अनुभूति होने पर, कहा जाता है कि केविन ने ग्लानि भाव में आकर अल्प आयु में ही आत्महत्या कर ली. केविन चाहता तो दो -चार आवश्यक चित्र लेकर उस मरती बच्ची को सुरक्षित भोजन केंद्र तक ले जाकर भोजन उपलब्ध करवा सकता था और अपने व्यवसाय की गरिमा को भी सर्वोच्च स्थान दिला सकता था. मगर उसने वैसा नहीं किया और परिणाम सबके सामने है.

इस उदाहरण के अनेक पक्ष -विपक्ष हो सकते हैं, किंतु मानवता और नैतिकता यही थी कि केविन को उस मरती हुई भूखी बच्ची को बचाने का हर संभव प्रयास करना चाहिए था. उससे न केवल फोटो पत्रकारिता की गरिमा अक्षुण्ण रहती, बल्कि पत्रकारीय समाज के समक्ष व्यवसायिक नैतिकता का उच्च मानदंड भी भविष्य के लिए स्थापित हो जाता.

वास्तव में, पुस्तक ‘नारदीय संचार नीति’ का भी यही हेतु है. इसके साथ ही, वर्तमान में मीडिया जगत में जो विसंगति आ गयी है, उनके निराकरण का उपाय भी पुस्तक में बताया गया है.

देवर्षि नारद जी का व्यक्तित्व और कर्तृत्व किस तरह से आज की संचार, जनसंचार, मीडिया अथवा पत्रकारिता को राह दिखा सकता है, इस पर टिप्पणी करते हुए पत्रकार और मीडिया चिंतक उमेश उपाध्याय ने पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा है – “देवर्षि नारद स्वार्थरहित होकर सत्य का सन्धान करते थे, इसी कारण देव, दानव और मनुष्य लोक में उनका निर्बाध संचरण होता था”.

इसी तरह लेखक ने पुस्तक के प्रारंभ में ही रेखांकित कर दिया है कि “भारतीय संचार चिंतन के आद्य प्रतीक की पहचान की कोशिश की जाए तो हमारी यात्रा देवर्षि नारद पर पहुंच कर समाप्त हो जाती है”.

शोध पुस्तक को मूलतः तीन अध्यायों यथा – परिप्रेक्ष्य, प्रसंग और परिचय के रूप में बांटकर लेखक ने प्रस्तुत शोध कृति की आवश्यकता का विवरण दिया है जो निश्चित रूप से प्रासंगिक है. प्रसंग अध्याय के माध्यम से भारतीय लोक ग्रंथों में सृजित व उद्घाटित संचारीय परम्परा का व्यापक वर्णन है. यथा श्रीमद्भगवद गीता में श्री कृष्ण – अर्जुन संवाद, श्री कृष्ण-नारद संवाद, देवर्षि नारद और महर्षि गालव संवाद, नारद -युधिष्ठिर वार्तालाप, नारद व असित देवल संवाद, प्रहलाद को नारद उपदेश, सूर्य नारायण पूजा का उपदेश, शुकदेव को नारद सन्देश व इसी तरह के अनेक प्रसंगों का सजीव चित्रण कर लेखक ने आदिकाल से चली आ रही भारत की समृद्ध और लोकोपयोगी संचार रीति -नीति का प्रभावी आंकलन किया है.

अंततः, इस सुन्दर, अभिनव और स्तुत्य प्रयास के लिए लेखक बधाई के पात्र हैं.

 

डॉ. उदय भान सिंह

सह आचार्य, दीनदयाल उपाध्याय अध्ययन केंद्र

हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय

धर्मशाला – 176215

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